धर्म-अध्यात्म

इधर लंका में रावण रात भर सो नहीं पता था, और उधर श्रीराम जी भरपूर नींद लेकर सुबह आनंद से उठते थे

Manish Sahu
15 July 2023 3:08 PM GMT
इधर लंका में रावण रात भर सो नहीं पता था, और उधर श्रीराम जी भरपूर नींद लेकर सुबह आनंद से उठते थे
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धर्म अध्यात्म: विचार करके देखिए, क्या श्रीराम जी को इस बात की कोई आवश्यकता अथवा बाध्यता है, कि वे किसी से सलाह लेकर कोई कार्य करें? लेकिन तब भी वे सबको सम्मान देने के लिए, सब के साहस व सामर्थ को बल देने के लिए ऐसा करते हैं। इधर लंका में रावण रात भर सो नहीं पाया। उधर श्रीराम जी भरपूर नींद लेकर सुबह आनंद से उठते हैं। वे साधारण धरा की शैया पर सोकर भी निश्चिंत हैं, और उधर रावण सोने की लंका में वास करके भी सोने को तरस रहा है। हालाँकि श्रीराम जी सर्वसमर्थ हैं। संपूर्ण प्रकृति उनके वश में है। उन्हें पल-पल की खबर है, कि कब और कहाँ, क्या निर्णय लेना है। लेकिन तब भी वे अपने सभी भक्तों को बुलाकर, उन्हीं से पूछते हैं, कि बताओ अब हमें क्या करना चाहिए।
विचार करके देखिए, क्या श्रीराम जी को इस बात की कोई आवश्यकता अथवा बाध्यता है, कि वे किसी से सलाह लेकर कोई कार्य करें? लेकिन तब भी वे सबको सम्मान देने के लिए, सब के साहस व सामर्थ को बल देने के लिए ऐसा करते हैं। आधुनिक युग के ‘टीम लीडरशिप’ की इससे सुंदर उदाहरण हो ही नहीं सकती। कैसे अपनी टीम का उत्साह वर्धन करके, उनसे उत्तम कार्य लिया जाए, यह श्रीराम जी अपने जीवन में अतिअंत सुंदर ढंग से समझाते हैं। ऐसा भी नहीं, कि श्रीराम जी किसी विशेष व्यक्ति से ही पूछते हैं, कि बताओ हमें क्या करना है। अगर वे ऐसा करते, तो निश्चित ही ऐसा लगता, कि वे किसी एक जन को विशेष सम्मान देकर, अन्य जनों से पक्षपात कर रहे हैं। श्रीराम जी ने बस खुला विचार रखा-
‘इहाँ प्रात जागे रघुराई।
पूछा मत सब सचिव बोलाई।।
कहहु बेगि का करिअ उपाई।
जामवंत कह पद सिरु नाई।।’
ऐसे में जाम्बवान जी, श्रीराम जी को सिर निवाकर एक ऐसी सलाह देते हैं, कि उसे सुन कर एक साधारण व्यक्ति के हृदय में भी प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं। जाम्वान जी कहते हैं-
‘सुनु सर्बग्य सकल उर बासी।
बुधि बल तेज धर्म गुन रासी।।
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा।
दूत पठाइअ बालि कुमारा।।’
विचार करके देखिए, क्या जाम्बवान जी द्वारा सुझाया गया नाम नीति व मर्म के योग्य था? कारण कि वीर अंगद वही पात्र है, जिसके मन में किसी समय लंका के प्रति मानों भय का माहौल था। क्योंकि सागर पार करने के लिए, जब समस्त वानरों ने अपने-अपने सामर्थ की बात चल रही थी, तब सबने हाथ खड़े कर दिए थे, कि हम सागर पार करने में असमर्थ हैं। केवल वीर अंगद ही थे, जिन्होंने कहा था, कि मैं सागर पार करके लंका नगरी जा तो सकता हूँ, लेकिन वापस लौटने में कुछ संशय है। प्रश्न उठता है, कि क्या वीर अंगद रावण से भयग्रस्त थे? वीर अंगद के बारे में, ऐसा निम्न विचार तो स्वपन में भी नहीं सोचा जा सकता था। लेकिन जो भी अन्य कारण रहा हो, कम से कम वीर अंगद, रावण से भयभीत तो किसी भी स्थिति में नहीं थे। ऐसे में जिस व्यक्ति के मन में कहीं न कहीं, जैसे कैसे भी, रावण के प्रति भय व्याप्त था, क्या उसे आज की स्थिति में लंका में भेजने का विचार उचित था? कारण कि, सागर के इस पार जब तक वानर सेना थी, तब तक तो सेना के प्रति, निश्चित ही रावण का क्रोध साधारण स्तर पर ही था।
लेकिन सेना जब रावण के द्वार पर ही आकर बैठ गई, तो रावण क्या, किसी को भी क्रोध आ सकता है। ऐसे में, ऐसे व्यक्ति को लंका में भेजना, जो पहले ही लंका में जाने के विषय में अरुचि दिखा चुका हो, उसे लंका भेजने का विचार करना कहाँ तक उचित था? चिंतन का विषय है, कि वीर अंगद के स्थान पर अगर श्रीहनुमान जी को लंका भेजा जाता, तो क्या अधिक उचित नहीं होता? कारण कि श्रीहनुमान जी पहले भी लंका में जाकर, वहाँ लंका दहन करके, खूब धूम-धड़ाका करके वापस आ चुके हैं। ऐसे में श्रीहनुमान जी लंका में जाते, तो निश्चित ही रावण, श्रीहनुमान जी से भय तो मानता ही। लेकिन श्रीहनुमान जी को छोड़, वीर अंगद को लंका भेजने पर, श्रीराम जी की सहमति देना, मन में अनेकों प्रश्न उत्पन्न करता है।
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