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धर्म-अध्यात्म
Guru Purnima 2021 : क्या है गुरु दीक्षा, यह किसे दी जा सकती है और इसे कौन दे सकता है?
Rani Sahu
24 July 2021 8:01 AM GMT
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इसे गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है
आज आषाढ़ मास की पूर्णिमा है. इसे गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. बता दें कि आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ही महर्षि वेद व्यास जी का जन्म हुआ था. वेद व्यास जी ने पुराणों की रचना की थी और धरती पर मौजूद मानव जाति को चारों वेदों का ज्ञान प्रदान किया था. गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के दिन अपने गुरुओं की पूजा करने का प्रचलन है. इस दिन लोग अपने गुरुओं को पूजते हैं. गुरु पूर्णिमा के दिन व्रत रखने का भी प्रचलन है, इस दिन भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना की जाती है और घर में सत्यनारायण की कथा कराई जाती है. इस पावन दिन पर आज हम आपको गुरु और शिष्य के बीच होने वाले खास संबंध के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं.
गुरु दीक्षा क्या है
दीक्षा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द दक्ष से हुई है जिसका अर्थ है कुशल होना. इसका समानार्थी अर्थ है- विस्तार. इसका दूसरा स्रोत दीक्ष शब्द है जिसका अर्थ है समर्पण. अतः दीक्षा का सम्पूर्ण अर्थ हुआ- स्वयं का विस्तार. दीक्षा के द्वारा शिष्य में यह सामर्थ्य उत्पन्न होता है कि गुरु से प्राप्त ऊर्जा के द्वारा शिष्य के अंदर आतंरिक ज्योति प्रज्ज्वलित होती है, जिसके प्रकाश में वह अपने अस्तित्व के उद्देश्य को देख पाने में सक्षम होता है. दीक्षा से अपूर्णता का नाश और आत्मा की शुद्धि होती है.
गुरु का ईश्वर से साक्षात संबंध होता है. ऐसा गुरु जब अपनी आध्यात्मिक/प्राणिक ऊर्जा का कुछ अंश एक समर्पित शिष्य को हस्तांतरित करता है तो यह प्रक्रिया गुरु दीक्षा कहलाती है. यह आध्यात्मिक यात्रा की सबसे प्रारम्भिक सीढ़ी है. गुरु दीक्षा के उपरांत शिष्य गुरु की आध्यात्मिक सत्ता का उत्तराधिकारी बन जाता है. गुरु दीक्षा एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें गुरु और शिष्य के मध्य आत्मा के स्तर पर संबंध बनता है जिससे गुरु और शिष्य दोनों के मध्य ऊर्जा का प्रवाह सहज होने लगता है. गुरु दीक्षा के उपरान्त गुरु और शिष्य दोनों का उत्तरदायित्व बढ़ जाता है. गुरु का उत्तरदायित्व समस्त बाधाओं को दूर करते हुए शिष्य को आध्यात्मिकता की चरम सीमा पर पहुंचाना होता है. वहीं शिष्य का उत्तरदायित्व हर परिस्थिति में गुरु के द्वारा बताए गए नियमों का पालन करना होता है.
दीक्षा कब मिलती है?
जब हमारा अंतःकरण (मन) शुद्ध हो जाता है तब दीक्षा मिलती है. शुद्ध का मतलब संक्षेप में समझिए, जब अंतःकरण (मन) एक भोले भाले बच्चे की तरह हो जाता है, वह बच्चा न तो किसी के बारे में बुरा सोचता है और न तो किसी के बारे में अच्छा सोचता है. अर्थात संसार से उस बच्चे का मन न तो राग (प्रेम) करता है और न तो द्वेष (दुश्मनी) करता है. जब किसी वक्ति का अंतःकरण भगवान में मन लगाकर, इस अवस्था पर पहुंच जाता है. तब वास्तविक गुरु आपके अंतःकरण को दिव्य बनाएगा. तब वास्तविक गुरु अथवा संत अथवा महापुरुष आपको गुरु मंत्र या दीक्षा देता है. अब दीक्षा का समय आया है, जब अंतःकरण शुद्ध हो गया. इससे पहले दीक्षा नहीं दी जा सकती क्योंकि हमारा अंतःकरण उस अलौकिक शक्ति को संभाल नहीं सकता.
अगर कोई गुरु बिना अधिकारी बने किसी को जबरदस्ती दीक्षा दे दें तो उस व्यक्ति का शरीर फट के चूर-चूर हो जाए. वह अनाधिकारी व्यक्ति सहन नहीं सकता. हमारा (माया अधीन जिव) का अंतःकरण इतना कमजोर है की उस दीक्षा (अलौकिक शक्ति/दिव्य आनंद, दिव्य प्रेम आनंद) को सहन नहीं कर सकता. हम लोग संसार के सुख और दुःख को ही नहीं संभाल सकते हैं. जैसे एक गरीब को करोड़ की लॉटरी खुल जाए तो उसके होश उड़ जाते हैं. किसी की प्रेमिका-प्रेमी अथवा माता-पिता संसार छोड़ देते हैं तो उसका दुःख भी वह व्यक्ति नहीं संभाल पाता है. तो यह जो अलौकिक शक्ति (दिव्य आनंद) है इसे कोई क्या संभाल पाएगा. ये दीक्षा अनेक प्रकार से दी जाती है. अगर वह दीक्षा बोल कर दी जाए तो उसे हमलोग गुरु मंत्र कहते हैं. वास्तविक गुरुओं ने अनेक तरीकों से दीक्षा दी है. कभी कान में बोल कर, आंख से देख कर, गले लगा कर, यहां तक फूंक मार कर भी दी है. दीक्षा देना है, किसी बहाने दे दें, चाहे एक घुंसा मार कर दे दें. दीक्षा देने में यह आवश्यक नहीं है कि कान से ही दिया जाए. गौरांग महाप्रभु ने गले लगा कर दीक्षा दिया है.
दीक्षा के प्रकार
स्पर्श दीक्षा, दृग दीक्षा, मानस दीक्षा शक्ति, शाम्भवी, मांत्रिक दीक्षा.
स्पर्श दीक्षा
जैसे पक्षी अपने सुंदर पंखों से धीरे-धीरे शिशुओं की वृद्धि करता है. इस प्रकार की दीक्षा को स्पर्श दीक्षा कहते हैं. अर्थात् शिष्य को छूने मात्र से शिष्य में शक्तिपात करते हैं.
दृग दीक्षा
योग्य गुरु अपने कृपा पात्र शिष्य की निष्ठा से प्रसन्न होकर अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर संकल्प करके दृग दीक्षा देते हैं. उदाहरण के लिए जैसे मछली अपने बच्चों का देखने मात्र से पोषण करती है, इस प्रकार जो गुरु देखने मात्र से शक्तिपात करते हैं, उसे दृग-दीक्षा कहते हैं.
मानस दीक्षा
मानस दीक्षा को संकल्प दीक्षा भी कहते हैं. इसमें देशकाल का व्यवधान नहीं होता. सद्गुरु चाहे जहां हों और शिष्य उनसे चाहे कितनी ही दूर हो. सद्गुरु अपने संकल्प मात्र से शिष्य में शक्तिपात कर देते हैं.
इसमें यह भी आवश्यक नहीं है कि शिष्य ने सद्गुरु के दर्शन किए हों या विधिवत् प्रार्थना की हो कि मुझे दीक्षित करें.
शक्ति दीक्षा
गुरु योगमार्ग से शिष्य के शरीर में प्रवेश करके उसके अंत:करण में ज्ञान उत्पन्न करके जो ज्ञानवती दीक्षा देते हैं, वह शक्ती दीक्षा कहलाती है.
शाम्भवी दीक्षा
गुरु के दृष्टिपात मात्र से, स्पर्ष से तथा बातचीत से भी जीव को पाश्बंधन को नष्ट करने वाली बुद्धि एवं ईश्वर के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है. प्रकृति, बुद्धि, त्रिगुणात्मक अहंकार एवं शब्द, रस, रूप, गंर्ध स्पशज् (पांच तन्मात्राएं), इन्हें आठ पाश कहा गया है. इन्हीं से शरीरादी संसार उत्पन्न होता है. इन पाशों का समुदाय ही महाचक्र या संसारचक्र है और परमात्मा इन प्रकृति आदि आठ पाशों से परे है. गुरु द्वारा दी गई योग दीक्षा से यह पाश क्षीण होकर नष्ट हो जाता है.
मान्त्री दीक्षा
मान्त्री दीक्षा में पहले यज्ञमंडप और हवनकुंड बनाया जाता है. फिर गुरु बाहर से शिष्य का संस्कार करते हैं. शक्तिपात के अनुसार शिष्य को गुरु का अनुग्रह प्राप्त होता है. जिस शिष्य में गुरु की शक्ति का पात नहीं हुआ, उसमें शुद्धि नहीं आती, उसमें न तो विद्या, न मुक्ति और न ही सिद्धियां आती हैं. इसलिए शक्तिपात के द्वारा शिष्य में उत्पन्न होने वाले लक्षणों को देखकर गुरु ज्ञान अथवा क्रिया द्वारा शिष्य की शुद्धि करते हैं. उत्कृष्ट बोध और आनंद की प्राप्ति ही शक्तिपात का लक्षण (प्रतीक) है क्योंकि वह परमशक्ति प्रबोधानन्दरूपिणी ही है.
गुरु दीक्षा कौन दे सकता है
गुरु शब्द का अर्थ है जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए. एक सम्पूर्ण जागृत गुरु, जो की सहस्त्र्सार चक्र में स्थित हो, केवल वही दीक्षा देने का अधिकारी होता है. ऐसे गुरु की पहचान उनके व्यवहार से होती है. ऐसे गुरु सबके लिए करुणामय होते है. उनका ज्ञान अभूतपूर्व होता है. जागृत गुरु अहंकार, काम, क्रोध, लोभ और मोह से दूर रहते हैं. वह शिष्य की किसी भी समस्या और परिस्थिति का समाधान निकालने में सक्षम होते हैं. ऐसे गुरु का ध्यान अत्यंत उच्च कोटि का होता है.
गुरु दीक्षा किसे दी जाती है
शिव पुराण में भगवान् शिव माता पार्वती को योग्य शिष्य को दीक्षा देने के महत्व को इस प्रकार समझाते हैं- हे वरानने, आज्ञाहीन, क्रियाहीन, श्रद्धाहीन तथा विधि के पालनार्थ दक्षिणाहीन जो जप किया जाता है वह निष्फल होता है. इस वाक्य से गुरु दीक्षा का महत्व स्थापित होता है. दीक्षा के उपरान्त गुरु और शिष्य एक दूसरे के पाप और पुण्य कर्मों के भागी बन जाते हैं. शास्त्रों के अनुसार गुरु और शिष्य एक दूसरे के सभी कर्मों के छठे हिस्से के फल के भागीदार बन जाते हैं. यही कारण है कि दीक्षा सोच समझकर ही दी जाती है.
अब प्रश्न यह उठता है कि दीक्षा के योग्य कौन होता है? धर्म अनुरागी, उत्तम संस्कार वाले और वैरागी व्यक्ति को दीक्षा दी जाती है. दीक्षा के उपरान्त आदान-प्रदान की प्रक्रिया गुरु और शिष्य दोनों के सामर्थ्य पर निर्भर करती है. दीक्षा में गुरु के सम्पूर्ण होने का महत्व तो है ही किन्तु सबसे अधिक महत्व शिष्य के योग्य होने का है. क्योंकि दीक्षा की सफलता शिष्य की योग्यता पर ही निर्भर करती है. शिष्य यदि गुरु की ऊर्जा और ज्ञान को आत्मसात कर अपने जीवन में न उतार पाए अर्थात क्रियान्वित न करे तो श्रेष्ठ प्रक्रिया भी व्यर्थ हो जाती है. इसलिए अधिकांशतः गुरु शिष्य के धैर्य, समर्पण और योग्यता का परीक्षण एक वर्ष तक या इससे भी अधिक अवधि तक विभिन्न विधियों से करने के उपरान्त ही विशेष दीक्षा देते है. ऐसी दीक्षा मन, वचन और कर्म जनित पापों का क्षय कर परम ज्ञान प्रदान करती है.
अच्छे शिष्य के लक्षण
गुरु के वचनों पर पूर्ण विश्वास करने वाला
आज्ञाकारी
आस्तिक और सदाचारी
सत्य वाणी का प्रयोग करने वाला
चपलता, कुटिलता, क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या आदि अवगुणों से दूर रहने वाला
जितेन्द्रिय
निंदा, छिद्रान्वेषण, कटु भाषण और सिगरेट मद्य इत्यादि व्यसनों से दूर रहने वाला
गुरु के सदुपदेशों पर चिंतन मनन करने वाला
नियमों का पालन श्रद्धा और विश्वास से करने वाला
गुरु की सेवा में उत्साह रखने वाला
गुरु की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति दोनों परिस्थितियों में उनके आदेशों का पालन करना
Rani Sahu
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