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भगवान जगन्नाथ की यात्राओं में गुंडिचा यात्रा सबसे मुख्य है, जानें कैसे की जाती है रथयात्रा की तैयारी
भगवान जगन्नाथ जी की द्वादश यात्राओं में गुंडिचा यात्रा सबसे मुख्य है. इसी गुंडिचा मंदिर में विश्वकर्मा जी ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र जी तथा सुभद्रा जी की दारु प्रतिमाएं बनाई थीं. महाराज इन्द्रद्युम्न ने इन्हीं मूर्तियों को प्रतिष्ठित किया था, इसीलिए गुंडिचा मंदिर को ब्रह्मलोक या जनकपुर भी कहते हैं. गुंडिचा मंदिर में यात्रा के समय श्री जगन्नाथ जी विराजमान होते हैं, उस समय मंदिर में होने वाले महोत्सव को गुंडिचा महोत्सव कहते हैं.
भगवान जगन्नाथ जी से आशय जगत के नाथ यानी भगवान विष्णु से है. उड़ीसा के पुरी में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर भारत के चार पवित्र धामों में से एक माना जाता है. सनातन परम्परा में सप्तपुरियों का विशेष महत्व है और भगवान जगन्नाथ की पावन नगरी पुरी भी उन्हीं में शामिल है.
हिंदू मान्यता के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि हर व्यक्ति को जीवन में एक बार जगन्नाथ मंदिर के दर्शन अवश्य करना चाहिए. पुरी में हर वर्ष जगन्नाथ रथयात्रा का आयोजन किया जाता है. कहते हैं इस यात्रा के माध्यम से भगवान जगन्नाथ साल में एक बार प्रसिद्ध गुंडिचा माता के मंदिर में जाते हैं जिसे देखने के लिए भारत ही नहीं विश्व भर के लोग वहां पहुंचते हैं. पुरी में यात्रा की तैयारियां जोरशोर से चल रही हैं, जगन्नाथ रथयात्रा का महापर्व आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है और इस वर्ष यह पर्व 1 जुलाई 2022 को होगा.
इस तरह तैयार किए जाते हैं यात्रा के रथ
स्कंद पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में जो पूर्णिमा आती है, उसमें ज्येष्ठा नक्षत्र से इस पर्व की तैयारी शुरू हो जाती है, जो सब पापों का नाश करने वाली, महा पुण्यमयी तथा भगवान की प्रीति को बढ़ाने वाली है. उसमें करुणासिन्धु देवेश्वर जगन्नाथ जी के नानाभिषेक और पूजन का दर्शन करके मनुष्य सभी तरह के पापों से मुक्त हो जाता है. वैशाख मास के शुक्ल पक्ष में जो पाप नाशिनी तीज आती है, उसमें रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर पवित्र भाव से संकल्प पूर्वक एक आचार्य की नियुक्ति होती है.
फिर एक या तीन बढ़ई से भगवान श्री कृष्ण, बलभद्र जी और सुभद्रा जी के लिए तीन रथ तैयार कराए जाते हैं जिनमें बैठने के लिए सुंदर ढंग से बनाए गए आसन होते हैं. रथों का निर्माण हो जाने पर शास्त्रोक्त विधि से मंत्रोच्चार करते हुए विधि विधान से उनका पूजन कर प्रतिष्ठा की जाती है. यात्रा मार्ग का भलीभांति संस्कार यानी शुद्धता कराई जाती है. मार्ग के दोनों ओर फूलों के गुच्छे, माले, सुंदर वस्त्र, चंवर और फूलों आदि से मंडल बनाए जाते हैं. यात्रा मार्ग की भूमि को पहले ही समतल कर देना चाहिए और वहां पर कीचड़ नहीं रहना चाहिए ताकि भगवान का रथ सुखपूर्वक चल सके.
सड़क पर चंदन के जल का छिड़काव करना चाहिए. पग - पग पर रास्ते के दोनों ओर सुगंधित करने वाली धूप आदि जलाना चाहिए, साथ ही नगाड़ा और ढक्का आदि वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं. सुंदर चित्रकारी किए हुए सोने - चांदी के स्तंभ लगाने के बाद उनके ऊपर पताकाएं फहराने की मान्यता है. भूमि पर बहुत सी वैजयन्ती मालाएं बिछी होनी चाहिए तथा कसे कसाए हाथी-घोड़े भी प्रस्तुत किए जाने चाहिए जिनका भली भांति श्रृंगार किया गया हो.
भगवान की पूजा कर किया जाता है यात्रा का आवाहन
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि और उस तिथि में पुष्य नक्षत्र हो तो उस तिथि को सूर्योदय के समय भगवान की पूजा की जाती है और फिर बाद हाथ जोड़ कर देवाधिदेव भगवान जगन्नाथ से यात्रा के लिए निवेदन किया जाता है कि हे प्रभो ! आपने पूर्वकाल में राजा इन्द्रद्युम्न को जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार रथ से गुंडिचा मंडप तक विजय यात्रा कीजिए. आपकी कृपा पूर्ण दृष्टि से दसों दिशाएं पवित्र हों तथा स्थावर - जंगम समस्त प्राणी कल्याण को प्राप्त हों.
आपने यह अवतार लोगों के ऊपर दया की इच्छा से ग्रहण किया है, इसलिये भगवन ! आप प्रसन्नता पूर्वक पृथ्वी पर चरण रखकर पधारिए. इसके बाद लोग मंगल गीत गाते हुए भगवान की जय जयकार करते हुए उनका यशगान करते हुए यात्रा को प्रारंभ करते हैं. भगवान के दोनों ओर पार्श्व में सुवर्णमय दंड से सुशोभित व्यंजनों की पंक्ति धीरे-धीरे चलती रहती है. झांझ, करताल, वेणु, वीणा आदि वाद्य यंत्र यात्रा में मधुर स्वर में बजाए जाते हैं.