धर्म-अध्यात्म

ज्ञान का सार: राम को पाने के ल‍िए क‍िसी व‍िशेष जतन की नहीं बल्कि केवल प्रेम की आवश्‍यकता होती है

Deepa Sahu
21 April 2021 11:27 AM GMT
ज्ञान का सार: राम को पाने के ल‍िए क‍िसी व‍िशेष जतन की नहीं बल्कि केवल प्रेम की आवश्‍यकता होती है
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एक ईश्वरीय सत्ता के प्रति आत्मनिष्ठा हमारी संस्कृति का दार्शनिक पक्ष है,

जनता से रिश्ता वेबडेस्क: एक ईश्वरीय सत्ता के प्रति आत्मनिष्ठा हमारी संस्कृति का दार्शनिक पक्ष है, तो बहुलवादी उत्सवधर्मिता हमारी संस्कृति का व्यवहारिक पक्ष। हम विविधता से भरे उत्सवधर्मी परिवेश में रहते हैं। उत्सवधर्मिता जीवंतता की कसौटी भी है। विविधता से भरी उत्सवधर्मिता ही भारतीय संस्कृति को एनर्जेटिक आभामंडल और जीवंत आकार देती है। भारतीय संस्कृति के संदर्भ में, जब व्यक्ति का अंतर्मन जीवंतता से लबरेज होकर प्रफुल्लित हो उठता है, तब उत्सव का स्वाभाविक तौर पर प्रकटीकरण होता है। जबकि पाश्चात्य संस्कृति में सेलिब्रेशन परिस्थिति और पदार्थ को वरीयता देने वाला आयोजन मात्र है।

सनातन संस्कृति में चैत्र नवरात्र के बाद रामनवमी महोत्सव मनाया जाता है। नवरात्र और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र का गहरा संबंध है। नवरात्र को सृष्टि की संचालिका आदिशक्ति की आराधना का सर्वश्रेष्ठ कालखंड माना गया है। यह कालखंड हमें प्रेरणा देता है कि नौ दिनों तक यम, नियम, व्रत-उपवास से आत्म-अनुशासन में दृढ़ता लाने से राम के मर्यादित और पुरुषोत्तम स्वरूप को पाया जा सकता है। दो अक्षर का समुच्चय है- राम। राम शब्द संस्कृत की 'रम' धातु से बना है, यानी हरेक मनुष्य के अंदर रमण करने वाला जो चैतन्य-स्वरूप आत्मा का प्रकाश मौजूद है, वही राम है। राम को शील- सदाचार, मंगल- मैत्री, करुणा, क्षमा, सौंदर्य और शक्ति का पर्याय माना गया है।
जब कोई व्यक्ति सतत साधना से अपने संस्कारों का परिशोधन कर राम के इन तमाम सद्गुणों को अंगीकार कर लेता है, तो उसका चित्त इतना निर्मल और पारदर्शी हो जाता है कि उसे राम के अस्तित्व का अहसास होने लगता है। कदाचित यही वह अवस्था है जब संत कबीर के मुखारविंद से निकला होगा- 'मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में। ना मैं मंदिर ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।' राम दशरथ और कौशल्या के पुत्र थे। संस्कृत में दशरथ का अर्थ है- दस रथों का मालिक। यानी पांच कर्मेंद्रियों और पांच ज्ञानेंद्रियों का स्वामी। कौशल्या का अर्थ है- कुशलता। यानी जब कोई व्यक्ति अपनी कर्मेंद्रियों पर संयम रखते हुए विवेकशील होकर अपनी ज्ञानेंद्रियों को मर्यादा पूर्वक सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है तो उसका चित्त स्वाभाविक रूप से राम में रमने लगता है। पूजा-अर्चना की तमाम सामग्रियां उसके लिए गौण हो जाती हैं।
ऐसे व्यक्ति का व्यक्तित्व इतना सहज और सरल हो जाता है कि वह जीवन में आने वाली तमाम मुश्किलों का स्थितप्रज्ञ होकर मुस्कुराते हुए सामना कर लेता है। राम का महत्व इसलिए नहीं है कि उन्होंने जीवन में इतनी मुश्किलें झेलीं, बल्कि उनका महत्व इसलिए है कि उन्होंने उन तमाम कठिनाइयों का सामना बहुत ही सहजता से किया। उन्होंने अपने सबसे मुश्किल क्षणों में भी स्वयं को बेहद गरिमापूर्ण रखा। कबीर ने दशरथ पुत्र से अलग राम नाम का नया मर्म अन्वेषित किया। असलियत में राम-नाम के इस नए मर्म में सबके लिए संभावनाएं हैं। खासतौर से उनके लिए, जो सदियों से तिरस्कृत हैं, बहिष्कृत हैं, हाशिए पर हैं।
इस निर्गुण राम की उपासना में तमाम तरह के वाह्य तामझाम व्यर्थ हैं- कबीर के राम की पूजा-पद्धति में यदि कुछ सार्थक और अपरिहार्य है तो वह है केवल और केवल प्रेम। इसलिए जिनके पास साधन नहीं थे, वे इस प्रेम मार्ग पर चल पड़े और राम की अनुभूति पाने में सफल हो गए। किंतु जो सिर पर साधनों का भारी बोझ लिए हुए थे। उनका चलना मुहाल हो गया, वे अटके-भटके-ठिठके रहे और इधर प्रेम का घोड़ा दिग्विजय के लिए निकल पड़ा।


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