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धर्म-अध्यात्म
Bakra Eid-al-Adha 2021: जानिए बकरीद पर कुर्बानी की कहानी और हज की रस्म
Deepa Sahu
21 July 2021 9:24 AM GMT
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मुस्लिम समाज के प्रमुख त्योहारों में से एक ईद-उल-अजहा यानी बकरीद 21 जुलाई यानी आज है।
मुस्लिम समाज के प्रमुख त्योहारों में से एक ईद-उल-अजहा यानी बकरीद 21 जुलाई यानी आज है। इस त्योहार को लेकर मुस्लिम समाज के लोगों में बहुत उत्साह है। मुस्लिम समाज के मौलानाओं ने अपील की है कि कोरोना वायरस को देखते हुए जारी गाइडलाइन का पालन करें और घरों में ही नमाज पढ़ें।
अगर आप ईद-उल-अजहा यानी बकरीद के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो उससे ही पता चलता है कि यह कुर्बानी का त्योहार है जो अल्लाह की राह में दी जाती है। अजहा अरबी शब्द है, जिसके मायने होते हैं कुर्बानी, बलिदान, त्याग और ईद का अर्थ होता है त्योहार। इस त्योहार की पृष्ठभूमि में है अल्लाह का वह इम्तिहान जो उन्होंने हजरत इब्राहीम का लिया। हजरत इब्राहीम उनके पैगंबर थे। अल्लाह ने एक बार उनका इम्तिहान लेने के बारे में सोचा। उनसे ख्वाब के जरिए अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी मांगी। हर बाप की तरह हजरत इब्राहीम को भी अपने बेटे इस्माइल से मोहब्बत थी। यह मुहब्बत इस मायने में भी खास थी कि इस्माइल उनके इकलौते बेटे थे और वह भी काफी वक्त बाद पैदा हुए थे। उन्होंने फैसला लिया कि इस्माइल से ज्यादा उनको कोई प्रिय नहीं है और फिर उन्होंने उनको ही कुर्बान करने का फैसला किया।
रास्ते में शैतान से मुलाकात
हजरत इब्राहीम जब बेटे लेकर कुर्बानी देने जा रहे थे तो रास्ते में उनकी मुलाकात शैतान से हो गई। उसने जानना चाहा कि वह अपने बेटे को लेकर कहां जा रहे हैं। जब हज़रत इब्राहीम ने उन्हें यह बताया कि वह उसे अल्लाह की राह में कुर्बान करने के लिए जा रहे हैं तो उसने उन्हें यह समझाने की कोशिश की क्या कोई बाप अपने बेटे की कुर्बानी भी देता है? अगर उन्होंने अपने बेटे को कुर्बानी दे दी तो फिर उन्होंने देखभाल करने वाला कहां से आएगा? जरूरी नहीं कि बेटे की कुर्बानी दी जाए, बहुत सारी दूसरी चीज हैं, उन्हें ही अपनी सबसे प्रिय बताकर कुर्बानी क्यों नहीं देते? एक बार तो हज़रत इब्राहीम को लगा कि यह शैतान जो कह रहा है, वह सही ही कह रहा है। उनका मन भी डोल गया लेकिन फिर उन्हें लगा कि यह गलत होगा। यह अल्लाह से झूठ बोलना हुआ। यह उनके हुक्म की नाफरमानी होगी।
फिर हुआ चमत्कार
बेटे की कुर्बानी देते हुए उन्होंने अपनी आंख पर पट्टी बांध लेना बेहतर समझा ताकि बेटे का मोह कहीं अल्लाह की राह में कुर्बानी देने में बाधा न बन जाए। फिर उन्होंने जब अपनी आंख से पट्टी हटाई तो यह देखकर चौंक गए कि उनका बेटा सही सलामत खड़ा है और उसकी जगह एक बकरा कुर्बान हुआ है। तभी से बकरों की कुर्बानी का चलन शुरू हुआ। इसी वजह से इस त्योहार को बकरा ईद या बकरीद के नाम से भी जाना जाता है।
इस तरह पूरी होती है हज की रस्म
बकरों के अलावा भेड़, ऊंट और भैंसे की भी कुर्बानी दी जाती है लेकिन शर्त यह होती है कि वह पूरी तरह स्वस्थ हों। उन्हें बहुत ही सम्मान दिए जाने की परंपरा है। जिस दिन बकरीद होती है, उसी दिन हज भी होता है। जो शैतान पैंगबर हजरत इब्राहीम को अल्लाह का हुक्म न मानने के लिए भटक रहा था, उसी के प्रतीक को हज के तीसरे दिन पत्थर से मारने की रस्म भी होती है। इस रस्म के साथ हज पूरा माना जाता है।
कुर्बानी किन पर जरूरी
कुर्बानी हमेशा बकरीद की नमाज अदा करने के बाद दी जाती है। बकरी और भेड़ पर एक व्यक्ति के नाम से कुर्बानी होती है लेकिन ऊंट या भैंस पर सात व्यक्ति अपने-अपने नाम से कुर्बानी दे सकते हैं। कुर्बानी उस हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य है, जो इन जानवरों को खरीदने की क्षमता रखते हैं। जिस भी जानवर की कुर्बानी दी जाती है, उसके गोश्त के तीन हिस्से करने जरूरी होते हैं। एक हिस्सा गरीबों को बांटना होता है। दूसरे हिस्से को रिश्तेदार में और तीसरे हिस्से को घर में रखने की अनुमति होती है।
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