धर्म-अध्यात्म

संत की सलाह: जीवन में अकारण ढोई जा रही प्रथाओं के हूबहू अनुपालन से व्यक्ति का विकास अधूरा रहता है

Deepa Sahu
2 Aug 2021 3:23 PM GMT
संत की सलाह: जीवन में अकारण ढोई जा रही प्रथाओं के हूबहू अनुपालन से व्यक्ति का विकास अधूरा रहता है
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जीवन को आनंदमय और उन्मुक्त बनाने के लिए एक संत ने अलहदा सलाह दी।

हरीश बड़थ्वाल। जीवन को आनंदमय और उन्मुक्त बनाने के लिए एक संत ने अलहदा सलाह दी। क्रम से अपने माता-पिता, अध्यापकों, परिजनों, मित्रों और फिर समाज का विनाश कर दो। अंत में स्वयं को मार डालो। इसके पश्चात अनेक भ्रांतियों, पूर्वाग्रहों, कुधारणाओं से मुक्त तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। मन और चित्त पूरी तरह उर्वर और ग्राही मुद्रा में होंगे और नए सिरे से उत्सव रूपी जीवन आरंभ होगा।

कहने की जरूरत नहीं कि यहां मारने का मतलब शारीरिक तौर पर मारना नहीं है। वैसे ही विनाश का अभिप्राय भी अपने अंदर जड़ जमा चुके इन सबके कुप्रभावों को नष्ट करने से है। बचपन से मिलीं परंपराएं और रूढ़ियां व्यक्ति को एक खास सांचे में ढाल देती हैं। ये उसके सहज विकास को रोकती हैं। इसीलिए दूसरे पंथ के व्यक्तियों का आचरण, व्यवहार और विचार कभी-कभार अनुचित और अमान्य लगता है। हमारे दिल और दिमाग में ठूंस दिया जाता है कि फलां ग्रंथ में जिन धारणाओं, मान्यताओं और तौर-तरीकों की संस्तुति है, उन्हीं की अनुपालना से हमारा जीवन धन्य होगा। यह भी कि निषिद्ध अनुदेशों पर चलने से परमात्मा रुष्ट होंगे और हम पाप के भागी होंगे। कमरे में नया सामान रखने से पूर्व पुराने को निष्कासित करना होगा, तभी नए के लिए स्थान बनेगा। उसी तरह उपयोगिता खो चुके जीवन मूल्यों और आस्थाओं को तिलांजलि दिए बिना आज के उपयोगी और अभिनव मूल्यों को धारण करना दुष्कर होगा।
औपचारिक शिक्षा प्रणाली के बारे में नामी शिक्षाविद इवान इलिच ने कहा कि प्रचलित पाठ्यक्रम, पठन सामग्री, शिक्षण और परीक्षण विधियां, कमोबेश बेवजह और प्रकृति विरोधी हैं जो मौलिक सोच और प्रतिभा को नहीं बढ़ातीं। अकारण ढोई जा रही प्रथाओं के हूबहू अनुपालन में व्यक्ति का विकास अधूरा रहता है। शुक्र है, कुछ आवासीय शैक्षिक संस्थानों में बच्चों के समग्र विकास के लिए उन्हें प्रकृति से रूबरू कराते हैं। मुंबई के निकट वसई के प्राइमरी छात्रों के एक ऑनलाइन सत्र में बच्चों को किसी पात्र या शीशी में सरसों के बीज प्रस्फुटित करने की विधि समझाई गई। स्वयं सरसों के पौधे उगा कर बच्चे खुशी से झूम उठे और उन्हें वनस्पति के प्रजनन की जानकारी हुई।
बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के निमित्त प्राचीन गुरुकुल घर-परिवार और समाज से दूर प्राकृतिक परिवेश में होते थे ताकि उनके सुकोमल मन अनावश्यक धारणाओं, मान्यताओं से विकृत न हों। ज्ञान या कौशल आत्मसात करने की अभिनव पद्धति में पिछले 'ज्ञान' या 'समझ' को समूल बिसार देना (अनलर्निंग) आवश्यक बताते हैं क्योंकि पुरानी विधि में अभ्यस्त मस्तिष्क की कार्यप्रणाली नए कौशल या ज्ञान सीखने में कारगर नहीं रहती। कार्य प्रणालियों के मशीनीकरण और अन्य बदलावों से तालमेल बिठाने में स्वयं को असमर्थ मानते अनेक कर्मचारी घर बैठ गए हैं। जीवन आखिर क्या है? इस जिज्ञासा का समाधान प्रवचनों और ग्रंथों में नहीं मिलता, क्योंकि हम रोजाना उन गतिविधियों में लगे रहते हैं, जिनका अध्यात्म और आत्मोन्नति से तालमेल नहीं है। व्यक्ति की सोच में उसी हद तक निखार और सवंर्धन होगा, जिस अनुपात में उसमें पुराने ढर्रे से हटने का सामर्थ्य होगा। जागृत व्यक्ति ब्रह्मांड की सुनियोजित व्यवस्था के अनुरूप अपनी भीतरी संरचना गढ़ता है।
अर्थहीन लौकिक मान्यताएं ढोते रहेंगे तो मस्तिष्क की जीवंतता क्षीण हो जाएगी, अज्ञान का आवरण नहीं हटेगा और प्रगति ठप हो जाएगी। भ्रम में जीने का अभ्यस्त ऐसा व्यक्ति सुषुप्त अवस्था को परम सत्य समझेगा। दूसरों को वही आलोकित कर सकता है जो अवांछित मान्यताओं से मुक्त जीना जानता है।
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