सम्पादकीय

रद्द कानून का दुरुपयोग

Triveni
6 July 2021 4:40 AM GMT
रद्द कानून का दुरुपयोग
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सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त किए गए कानून का पुलिस द्वारा अभी भी इस्तेमाल न केवल दुखद, बल्कि शर्मनाक भी है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त किए गए कानून का पुलिस द्वारा अभी भी इस्तेमाल न केवल दुखद, बल्कि शर्मनाक भी है। सूचना प्रौद्योगिकी कानून की निरस्त की गई धारा 66अ को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से उचित ही जवाब मांगा है। इस धारा को 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने हटा दिया था, लेकिन पुलिस अभी भी इसके तहत मामले दर्ज कर रही है और इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हैरानी जताई है। अब केंद्र सरकार को अदालत को यह बताना होगा कि देश भर में अब तक इसके तहत कितने मुकदमे दर्ज किए गए हैं। जिस कानून को निरस्त हुए करीब छह साल होने जा रहे हैं, उसके बारे में पुलिस प्रशासन का सूचित न होना बड़ी चिंता की बात है। पुलिस के स्तर पर जागरूक अफसरों की कमी नहीं है और अनेक पुलिस अफसर ऐसे होंगे, जो इस निरस्त कानून के बारे में भी जानते होंगे, पर इसके बावजूद बड़ी संख्या ऐसे पुलिस वालों की है, जिन्हें इस कानून के बारे में सूचना नहीं है। न जाने कितने लोगों को इस कानून के तहत परेशान किया गया होगा? जिन्हें पुलिस कार्रवाई से गुजरना पड़ा होगा, उनकी तकलीफ की भरपाई क्या मुमकिन है?

निरस्त धारा के तहत किसी भी व्यक्ति को वेबसाइट पर कथित तौर पर 'अपमानजनक' कंटेंट या सामग्री शेयर करने पर गिरफ्तार किया जा सकता था। यह कानून आईटी ऐक्ट के शुरुआती दौर में बिना ज्यादा सोचे गढ़ दिया गया था, लेकिन जब अदालत और कानून के जानकारों को एहसास हुआ कि इस कानून का ज्यादातर दुरुपयोग ही होगा, तब इसके विरुद्ध सुगबुगाहट शुरू हो गई। कानून की छात्रा श्रेया सिंघल ने इस कानून को पहली बार चुनौती दी थी और सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था। गौरतलब है कि साल 2012 में मुंबई में शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद पूरे शहर को बंद करने की आलोचना संबंधी पोस्ट के लिए दो युवतियों की गिरफ्तारी के बाद इस कानून की चर्चा तेज हुई थी। आईटी ऐक्ट का यह पहलू अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित कर सकता था। अच्छे शब्दों से भी किसी का अपमान हो सकता है, अपमानजनक शब्द की व्याख्या बहुत व्यापक है। व्यापकता में अगर हम जाएं, तो कुछ भी पोस्ट करना या शेयर करना मुश्किल हो सकता है। अगर 66अ का उपयोग हो, तो एक-दूसरे के खिलाफ मुकदमों का ढेर लग सकता है। आज के समय में लोगों में उग्रता और आलोचना का भाव तेजी से बढ़ा है और सोशल मीडिया पर खास तौर पर किसी की निंदा बहुत आसान हो गई है। वैसे तो हमारे देश के महापुरुष यही मानते रहे हैं कि निंदक नियरे राखिए, लेकिन वास्तविक जमीन पर निंदा को कथित असभ्यता की श्रेणी में गिना जाने लगा है।
कानून के इस पहलू के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले एनजीओ 'पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज' की सराहना की जानी चाहिए कि अब जमीनी स्तर पर इस निरस्त कानून का दुरुपयोग रुक सकेगा। यह प्रकरण फिर एक बार स्पष्ट कर देता है कि पुलिस सुधार आज कितने जरूरी हो गए हैं। समय-समय पर पुलिस का विधि-संबंधी प्रशिक्षण कितना जरूरी है, शायद हम भूल गए हैं। कानून और पुलिस लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए है। सरकारों को अपने ही स्तर पर प्रयास करने चाहिए, ताकि ऐसे मामले देश की सर्वोच्च अदालत का कीमती समय बर्बाद न करें।


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