सम्पादकीय

समरसतापूर्ण सद्भाव के प्रतीक रामानुजाचार्य

Subhi
7 Feb 2022 5:23 AM GMT
समरसतापूर्ण सद्भाव के प्रतीक रामानुजाचार्य
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शनिवार को 11वीं शताब्दी में सुदूर दक्षिण में जन्मे संत श्री रामानुजाचार्य की विशाल प्रतिमा का अनावरण किया। हैदराबाद में बनी 216 फीट की यह प्रतिमा श्रद्धालुओं के अंतर्मन में रामानुजाचार्य के स्मारणात्मक प्राकट्य का काम करेगी।

शास्त्री कोसलेंद्रदास: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शनिवार को 11वीं शताब्दी में सुदूर दक्षिण में जन्मे संत श्री रामानुजाचार्य की विशाल प्रतिमा का अनावरण किया। हैदराबाद में बनी 216 फीट की यह प्रतिमा श्रद्धालुओं के अंतर्मन में रामानुजाचार्य के स्मारणात्मक प्राकट्य का काम करेगी।

रामानुजाचार्य की भक्ति संवेदना का सुदीर्घ इतिहास है। इसका मूल आलवार संत-भक्त-कवियों की भक्ति संवेदना में है। आलवारों के द्रविड़ भाषा पद्यों का संकलन 'दिव्यप्रबंधमÓ इसका उद्गम है। वैष्णवों की इस उदार प्राचीनतम परंपरा की सुदृढ़ शास्त्रीय भित्ति के निर्माता हैं रामानुजाचार्य। आश्चर्य है कि भारतीय राजनीति के महासागर में चंद हंस ऐसे हैं, जो रामानुजाचार्य के महत्व को समझते हैं। रामानुज भारतीय परंपरा के मेरुदंड हैं। उनके बिना भारत के अमर इतिहास की चर्चा नहीं की जा सकती। उनका दार्शनिक चिंतन स्वयं में एक संसार है, जिसका आधार समानता है।

रामानुजाचार्य का जन्म 1016 ईस्वी में तमिलनाडु के श्रीपेरुंबुदूर में हुआ था। वे संस्कृत और तमिल परंपरा के मिलन बिंदु हैं। उन्होंने समाज में ऊंच-नीच और झोपड़ी-महल के बीच समानता के सेतु बनाए। कठोर धार्मिक क्रियाओं को लोगों के लिए सरल और सहज बनाया। ऐसा करते हुए वे अपने पूरे जीवन काल में तीन मोर्चों पर युद्धरत रहे। अपनी परंपरा और समसामयिक समस्याओं में सेतु बनाना पहला मोर्चा है। ब्रह्मसूत्रों पर 'श्रीभाष्यÓ लिखते वक्त वेदांत को जीवन की जटिलताओं से जोडऩा दूसरा और भक्ति को आम लोगों के लिए ईश्वर प्राप्ति का तरीका बनाना तीसरा मोर्चा है। इस तरह उनका पूरा जीवन युद्धरत दिखाई देता है, जिसका संकेत रामधारी सिंह 'दिनकरÓ ने अपनी पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्यायÓ में किया है। वे लिखते हैं, 'सामाजिक समता की दिशा में तत्कालीन ब्राह्मण जहां तक जा सकता था, आचार्य रामानुज वहां तक जाकर रुके। उनके संप्रदाय ने लाखों शूद्रों और अंत्यजों को अपने मार्ग में लिया, उन्हें वैष्णव-विश्वास से युक्त किया और उनके आचरण धर्मानुकूल बनाए और साथ ही ब्राह्मणत्व के नियंत्रणों की अवहेलना भी नहीं की।Ó

'पद्मपुराणÓ की मान्यता उन्हें भगवान विष्णु की शैया 'शेषÓ का अवतार बताती है। इसका संकेत चार शताब्दी पहले भक्त चरित्र के सर्वश्रेष्ठ द्रष्टा और गायक नाभादास 1600 ईस्वी के आसपास विरचित 'भक्तमालÓ में किया है। नाभादास ने आचार्य रामानुज के लोकोत्तर व्यक्तित्व और अदम्य कृतित्व को सूत्रात्मक रूप से प्रकट करते हुए लिखा है- कृपणपाल करुणा समुद्र रामानुज सम नहीं बियो।

आचार्य रामानुज की सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक स्थापना वह है, जिसमें एकमात्र अद्वैत तत्व स्वीकारते हुए भी जगत को मिथ्या नहीं कहकर उसकी उपेक्षा नहीं की गई। जगत सत्य है, क्योंकि इसका निर्माण उन पंच महाभूतों से मिलकर हुआ है, जो भगवान नारायण के शरीर हैं। आचार्य रामानुज ने वैदिक मान्यताओं के आधार पर स्थापित किया कि भगवान लक्ष्मीनारायण संसार के माता-पिता हैं। उनका प्रेम और कृपा पाना उनकी हरेक संतान का धर्म है। उन्होंने केवल शास्त्रीय बातें लिखी ही नहीं, बल्कि स्वयं उनका प्रयोग भी किया। दलित भक्त मारीनेरनंबी की उपासना को अनुकरणीय बताकर उन्हें अपने संप्रदाय में आदर्श के रूप में स्थापित किया। मुस्लिम कन्या तुलुक्क नाच्चियार की लोकोत्तर भक्ति के कारण उनके मंदिर का निर्माण करवाया, जहां आज भी उनकी पूजा होती है। यादवाद्रि के प्रसिद्ध संपत्कुमार मंदिर में दलितों का प्रवेश करवाया।

रामानुजाचार्य ने जहां से अपना भक्ति आंदोलन चलाया, वह तमिलनाडु का श्रीरंगम है। यह नाम अपने आप में भक्ति उत्पन्न करता है। साफ है रामानुज की 'भक्तिÓ का तात्पर्य भगवान के गुणगान और नाम स्मरण से है। विद्वानों का मानना है कि रामानुज संप्रदाय के मठ-मंदिरों का फैलाव उत्तर और दक्षिण दोनों में था। आश्चर्य की बात है कि रामानुजाचार्य के उन विशाल मंदिरों में से अनेक लुप्त हो गए हैं। परंपरा दर्शाते इन मंदिरों में अब लोगों के घर हैं, दुकानें हैं। यदि इन्हें पुराने रूप में आबाद करना संभव हो सके तो ये सामाजिक समरसता के नए आंदोलन का रूप ले सकते हैं। महाभारत के बाद भारतीय समाज में हुआ बंटवारा बहुविध है। न केवल सामाजिक, बल्कि शैक्षणिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर कहीं भी समन्वय नहीं दिखता है। बुद्ध के बाद अहिंसा सिद्धांत की प्रतिष्ठा हेतु जीवनोपयोगी हिंसा का भी विरोध होने लगा। आचार्य रामानुज ने संपूर्ण भारतीय संस्कृतियों को जोड़कर वैदिक अद्वैत सिद्धांत को यथावत रखते हुए जिस सर्वसमावेशी मार्ग का उपदेश दिया है, वह नितांत अद्भुत तथा गंभीर है।


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