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वीवी गिरि: ऐसा निर्दलीय राष्ट्रपति उम्मीदवार, जिसके चुनाव ने कांग्रेस में कर दिए थे दो फाड़

jantaserishta.com
10 Aug 2024 11:32 AM GMT
वीवी गिरि: ऐसा निर्दलीय राष्ट्रपति उम्मीदवार, जिसके चुनाव ने कांग्रेस में कर दिए थे दो फाड़
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नई दिल्ली: भारतीय राजनीति में 1969 का राष्ट्रपति चुनाव एक रोमांचक मोड़ लेकर आया था, जब वी.वी. गिरि ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में अपनी दावेदारी पेश की। यह वह समय था जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी में गहरे मतभेद उभरने लगे थे। वी.वी. गिरि का मुकाबला कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी से था।
चुनाव प्रचार के अंतिम चरण में इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी के सदस्यों से अपील की कि राष्ट्रपति चुनाव की वोटिंग में शामिल होने वाले कांग्रेस पार्टी के जनप्रतिनिधि "अंतरात्मा की आवाज" को सुनते हुए वोट दें। इस अपील ने राजनीतिक पारा और भी चढ़ा दिया। इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस पार्टी दो खेमों में बंट गई।
पार्टी में ओल्ड गार्ड कहे जाने वाले के. कामराज, एस निजलिंगप्पा, नीलम संजीव रेड्डी, मोरारजी देसाई जैसे सिंडीकेट ग्रुप के नेताओं से टकराव के चलते इस चुनाव के बाद इंदिरा गांधी को कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया गया। इसके बाद कांग्रेस पार्टी दो धड़ों में बंट गई। एक तरफ के. कामराज की कांग्रेस सिंडिकेट थी, तो दूसरी तरफ इंदिरा गांधी की रिक्विजिशनल कांग्रेस।
वोटों की गिनती शुरू हुई, तो पहले दौर में स्पष्ट बहुमत न मिलने की वजह से किसी की भी जीत तय नहीं हो सकी। इसके बाद वह ऐतिहासिक क्षण आया, जब भारतीय इतिहास में पहली बार द्वितीय वरीयता के वोटों की गिनती में कोई उम्मीदवार राष्ट्रपति चुनाव जीता। निर्दलीय वी.वी. गिरि ने संजीव रेड्डी को पीछे छोड़ते हुए चुनाव जीत लिया।
यह चुनाव भारत के लोकतंत्र के इतिहास में एक यादगार और रोमांचक घटना के रूप में दर्ज हो गया, और वराहगिरि वेंकट गिरि देश के इतिहास के पहले और आखिरी ऐसे नेता हुए जिन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर लड़ते हुए राष्ट्रपति चुनाव जीता। इसके अलावा इस चुनाव में वह एक और रिकॉर्ड बना गया। देश में पहली बार ऐसा हुआ था कि किसी भी राष्ट्रपति उम्मीदवार को द्वितीय वरीयता के मतों से विजयी घोषित किया गया हो।
देश के चौथे राष्ट्रपति वी.वी. गिरि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण नेता और श्रमिक आंदोलनों का प्रमुख चेहरा थे। उनका जन्म 10 अगस्त 1894 को ओडिशा के बेरहामपुर में हुआ था। एक शिक्षित और जागरूक परिवार में जन्म लेने के कारण गिरि का प्रारंभिक जीवन से ही शिक्षा और राजनीति की ओर झुकाव था।
उनकी शिक्षा डबलिन, आयरलैंड में हुई थी जहां उन्होंने कानून की पढ़ाई की। डबलिन में रहते हुए वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रति जागरूक हो गए और वहां के छात्र आंदोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया। उनके इस रुख ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया। वह महात्मा गांधी से प्रभावित होकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई।
गिरि का प्रमुख योगदान भारतीय श्रमिक आंदोलनों में देखा गया। वे अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के संस्थापक सदस्य थे और श्रमिकों के अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष करते रहे। गिरि ने भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और श्रमिकों के अधिकारों के लिए लगातार आवाज उठाते रहे।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और बाद में भी, वी.वी. गिरि ने कई महत्वपूर्ण सरकारी और गैर-सरकारी पदों पर काम किया। वह 1937 में मद्रास प्रेसीडेंसी के श्रम मंत्री बने और 1946 में भारत सरकार के श्रम मंत्री नियुक्त हुए। उनके इस कार्यकाल में श्रमिकों के लिए कई महत्वपूर्ण सुधार किए गए, जिससे भारतीय मजदूर वर्ग के जीवन में सुधार आया।
वह 1967 में उपराष्ट्रपति और 1969 में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के निधन के बाद कार्यवाहक राष्ट्रपति बने। उसी वर्ष, उन्होंने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति चुनाव लड़ा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थन से विजयी हुए।
वी.वी. गिरि का जीवन सादगी, ईमानदारी, और जनसेवा का प्रतीक था। उन्होंने अपने पूरे जीवन में भारतीय राजनीति और समाज को गहराई से प्रभावित किया। उनका 24 जून 1980 को निधन हो गया, लेकिन उनके योगदान को आज भी भारतीय राजनीति और समाज में उच्च स्थान प्राप्त है। उनकी विरासत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, श्रमिक आंदोलनों और राष्ट्र निर्माण के प्रयासों में अमर है।
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