तनवीर जाफ़री
देश भर में बेलगाम आवारा पशुओं के कारण रोज़ाना सैकड़ों हादसे हो रहे हैं। कहीं सड़कों पर पशुओं की वाहनों से टक्कर के कारण बड़ी दुर्घटनायें हो रही हैं। कहीं बिगड़ैल सांड लोगों को अपने कोप का शिकार बना रहे हैं। पूरे देश का किसान कहीं आवारा पशुओं द्वारा उनकी फ़सल तबाह किये जाने से दुखी है तो कहीं नील गाय (रोज़ ) उसकी फ़सल तबाह कर रही है। हिमाचल व उत्तराखंड जैसे राज्यों में बंदरों के प्रकोप से किसान व फल उत्पादक परेशान हैं। तमाम किसानों ने तो इन जानवरों से दुखी होकर अपना मुख्य व्यवसाय खेती ही त्याग दिया है। दूसरी ओर आवारा कुत्ते आये दिन अनेक लोगों को अपनी क्रूरता का शिकार बना रहे हैं। झारखण्ड,आसाम व केरल जैसे कई राज्यों में हाथियों के झुण्ड कभी किसी की फ़सल तबाह कर देते हैं कभी लोगों के मकान ढहा देते हैं कभी फलदार दरख़्त गिरा देते हैं तो कभी किसी की जान ले लेते हैं। हाथियों की दहशत से तो कई जगह लोग इनके प्रकोप से बचने के लिये इनकी पूजा भी करते हैं। निश्चित रूप से ऐसे बेलगाम जंगली व आवारा पशुओं की क्रूरता से पहुँचने वाली पीड़ा को वही किसान,आम लोग या उनके परिवार समझ सकते हैं जो ऐसे पशुओं के प्रकोप से पीड़ित व प्रभावित हैं। ऐसे प्रभावित लोगों के समर्थन व हमदर्दी में कभी कोई आवाज़ नहीं उठती जबकि आवारा पशुओं व गली के कुत्तों तक के समर्थन में उठने वाले स्वर काफ़ी बुलंद होते हैं। अनेक ग़ैर सरकारी संगठन (एन जी ओ) इन्हीं पशुओं से प्रेम करने का पाठ भी पढ़ाते हैं। जबकि सच तो यह है कि जो लोग अपने घरों में पक्षियों द्वारा घोंसले बनाया जाना पसंद नहीं करते,जिन्हें चिड़ियों की चहचहाना नहीं भाता बल्कि उन्हें चिड़ियों की बीट,उनके द्वारा अपने मकान में घोंसले हेतु इकट्ठे किये जाने वाली सामग्री खर-पतवार से नफ़रत है वह लोग गलियों के आवारा कुत्तों से प्यार करने का पाठ पढ़ाते हैं। और स्वयं को 'संभ्रांत ' एवं पशु प्रेमी के रूप में पेश करते हैं । इन्हीं कुत्ता व आवारा पशु प्रेमियों ने यदि पक्षियों से प्रेम किया होता तो आज गोरैया जैसा हर परिवार का प्रिय पक्षी विलुप्त होने की कगार पर न पहुँचता। प्रायः देखा जाता है कि कुछ लोग बिस्कुट या रोटी आदि लेकर गलियों के कुत्तों को खिलाने निकल पड़ते हैं।
पशुओं से प्रेम करना निःसंदेह बहुत अच्छी बात है। कोई भी कोमल सहृदयी व्यक्ति पशु पक्षियों व पेड़ पौधों यानी कि प्रकृति से प्रेम भाव अवश्य रखेगा। गत दिनों हरियाणा के राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने भी चरख़ी दादरी में आयोजित राज्य स्तरीय पशुधन प्रदर्शनी मेले में अपने सम्बोधन में कहा है कि -'पशुओं के साथ कदापि हिंसात्मक व्यवहार न करने,पशुओं के साथ प्रेमवत रवैया अपनाने पर ज़ोर दिया और कहा कि पशुओं में भी संवेदनाएं होती हैं।' परन्तु इंसान तो पशुओं से भी संवेदनशील होता है ? अतः प्रत्येक प्रकृति व पशु पक्षी प्रेमी का सर्वप्रथम मानव प्रेमी होना भी तो ज़रूरी ज़रूरी है? इंसानों से भेद ,बैर या नफ़रत अथवा उपेक्षा की शर्त पर बेलगाम आवारा पशुओं की हिमायत करना यह आख़िर मानवता की कौन सी श्रेणी है ? राह चलते किसी व्यक्ति को पीछे से सांड़ आकर सींग मारकर घायल कर दे या जान ले ले ,या किसी बड़ी दुर्घटना का कारक बन जाये इसमें इंसान का आख़िर क्या दोष है ? रास्ता चलते लोगों को यहां तक कि छोटे छोटे बच्चों को कुत्ते काट लेते हैं,प्रायः स्कूटर,बाइक या साइकिल सवार के पीछे कुत्ते भोंकते हुये दौड़ने लगते हैं। लोग अपनी जान बचाने के लिये अपने वाहन की गति अचानक तेज़ कर देते हैं जिससे कई बार दुर्घटना भी हो जाती है। परन्तु समाज का कोई भी वर्ग या संगठन इन बेलगाम आवारा पशुओं के प्रकोप के शिकार लोगों के पक्ष में खड़ा होता नज़र नहीं आता। जबकि इन जानवरों से हमदर्दी दिखने इन्हें रोटी,चारा,बिस्कुट आदि डालने वाले लोग ज़रूर नज़र आ जाते हैं।
दरअसल हमारे समाज में सस्ते में पुण्य अर्जित करने का एक रिवाज सा बन चुका है। चिड़ियों को दाना-पानी डालना,मछलियों को आटा खिलाना,चीटियों को चीनी या आटा डालना,आवारा पशुओं को चारा,रोटी व अन्य पशु खाद्य सामग्री डालना लोग पुण्य का काम समझते हैं। प्रायः रिहाइशी इलाक़ों में मोहल्लों व कालोनियों में यही कथित 'पुण्यार्थीजन' बेलगाम व आवारा पशुओं को अपने अपने दरवाज़ों पर रोटी देते हैं। इस तरह रोज़ाना रोटी मिलने से वे पशु उन दरवाज़ों पर प्रतिदिन दस्तक देने के अभ्यस्त हो जाते हैं। और जब तक इन जानवरों को उस दरवाज़े से कुछ मिल नहीं जाता वे उसी जगह अपना डेरा जमाये रखते हैं। यदि उस मकान में कोई नहीं है तो भी वे उसका गेट हिलाते रहते हैं। उधर उसी गली से निकलने वाले अन्य लोग भयवश उधर से गुज़रने से कतराते हैं। बच्चे तो विशेषकर डर से या तो देर तक खड़े रहते हैं या अपना रास्ता बदल देते हैं। गोया एक ' स्वयंभू पुण्यार्थी' के 'तथाकथित सद्कर्मों ' का ख़ामियाज़ा आम राहगीरों को भुगतना पड़ता है।
पशु प्रेम के मामले में प्रायः हम पश्चिमी देशों के लोगों की नक़ल भी करने लगते हैं। बेशक वे पशुओं से बेहद प्रेम करते हैं। परन्तु इसी के साथ वे पहले इंसानों से भी प्रेम करते हैं। मिलावटख़ोरी,कम तौलना इंसानों को इंसानों द्वारा ही ठगना उन पश्चिमी देशों की संस्कृति का हिस्सा नहीं। वहां उपभोक्ता हो या बाज़ार, अस्पताल से लेकर स्कूल सड़क हो या यातायात,न्याय हो या प्रशासनिक निर्णय हर जगह मानव व मानवीय मूल्यों की क़द्र होते देखी जा सकती है। वहां पशु प्रेम तो है परन्तु हमारे देश की तरह वृन्दावन अयोध्या व हरिद्वार जैसे धर्मस्थलों पर इकट्ठे होने वाले लाखों उपेक्षित वृद्धों व विधवाओं की भीड़ नहीं। मंदिरों दरगाहों पर बैठे भिखारी बने असहाय लोग उस समाज में नहीं बल्कि हमारे तथाकथित 'पशु प्रेमी 'समाज के लोग हैं। वहां लोग खुले बोरवेल के गड्ढे या खुले मेन होल के ढक्कन में गिर कर जान नहीं गंवाते। हमारे देश की कड़वी सच्चाई तो यही है कि उदाहरणार्थ जो डॉक्टर बिना पैसे लिये किसी ग़रीब इंसान का इलाज करना गवारा नहीं करता वही 'संभ्रांत डॉक्टर ' मॉर्निंग वाक पर अपने कुत्ते के साथ घूमता और दूसरों के घरों के सामने या किसी के ख़ाली प्लाट पर या पार्क में अपने कुत्ते को 'पॉटी ' कराता नज़र आयेगा और समाज में स्वयं को 'कुत्ता प्रेमी ' बतायेगा।
ऐसे सैकड़ों सच्चे व कड़वे उदाहरण हैं जो इस नतीजे पर पहुँचने के लिये काफ़ी हैं कि हमारे दिखावा करने दोहरा मापदण्ड अपनाने व सस्ते में पुण्य कमाने की चाहत रखने वाले समाज में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसे इंसानों से ज़्यादा पशुओं की कथित चिंता सताये रहती है। यह बात कितनी उचित व प्रासंगिक है यह तय करना भी समग्र भारतीय समाज की ही ज़िम्मेदारी है।