भारत
सिर्फ 12 दिन के भीतर देश में ओमिक्रॉन का खतरा आठ गुना बढ़ा, लेकिन चुनावी रैलियों पर अब तक रोक नहीं
jantaserishta.com
30 Dec 2021 2:47 AM GMT
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नई दिल्ली: संविधान ने जनता को जीवन का अधिकार दिया है. उसी संविधान से चुनाव लड़ने, चुनाव कराने का अधिकार भी है, लेकिन बड़ा क्या है? जीवन का अधिकार या फिर चुनावी अधिकार? एक तरफ चुनाव है, दूसरी तरफ कोरोना की तीसरी लहर का तनाव है. इसी चुनाव और तनाव के बीच हर राजनीतिक दल को इलेक्शन ज्यादा प्यारा है, जनता के जीवन का सेलेक्शन नहीं. यूपी में चुनाव आयोग के अधिकारियों ने जब राजनीतिक दलों के साथ बैठक की, एक भी पार्टी ने कोरोना के कारण चुनाव को टालने की बात नहीं की. सबने कहा इलेक्शन हों.
बता दें कि सिर्फ 12 दिन के भीतर देश में ओमिक्रॉन का खतरा आठ गुना बढ़ चुका है. 17 दिसंबर को ओमिक्रॉन के केस 100 के पार हुए थे, 28 दिसंबर तक 800 के पार हो चुके हैं. 24 घंटे में कोरोना के नए केस दूसरी लहर के बाद सबसे ज्यादा आ चुके हैं. देश के 22 राज्यों में ओमिक्रॉन की दस्तक हो चुकी है, लेकिन जनता की सलामती चुनने की जगह सर्वदलीय सहमति चुनाव चुनने पर लगी है.
तभी तो सामने हजारों की भीड़ को संक्रमण के खतरे के बीच में चुनावी विजय की बूस्टर डोज नेता मान लेते हैं. मास्क के बिना मौजूद इसी हुजूम में इलेक्शन का रिस्क उठाना जरूरी समझते हैं, क्योंकि चुनावी इश्क रिस्क से बड़ा है. अखिलेश यादव ने एक रैली में कहा कि इतनी बड़ी संख्या में जनता दिखाई दे, जोश और उत्साह के साथ हों, ये जोश और उत्साह बता रहा है कि इस बार उन्नाव में बदलाव होगा, समाजवादी पार्टी की ऐतिहासिक जीत होगी.
सबको ऐतिहासिक जीत चाहिए. सत्ता चाहिए. कुर्सी चाहिए. वोट चाहिए. मंत्री, मुख्यमंत्री पद चाहिए, इन्हें भी चाहिए, उन्हें भी चाहिए. ऐसा चाहिए कि पैनिक ना फैलाकर प्रीकॉशन की बात की जाती है, प्रिकॉशन के नाम पर सरकारें तमाम बंदिशों की दुंदुभी बजा देती हैं. क्या ये दोहरा चरित्र नहीं कि कोरोना से बचने के लिए दिल्ली की मेट्रो में अब 50 फीसदी क्षमता ही रखी जाएगी. इसके लिए जनता को लाइन लगाकर घंटों अपनी बारी का इंतजार करना पड़ेगा. लेकिन यूपी में किसी भी दल की चुनावी सभा होगी तो भीड़ बिना मास्क धक्का मुक्की रेलमरेली करते हुए घुसेगी और मान लिया जाएगा कि रैली में तो नेताओं के प्रताप से संक्रमण की दर घट जाती है.
हर पार्टी की दलील है कि पांचों चुनावी राज्य में कम से कम 70 फीसदी लोग वैक्सीन की एक डोज ले चुके हैं. यूपी में 83 फीसदी, पंजाब में 77 फीसदी, मणिपुर में 70 प्रतिशत जबकि गोवा और उत्तराखंड में 100 फीसदी लोगों को वैक्सीन की एक डोज लग चुकी है. दरअसल, नेताओं के लिए जो चुनावी इश्क है, वही जनता के लिए रिस्क है. हर दल की इस भीड़ को देखकर ये ना भूला जाए कि ऑक्सीजन की कमी से मौत का एक मामला सरकारें किसी राज्य की नहीं मानतीं. ये ना भूला जाए कि पंचायत चुनाव में कोरोना से शिक्षकों की मौत को भी पहले खारिज किया गया था. ऐसे में चुनाव हो तो इलेक्शन में चाहे जो जीते लेकिन हार जनता की जिंदगी में कोरोना से नहीं आनी चाहिए.
मध्यप्रदेश के पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण का कार्ड सरकार ने खेला, लेकिन दांव फेल हुआ. पंचायत चुनाव निरस्त करने पड़े. मंत्री मामला घुमाने के लिए कोरोना कवच ले आए. कहने लगे कि कोरोना से बचाव जरूरी है, चुनाव नहीं. इन सबमें ठगे रह गए वो प्रत्याशी जिन्होंने प्रचार के लिए पैसा खर्च करना शुरु कर दिया था. अब सिस्टम की गलती की कीमत कैंडिडेट पंचायत चुनाव के उठा रहे हैं. यूं तो चुनाव हमेशा नेताओं के लिए फायदे का सौदा माना गया है, लेकिन मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण पर घिरी शिवराज सिंह की सरकार के कारण पंचायत चुनाव निरस्त हुए तो चुनाव लड़ने के लिए तैयार हुए नेताओं की हालत- खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना हो गई.
चुनावी तो वापस ले लिया, लेकिन बैतूल की देवकी नारायण सरले जैसी उम्मीदवारों के लिए मुसीबत हो गई, जिन्होंने चुनाव चिन्ह तक आवंटित होने के बाद हजारों पैम्पलेट पैसे खर्च करके छपवा लिए. प्रचार के लिए गाड़ी का एडवांस दे दिया. स्टीकर छपवा लिए. होर्डिंग तक टंगवा दिए. लेकिन चुनाव निरस्त तो अब ये पैम्फलेट किस काम के? चुनाव कैंसिल होने से अब खर्चें का उल्टा तीर प्रत्याशियों पर आ लगा है. अगर चुनाव पंचायत होते तो एक अनुमान है कि चुनाव कराने में ही 70 करोड़ रुपए आयोग का खर्च होता. वोटर करीब दो करोड़ हैं. इन्हीं वोटरों को लुभाने के लिए प्रचार में प्रत्याशी पंचायत चुनाव के तमाम जरिए खोजते हैं. उन्हीं के लिए पैसा खर्च होता है.
वैसे कैंडिडेट ही नहीं चुनाव टलने से इलेक्शन में पोस्टर बैनर छापकर दो पैसा कमाने वाले कारोबारी भी झटका खाए हैं. मध्य प्रदेश के बड़वानी में पवन गोस्वामी ने 13 लाख रुपए लगाकर गुजरात से प्रिंटिंग मशीन खरीदी. सोचे थे चुनाव है तो प्रचार सामग्री छापकर मशीन का पैसा भी निकालेंगे, घर भी चला लेंगे. चुनाव निरस्त तो निराशा छा गई. जो ऑर्डर दिए थे, वो प्रत्याशी पेमेंट करने को अब फोन नहीं उठा रहे, चिंतित है कि मशीन की किश्त कैसे भरेंगे.
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