
x
लेखक- तेजस पूनियां
जनता से रिश्ता वेबडेस्क: भारतीय सिनेमा के इतिहास में सिनेमा की हत्या किसने की उसके जवाब में आपको ढेरों फिल्में मिल जाएंगी देखने के लिए। लेकिन स्टेज एप्प हरियाणवी/राजस्थानी का नाम क्षेत्रीय सिनेमा की हत्या करने के मामले में अब सबसे पहले लिया जाया करेगा।
राजस्थान की तमाम जनता 'आटा साटा' शब्द से पूरी तरह वाकिफ होगी। लेकिन जो नहीं जानते फिर भी उनके लिए बता दूं। बरसों राजस्थान की धरती पर यह ' खेला' खेला जाता रहा है। मतलब लड़की आपकी पढ़ी, लिखी, गुणवान, सुंदर, सुशील है और उसका भाई नाकारा, गंजेड़ी, शराबी, लंगड़ा, लूल्ला है तो ऐसे में उन लड़कियों की बलि चढ़ाकर उन्हें दुल्हन बना उस जलती सुहाग की सेज पर बैठा दिया जाता है जो कभी-कभी उसकी चिता भी बन जाती है।
बस ऐसी ही कहानी स्टेज एप्प पर आज रिलीज हुई राजस्थानी फिल्म आटा साटा की है। राजस्थान के प्रेमचंद कहे जाने वाले चरणसिंह पथिक की लिखी इस अच्छी - भली कहानी की हत्या सिनेमा के रूप में किसने की है यह बताने के लिए अगर नाम गिनने लगे तो पूरी फ़िल्म की टीम ऊपर से लेकर नीचे तक इसकी दोषी है।
सबसे बड़ा दोष तो है स्टेज एप्प वालों का जो क्षेत्रीय सिनेमा के नाम पर जो मर्जी आए, जब दिल में आए कचरा परोस दे। बेटे की परवाह करती, समाज की परवाह करती, वंश की परवाह करती, इज्जत की परवाह करती इस फ़िल्म को रिलीज करने से पहले स्टेज वालों को अपने यूजर्स की परवाह नहीं थी?
स्टेज वालों ने अपने यूजर्स को इस फ़िल्म से जो सिर दर्द दिया है उससे उन्हें उबरने के लिए एक हफ्ते तक दवाई खाने या कोई भी फिल्म न देखने की सलाह मुफ्त में दी जाती है। भाई बतौर समीक्षक ही सही ऐसी फिल्में देखना और उनके बारे में लिखना खास करके लाजमी हो जाता है ताकि ऐसे सिनेमा बनाने वालों और उन्हें परोसने वालों को झिंझोड़ कर जगाया जा सके। फिर भी न जागे तो भाई आपके दर्शक आपने टीवी, स्मार्ट फोन की स्क्रीन तो बाद में फोड़ेंगे पहले आपके यहां न पहुंच रहे हों थोड़ी देर में, सुरक्षा के इंतजाम पुख्ता रखिएगा।
फ़िल्म में एक जगह विज्ञापन की बात आती है कि - विज्ञापन ऐसे करो जिससे दुनियां को अच्छा लगे। बस यह विज्ञापन का काम स्टेज बखूबी जानता है करना। बेहतर होगा आप इस फ़िल्म को देखना शुरू करने से पहले हीअपनी आंखें बन्द करके बस इसकी कहानी को सुनते जाएं।
ठीक वैसे जैसे पुराने जमाने में रेडियो पर कहानियां सुनते थे। तब तो ठीक है वरना आपको सिर में भयानक दर्द के साथ उल्टी- दस्त लग गए तो हमें न कहना बताया नहीं। ' आटे में नमक तो समा जाता है लेकिन नमक की रोटियां कैसे खाई जाती हैं?' ये बताने वाले फ़िल्म से जुड़े तमाम लोग अपने ही संवाद को कैसे भुल गए?
और जिस त्याग की बात यह फ़िल्म करती है तो इसे देखने के लिए अपने दो जीबी इंटरनेट का त्याग तो आपके यूजर्स भी करेंगे न? लेकिन उसके बाद आपके ओटीटी का ही त्याग कर दिया तब आप कहां जायेंगे? क्षेत्रीय सिनेमा का उद्धार करने के नाम पर जो आटा साटा करते हुए नाम डुबोया है स्टेज ने बेहतर हो की इससे पहले राजस्थानी सिनेमा में जो सूखा पड़ा हुआ था वो और सुखा दो आप उससे पहले हमारे सिनेमा को मृत ही पड़ा रहने दीजिए।
गुजारिश है स्टेज वालों से धीमें-धीमे जो फूल हमारे सिनेमा में राजस्थान की बंजर धरती में उगने लगे हैं उनमें आप कांटे न लगाने आएं। यह गलती नहीं महाराज अपराध है ऐसा सिनेमा बनाना। और अपराध आप करो सजा भुगते दर्शक? ऐब पालो आप और सजा भुगते दर्शक?
चरण सिंह पथिक की लिखी कहानी को फिल्माते हुएनिर्देशक साहब ने यदि इसके संवाद ब्रज, हाड़ौती की बजाए जयपुर, जोधपुर में बोली जाने वाली भाषा या कम से कम बागड़ी में ही रखे होते तो यह ठीक होता। और एक बात बताओ ये कौन सा सिनेमा होता है? जहां कलाकार अपना संवाद बोलकर चला गया उसके होंठ तो हिलते हुए नजर आए लेकिन संवाद कानों में तब पड़ा जब स्क्रीन पर लड़की का संवाद सुनाई देना था लेकिन आवाज लड़के की आई और लिप्सिंग लड़की कर रही थी।
ऐसा सिनेमा बनाने वालों को सिनेमा की पहले ए बी सी डी सीखने की जरूरत है। बल्कि उन्हें कसम खा लेनी चाहिए की आज के बाद फ़िल्म ही नहीं बनाकर सिनेमा देखने वालों पर उपकार करेंगे। थोड़ी भी इस फ़िल्म को बनाने के बाद फ़िल्म की पूरी टीम में शर्म बाकी बची हो तो गंगा में जाकर अपने इस पाप को धो आइए। देखिएगा कहीं गंगा भी मैली न हो जाए इसलिए आप किसी नाले में ही पाप धोइए।
एक-दो कलाकार को छोड़ किसी ने अच्छा काम भी नहीं किया। कहानी ठीक है लेकिन बशर्ते उसे देखने की बजाए बंद आखों से और खुले कानों से सुना जाए। ऐसी फिल्में देखने के बाद आप अपनी आंखों का इलाज अवश्य करवा लीजिएगा उम्मीद है मोतियाबिंद न उतर आया हो इसके खत्म होने से पहले या कहीं रतौंधी हो गई तो गए काम से आप।
ऐसा सिनेमा बनाना अजीम ए गुनाह है और उन संसाधनों की बर्बादी है जो आपको बनाने के लिए दिए जाते हैं।
लेखक- तेजस पूनियां
Next Story