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जब कार्ल मार्क्स ने ग़ालिब को मुक्त छंद कविता लिखने की नसीहत दी

Nilmani Pal
21 Jan 2022 5:40 AM GMT
जब कार्ल मार्क्स ने ग़ालिब को मुक्त छंद कविता लिखने की नसीहत दी
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अभिषेक कुमार अंबर

मिर्ज़ा ग़ालिब जहाँ उर्दू शायरी का एक बड़ा नाम हैं वहीं कार्ल मार्क्स एक मशहूर विचारक, जिन्होंने दुनिया को मार्क्सवाद का सिद्धांत दिया। आप सभी लोग इन दोनों से परिचित तो होंगे लेकिन शायद यह नहीं जानते होंगे कि ग़ालिब और मार्क्स भी एक दूसरे से परिचित थे। कुछ समय पहले तक पूरी दुनिया यही मानती आई थी कि ग़ालिब और मार्क्स भले ही समकालीन थे लेकिन एक-दूसरे से उनका कोई राब्ता नहीं था।

लेकिन यह बात तब ग़लत साबित हो गई जब 'वॉयस ऑफ अमेरिका' में कार्यरत आबिदा रिप्ले को लन्दन में स्थित इंडिया ऑफिस की लाइब्रेरी में मुग़ल काल की एक फ़टी-पुरानी किताब दिखी। जिसको उठाने पर उसमें एक से पन्ना नीचे फर्श पर गिर गया उसको उठाकर जब उन्होंने पढ़ा तो वह चौंक गईं। उनके हाथ में वह ख़त था जो मिर्ज़ा ग़ालिब ने कार्ल मार्क्स को लिखा था। काफ़ी अरसे तक खोज करने के बाद उनको मार्क्स का ग़ालिब को लिखा ख़त भी हाथ लग गया। आइये पढ़ते हैं दोनों के बीच हुए पत्राचार को!

*कार्ल मार्क्स का ग़ालिब को ख़त*

रविवार, 21 अप्रैल, 1867

लंदन, इंग्लैंड

प्रिय ग़ालिब,

दो दिन पहले दोस्त एंजल का ख़त मिला। पत्र के अंत में दो लाईनों का ख़ूबसूरत शेर था। काफी मशक्कत करने पर पता चला कि वह कोई मिर्ज़ा ग़ालिब नाम के हिन्दुस्तानी शायर की रचना है। भाई, अद्भुत लिखते हैं! मैंने कभी नहीं सोचा था कि भारत जैसे देश में लोगों के अंदर आज़ादी की क्रांतिकारी भावना इतनी जल्दी आ जाएगी। लार्ड के व्यक्तिगत लाईब्रेरी से कल आपकी कुछ अन्य रचनाओं को पढ़ा। कुछ लाईनें दिल को छू गईं।

"हमको मालूम है ज़न्नत की हक़ीकत लेकिन,

दिल को ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है"

कविता के अगले संस्करण में इंकलाबी कार्यकर्ताओं को संबोधित करें: ज़मींदारों, प्रशासकों और धार्मिक गुरुओं को चेतावनी दें कि गरीबों, मज़दूरों का ख़ून पीना बंद कर दें। दुनिया भर के मज़दूरों मुत्ताहिद हो जाओ।

हिन्दुस्तानी शेरो-शायरी की शैली से मैं वाकिफ़ नहीं हूं। आप शायर हो, शब्दों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। कुछ भी मौलिक लिखें, जिसका संदेश स्पष्ट हो - क्रांति। इसके अलावा यह भी सलाह दूँगा कि ग़ज़ल, शेरो-शायरी लिखना छोड़ कर मुक्त कविताओं को आज़माएं। आप ज्यादा लिख पाएंगे और इससे लोगों को अधिक सोचने को मिलेगा।

इस पत्र के साथ कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का हिन्दुस्तानी संस्करण भेज रहा हूं। दुर्भाग्यवश पहले संस्करण का अनुवाद उपलब्ध नहीं है। अगर यह पसंद आई तो आगे और साहित्य भेजूंगा। वर्तमान समय में, भारत अंग्रेजी साम्राज्यवाद के मांद में परिवर्तित कर दिया गया है। और केवल शोषितों , मजदूरों के सामूहिक प्रयास से ही जनता को ब्रिटिश अपराधियों के शिकंजे से आज़ाद किया जा सकता है।

आप को पश्चिम के आधुनिक दर्शन के साथ-साथ एशियाई विद्वानों के विचारों का अध्ययन भी करना चाहिए। मुगल राजाओं और नवाबों पर झूठी शायरी करना छोड़ दें। क्रांति निश्चित है। दुनिया की कोई ताक़त इसे रोक नहीं सकती।

मैं हिंन्दुस्तान को क्रांति के निरंतर पथ पर चलने के लिए शुभकामना देता हूं।

आपका,

कार्ल मार्क्स

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मिर्ज़ा ग़ालिब का कार्ल मार्क्स को ख़त

9 सितम्बर 1867

दिल्ली, हिन्दुस्तान

मेरे अंजान दोस्त मार्क्स,

कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के साथ तुम्हारा ख़त मिला। अब तुम्हारे पत्र का क्या ज़वाब दूं? दो बाते हैं....। पहली बात कि तुम क्या लिखते हो, यह मुझे पता नहीं चल पा रहा है। दूसरी बात यह कि लिखने और बोलने के हिसाब से मैं काफी़ बूढ़ा हो गया हूं। आज एक दोस्त को लिख रहा था तो सोचा क्यों न तुम्हें भी लिख दूं।

फ़रहाद (संदर्भ में ग़ालिब की एक कविता) के बारे तुम्हारे विचार ग़लत हैं। फ़रहाद कोई मजदूर नहीं है, जैसा तुम सोच रहे हो। बल्कि, वह एक प्रेमी है। लेकिन प्यार के बारे में उसकी सोच मुझे प्रभावित नहीं कर पाई। फ़रहाद प्यार में पागल था और हर वक्त अपने प्यार के लिए आत्महत्या की बात सोचता है। और तुम किस इंक़लाब के बारे में बात कर रहे हो? इंक़लाब तो दस साल पहले 1857 में ही बीत गया! आज मेरे मुल्क के सड़कों पर अंग्रेज़ सीना चौड़ा कर घूम रहे हैं, लोग उनकी स्तुति करते है...डरते हैं। मुगलों की शाही रहन-सहन अतीत की बात हो गई है। उस्ताद-शागिर्द परंपरा भी धीरे-धीरे अपना आकर्षण खो रही है।

यदि तुम विश्वास नहीं करते तो कभी दिल्ली आओ। और यह सिर्फ़ दिल्ली की बात नहीं है। लखनऊ भी अपनी तहज़ीब खो चुकी है....पता नहीं वो लोग और अनुशासन कहाँ गुम हो गया। तुम किस क्रांति की भविष्यवाणी कर रहे हो?

अपने ख़त में तुमने मुझे शेरो-शायरी और गज़ल की शैली बदलने का सलाह दी है। शायद तुम्हें पता न हो कि शेरो-शायरी या गज़ल लिखे नहीं जाते हैं। ये आपके ज़हन में कभी भी आ जाते हैं। और मेरा मामला थोड़ा अलग है। जब विचारों को प्रवाह होता है तो वे किसी भी रूप में आ सकते हैं। वो चाहे फिर गज़ल हो या शायरी।

मुझे लगता है कि ग़ालिब का अंदाज़ सबसे जुदा है। इसी कारण मुझे नवाबों का संरक्षण मिला। और अब तुम कहते हो कि मैं उन्हीं के ख़िलाफ कलम चलाऊँ। अगर मैंने उनके शान में कुछ पंक्तियां लिख भी दी तो इसमें ग़लत क्या है?

दर्शन क्या है और जीवन से इसका क्या संबंध है, यह मुझसे बेहतर शायद ही कोई और समझता हो। भाई, तुम किस आधुनिक सोच की बात कर रहे हो? अगर तुम सचमुच दर्शन जानना चाहते हो तो वेदांत और वहदुत-उल-वज़ूद पढ़ो। क्रांति का रट लगाना बंद कर दो। तुम लंदन में रहते हो....मेरा एक काम कर दो। वायसरॉय को मेरे पेंशन के लिए सिफ़ारिश पत्र डाल दो.....।

बहुत थक गया हूं। बस यहीं तक।

तुम्हारा,

ग़ालिब

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