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6 April 2022 2:31 PM GMT
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भारत सरकार ने इस बात को माना है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर तेजी से पिघल और पिछड़ रहे हैं. इसमें सबसे ज्यादा बदलाव हिंदू कुश, गंगा, ब्रह्मपुत्र और इंडस रिवर बेसिन में देखने को मिल रहा है. यह जानकारी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा पृथ्वी विज्ञान राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डॉ. जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में दी. उन्होंने यह भी बताया कि ग्लेशियरों पर किस तरह से नजर रखी जा रही है. कौन-कौन से संस्थान इस पर काम कर रहे हैं.

हिंदु कुश हिमालयी ग्लेशियरों की औसत सिकुड़ने की दर 14.9 ± 15.1 मीटर प्रति वर्ष (m/a) है; जो इंडस में 12.7 ± 13.2 मीटर प्रति वर्ष, गंगा में 15.5 ± 14.4 मीटर प्रति वर्ष तथा ब्रह्मपुत्र रिवर बेसिन्स में 20.2 ± 19.7 मीटर प्रति वर्ष बदलती रहती है. जबकि, काराकोरम क्षेत्र के ग्लेशियरों की लम्बाई में तुलनात्मक रूप से बहुत मामूली परिवर्तन (-1.37 ± 22.8 मीटर प्रति वर्ष) देखा गया है. यानी काराकोरम के ग्लेशियर ज्यादा स्थिर हैं.
राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केन्द्र (NCPOR) वर्ष 2013 से पश्चिमी हिमालय में चंद्रा बेसिन में छह ग्लेशियरों की स्टडी कर रहा है. ये ग्लेशियर 2437 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं. क्षेत्रीय प्रयोग करने तथा ग्लेशियरों की स्टडी संचालित करने के लिए चंद्रा बेसिन में 'हिमांश' नामक एक अत्याधुनिक फील्ड रिसर्च स्टेशन की स्थापना की गई है. यह वर्ष 2016 से कार्य कर रहा है.
साल 2013 से 2020 के दौरान पता चला कि चंद्रा बेसिन के ग्लेशियरों के पिघलने और उनके वजन का वार्षिक दर -0.3±0.06 मीटर थी. इसी प्रकार, वर्ष 2000-2011 के दौरान बास्पा बेसिन में ग्लेशियर औसतन ~50±11 मीटर की दर से कम हुए. GSI ने 9 ग्लेशियरों पर द्रव्यमान संतुलन (Mass Balance) की स्टडी की. हिमालयी क्षेत्र के 76 ग्लेशियरों के पिघलने और पीछे जाने संबंधी अध्ययन किए गए हैं. इससे यह पता चलता है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्रों में अधिकांश ग्लेशियर पिघल रहे हैं. अलग-अलग इलाकों में इनके सिकुड़ने की दर अलग है.
भारत सरकार ने भारतीय हिमालयी क्षेत्र में हिमनदों के पिघलने सम्बन्धी अध्ययन किए हैं. विभिन्न भारतीय संस्थान / विश्वविद्यालय / संगठन, जैसे- भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI), वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (WIHG), राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केन्द्र (NCPOR), राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान (NIH), अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (SAC), भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) आदि के विभिन्न वैज्ञानिक ग्लेशियर्स की स्टडी करते हैं. उनपर नजर रखते हैं. लगातार इस बात की सूचना सरकार को देते हैं.


WIHG उत्तराखंड में कुछ ग्लेशियरों की निगरानी कर रहा है. इसमें पता चला कि भागीरथी बेसिन में डोकरियानी ग्लेशियर साल 1995 से 15-20 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ रहा है. मंदाकिनी बेसिन में चोराबारी हिमनद 2003 से 2017 के दौरान 9-11 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ रहा है. सुरू बेसिन, लद्दाख में डुरुंग-ड्रुंग तथा पेनसिलुंगपा ग्लेशियर भी क्रमश: 12 मीटर प्रति वर्ष तथा ~ 5.6 मीटर वर्ष की दर से सिकुड़ रहे हैं.
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) ने नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग हिमालयन ईकोसिस्टम (NMSHE) और नेशनल मिशन ऑन स्ट्रैटेजिक नॉलेज फॉर क्लाइमेट चेंज (NMSKCC) के अन्तर्गत हिमालयी ग्लेशियरों का अध्ययन करने के लिए विभिन्न अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं की सहायता की है. कश्मीर विश्वविद्यालय, सिक्किम विश्वविद्यालय, IISc तथा WIHG द्वारा कुछ हिमालयी ग्लेशियरों पर किए गए द्रव्यमान संतुलन अध्ययनों में पाया गया कि अधिकांश हिमालयी हिमनद पिघल रहे हैं. अलग-अलग दरों से वो सिकुड़ रहे हैं.
NIH पूरे हिमालय में कैचमेंट एवं बेसिन स्केल पर ग्लेशियरों के पिघलने से कम होने वाले बर्फ का मूल्यांकन करने के लिए कई स्टडी कर रहा है. जब ग्लेशियर पिघलते हैं, तो ग्लेशियर बेसिन हाइड्रोलॉजी में बदलाव होता है. जिसका हिमालयी नदियों के जल संसाधनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. बहाव में अंतर, अचानक बाढ़ के कारण हाइड्रोपॉवर प्लांट्स एवं डाउनस्ट्रीम वॉटर बजट पर बुरा असर पड़ता है.
ग्लेशियल झीलों की संख्या और आकार बढ़ने से फ्लैश फ्लड और ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स (GLOFs) का खतरा रहता है. दिवेचा जलवायु परिवर्तन केन्द्र, IISc बैंगलोर ने सतलुज रिवर बेसिन की जांच करके रिपोर्ट दी है कि सदी के मध्य तक ग्लेशियर का पिघलना बढ़ेगा. उसके बाद इसमें कमी आएगी. सतलुज बेसिन के कम ऊंचाई वाले इलाकों में विभिन्न छोटे ग्लेशियर सदी के मध्य तक खत्म हो जाएंगे.
ग्लेशियरों का पिघलना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है. इसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता. लेकिन इनके पिघलने से कई तरह के खतरे बढ़ जाते हैं. विभिन्न भारतीय संस्थान, संगठन एवं विश्वविद्यालय ग्लेशियरों के पिघलने के कारण आने वाली आपदाओं का मूल्यांकन करने के लिए बड़े पैमाने पर रिमोट सेंसिंग डेटा का प्रयोग करते हुए हिमालयी ग्लेशियरों पर नजर रख रहे हैं.
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