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बकरीद पर कुर्बानी का ये इत‍िहास

Pushpa Bilaspur
21 July 2021 2:11 AM GMT
बकरीद पर कुर्बानी का ये इत‍िहास
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फाइल फोटो 

ईद-उल अजहा यानी बकरीद का त्योहार. ईद-उल फित्र के बाद मुसलमानों का ये दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है. इस मौके पर ईदगाह या मस्जिदों में विशेष नमाज अदा की.जाती है. ईद-उल फि‍त्र पर जहां क्षीर बनाने का रिवाज है, वहीं बकरीद पर बकरे या दूसरे जानवरों की कुर्बानी (बलि) दी जाती है. आइए जानें- बकरीद पर कुर्बानी क्या इतिहास है.

बकरीद के मौके पर दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े कुछ लोगों और नेताओं ने पिछले साल कुर्बानी न देने की मांग की थी. जिन इलाकों में कुर्बानी करने की जगह नहीं होती, वहां इसके लिए एक जगह भी तय होती है, जहां बड़ी तादाद में लोग अपने-अपने जानवरों की कुर्बानी देते हैं. लेकिन कोविड काल में प्रोटोकॉल के चलते इन जगहों पर रोक लगाई गई थी. बहरहाल, इन तमाम विवादों के बीच आपको ये बताते हैं कि बकरीद मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई. साथ ही, उस दौर में ईद का ये पर्व किस अंदाज में मनाया जाता था.
पहले सिर्फ दी जाती थी कुर्बानी
इस्लाम धर्म की मान्यता के हिसाब से आखिरी पैगंबर (मैसेंजर) हजरत मोहम्मद हुए. हजरत मोहम्मद के वक्त में ही इस्लाम ने पूर्ण रूप धारण किया और आज जो भी परंपराएं या तरीके मुसलमान अपनाते हैं वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त के ही हैं. लेकिन पैगंबर मोहम्मद से पहले भी बड़ी संख्या में पैगंबर आए और उन्होंने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया. कुल 1 लाख 24 हजार पैगंबरों में से एक थे हजरत इब्राहिम. इन्हीं के दौर से कुर्बानी का सिलसिला शुरू हुआ.
हजरत इब्राहिम 80 साल की उम्र में पिता बने थे. उनके बेटे का नाम इस्माइल था. हजरत इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल को बहुत प्यार करते थे. एक दिन हजरत इब्राहिम को ख्वाब आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान कीजिए. इस्लामिक जानकार बताते हैं कि ये अल्लाह का हुक्म था और हजरत इब्राहिम ने अपने प्यारे बेटे को कुर्बान करने का फैसला लिया.
हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और बेटे इस्माइल की गर्दन पर छुरी रख दी. लेकिन इस्माइल की जगह एक दुंबा वहां प्रकट हो गया. जब हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों से पट्टी हटाई तो उनके बेटे इस्माइल सही-सलामत बराबर में खड़े हुए थे. कहा जाता है कि ये महज एक इम्तेहान था और उसमें हजरत इब्राहिम कामयाब हो गए. इस तरह जानवरों की कुर्बानी की यह परंपरा शुरू हुई.
ईदगाह पर क्यों जाते हैं मुसलमान?
हजरत इब्राहिम के जमाने में जानवरों की कुर्बानी तो शुरू हुई लेकिन बकरीद आज के दौर में जिस तरह मनाई जाती है वैसे उनके वक्त में नहीं मनाई जाती थी. आज जिस तरह मस्जिदों या ईदगाह पर जाकर ईद की नमाज पढ़ी जाती है वैसे हजरत इब्राहिम के जमाने में नहीं पढ़ी जाती थी. ईदगाह जाकर नमाज अदा करने का यह तरीका पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही शुरू हुआ.
इस मसले पर इस्लामिक जानकार मौलाना हामिद नोमानी बताते हैं, ''आज जिस अंदाज में ईद मनाई जाती है, वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त में शुरू हुआ. हजरत इब्राहिम के वक्त में कुर्बानी की शुरुआत हुई लेकिन ईदगाह पर जाकर नमाज पढ़ने का सिलसिला पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही आया. पैगंबर मोहम्मद के नबी बनने के करीब डेढ़ दशक बाद ये तरीका अपनाया गया. उस वक्त पैगंबर मोहम्मद मदीना आ गए थे.''
नमाज के लिए ईदगाह क्यों जाते हैं, इस सवाल पर मौलाना नोमानी बताते हैं कि मस्जिद या ईदगाह दोनों की जगह ईद की नमाज पढ़ी जा सकती है. लेकिन ईदगाह जाकर नमाज अदा करना अच्छा तरीका माना जाता है. ऐसा इसलिए है ताकि लोगों को पता चल सके कि उनका कल्चर क्या है, उनका निजाम क्या है, वो कौन हैं.
बता दें कि किसी भी बस्ती या कस्बे या शहर में मस्जिदों की संख्या काफी ज्यादा होती है. यहां तक कि मोहल्लों के हिसाब से भी मस्जिद मौजूद हैं. लेकिन किसी शहर या कस्बे में आमतौर पर ईदगाह एक ही होती है, जहां आसपास के इलाके के सभी लोग जमा होते हैं और नमाज अदा करते हैं. ईदगाह पर नमाज पढ़ने के अलावा एक-दूसरे से गले लगकर बधाई देने का भी रिवाज है.


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