हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार, लेखक व स्तंभकार
ईश्वर ने मानव को जीने और जीने दो के सिद्धांत के आधार पर ही जीवन दर्शन दिया है। इसे मान-मर्यादा और गरिमा के साथ जीना चाहिए। येही कुदरत का दस्तूर है। अतुल्य, जिस प्रकार किसी को मनचाही गति में गाड़ी चलाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि सड़क सार्वजनिक है। ठीक उसी प्रकार किसी भी लड़की को मनचाही अर्धनग्नता युक्त वस्त्र पहनने का अधिकार नहीं है क्योंकि जीवन सार्वजनिक है। एकांत मार्ग में गति से चलाओ, एकांत जगह में अर्द्धनग्न रहो। मगर सार्वजनिक जीवन में नियम मानने पड़ते हैं। भोजन जब स्वयं के पेट मे जा रहा हो तो केवल स्वयं की रुचि अनुसार बनेगा, लेकिन जब वह भोजन परिवार खायेगा तो सबकी रुचि व मान्यता देखनी पड़ेगी। लड़कियों का अर्धनग्न वस्त्र पहनने का मुद्दा उठाना उतना ही जरूरी है, जितना लड़को का शराब पीकर गाड़ी चलाने का मुद्दा उठाना जरूरी है। दोनों में दुर्घटना होगी ही।
अपनी इच्छा केवल घर की चार दीवारी में उचित है। घर से बाहर सार्वजनिक जीवन मे कदम रखते ही सामाजिक मर्यादा लड़का हो या लड़की उसे रखनी ही होगी। घूंघट और बुर्का जितना गलत है, उतना ही गलत अर्धनग्नता युक्त वस्त्र गलत है। बड़ी उम्र की लड़कियों और महिलाओं का बच्चों सी फ़टी निक्कर पहनकर छोटी टॉप पहनकर फैशन के नाम पर घूमना भारतीय संस्कृति का अंग नहीं है। आखिर लज्जा और सलिका मातृशक्ति का गहना है। जीवन भी गिटार या वीणा जैसा वाद्य यंत्र हो, ज्यादा कसना भी गलत है और ज्यादा ढील छोड़ना भी गलत है। संस्कार की जरूरत स्त्री व पुरुष दोनों को है, जीवन के दोनों पहिये में संस्कार की हवा चाहिए, एक भी पंचर हुआ तो जीवन व्यवधान होगा। नग्नता यदि मॉडर्न होने की निशानी है, तो सबसे अश्लील मॉडर्न जानवर है जिनके संस्कृति में कपड़े ही नही है। उनके जीवन में मर्यादा और सभ्यता ही नहीं है।
अतः जानवर से रेस न करें, सभ्यता व संस्कृति को स्वीकारें। कुत्ते को अधिकार है कि वह कहीं भी पेशाब पास कर सकता है, सभ्य इंसान को यह अधिकार नहीं है। उसे सभ्यता से बन्द शौचालय उपयोग करना होगा। इसी तरह पशु को अधिकार है नग्न घूमने का, लेकिन सभ्य इंसान को उचित वस्त्र का उपयोग सार्वजनिक जीवन मे करना ही होगा। पूर्ण आवरण ही सुरक्षा कवच के साथ-साथ मानव से मानवता का घोतक है। पशुओं को तो सृष्टि ने अपनी लज्जा छुपाने शारीरिक रचना दी है, लेकिन मनुष्य को केवल और केवल पोशाक ही दी है। उसे भी निर्लज्जता से कम कर रहे हैं फिर जानवर और जन में क्या अंतर रहा है। कमशकम मानव होने का कर्म और धर्म तो निभाए इस बात का चिंतन-मनन करना बहुत ही जरूरी है। अतः विनम्र अनुनय है, सार्वजनिक जीवन मे मर्यादा न लांघें संस्कार, सभ्यता, शुचिता से जीवन जीये और जीने दें। तब ही जीवन में संस्कार के पहिए स्वच्छंदता से चलायमान रहेगें।