श्रीलंका में हालात एक बार फिर विस्फोटक बन गए हैं. राष्ट्रपति गायब हैं, प्रधानमंत्री का इस्तीफा हो चुका है और सड़कों पर आम जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही है. खाने के लाले पड़ रहे हैं, ईंधन की कमी ने काम ठप कर दिया है और महंगाई के बोझ तले दबी अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी है. जो हाल इस समय श्रीलंका में देखने को मिल रहा है, जैसी त्रासदी वहां के लोगों को सहन करनी पड़ रही है, उसका ट्रेलर भारत के एक और पड़ोसी मुल्क में शुरू हो गया है. हम बात कर रहे हैं नेपाल की जो इस समय कर्ज से परेशान है, महंगाई से बेबस है और भ्रष्टाचार की दीमक ने उसकी अर्थव्यवस्था को खोखला करना शुरू कर दिया है.
सोमवार को नेपाल की खुदरा महंगाई दर का आंकड़ा जारी किया गया था. अब नेपाल में खुदरा महंगाई दर 8.56% तक पहुंच चुकी है, ये पिछले 6 सालों में सर्वधिक है. चिंता वाला ट्रेंड ये है कि पिछले कई महीनों से लगातार नेपाल में महंगाई दर इसी तरह बढ़ रही है. पिछले महीने ये आंकड़ा 7.87% चल रहा था, वहीं पिछले साल तक तो जून महीने में महंगाई दर 4.19% दर्ज की गई थी. लेकिन कोरोना और फिर रूस-यूक्रेन युद्ध ने जमीन पर समीकरण ऐसे बदले कि नेपाल में लोगों की जेब खाली हो रही है, फल-सब्जी-तेल सब महंगे हो रहे हैं और फुल स्पीड से बड़ी संख्या में लोग एक बार फिर गरीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं.
हाल ही में वर्ल्ड बैंक ने एक आंकड़ा जारी किया था. अनुमान लगाया गया था कि नेपाल की 45 फीसदी आबादी ऐसी है जो 'लो इनकम ग्रुप' में आती है. ये लोग गरीबी रेखा से जरूर ऊपर हैं, लेकिन इनकी स्थिति कुछ खास नहीं. इसी वजह से अब जब फिर महंगाई तेजी से बढ़ रही है, कहा जा रहा है कि ये 45 फीसदी आबादी कभी भी फिर गरीबी रेखा से नीचे जा सकती है. नेपाल के लिए ये महंगाई इसलिए ज्यादा बड़ी सिरदर्दी है क्योंकि यहां का गरीब अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा सिर्फ खाने-पीने की चीजे खरीदने पर खर्च करता है. साल 2017 में Household Survey हुआ था. उस सर्वे में ये पाया गया कि नेपाल के 10 फीसदी गरीब ऐसे हैं जो अपनी कुल कमाई का दो तिहाई हिस्सा सिर्फ दो वक्त की रोटी पर खर्च कर देते हैं. वहीं जो 10 फीसदी अमीर लोग हैं, उनका खाने पर सिर्फ एक चौथाई खर्च होता है. ऐसे में आने वाले समय में बढ़ती महंगाई के साथ नेपाल में गरीबी भी बड़ी चुनौती बनने वाली है. नेशनल प्लानिंग कमीशन की एक रिपोर्ट में तो दावा भी हो चुका है कि नेपाल में अगर खाने का का सामान 10 फीसदी तक महंगा होगा तो देश में चार प्रतिशत तक गरीबी भी बढ़ जाएगी.
अब नेपाल में महंगाई की मार तो है ही, लेकिन इसके साथ-साथ विदेशी मुद्रा भंडार भी दबाव में है. अभी श्रीलंका जैसी हालत तो नहीं हुई है लेकिन जानकार बताते हैं कि वर्तमान स्थिति को देखते हुए नेपाल द्वारा सिर्फ छह से सात महीनों तक के आयात का बिल चुकाया जा सकता है. ऐसा कहा जाता है कि ये क्षमता कम से कम सात महीने तो होनी ही चाहिए, ऐसे में आने वाले समय में इस मोर्चे पर नेपाल फंस सकता है. आंकड़ों में बात करें तो पिछले आठ महीनों के अंदर नेपाल के विदेशी मुद्रा भंडार में 16.3 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.
बड़ी बात ये भी है कि नेपाल का 90 फीसदी अंतरराष्ट्रीय कारोबार आयात के रूप में होता है. ऐसे में अगर दूसरे देशों में महंगाई बढ़ेगी, तो वहां पर सामान महंगा होगा और जब नेपाल उन वस्तुओं का अपने देश में आयात करेगा, उसे सीधे-सीधे ज्यादा खर्च करना पड़ेगा. आईएमएफ के सांख्यिकी प्रभाग के पूर्व प्रमुख माणिक लाल श्रेष्ठ के मुताबिक इस साल की शुरुआत से नेपाल के आयात बिलों में 20 फीसदी तक का इजाफा हो चुका है.
यहां ये जानना जरूरी हो जाता है कि नेपाल का विदेशी मुद्रा भंडार विदेश में रह रहे नेपालियों की कमाई पर काफी निर्भर है. 30 लाख के करीब नेपाली कई देशों में नौकरी कर रहे हैं. ऐसा देखा गया है कि दूसरे देशों में रह रहे नेपाली अपने परिवार के लिए पैसे नियमित रूप से भेजते रहते हैं. पिछले पांच सालों में तो विदेशी मुद्रा में नेपालियों की भेजी गई कमाई का हिस्सा 54.6 प्रतिशत के करीब रहा है. इसी के दम पर अब तक व्यापार घाटे को भी पाट दिया जाता था. श्रीलंका जैसी स्थिति भी नेपाल में अभी सिर्फ इसलिए नहीं आई है क्योंकि विदेश में रह रहे नेपालियों की कमाई की वजह से विदेशी मुद्रा भंडार सुचारू रूप से चल रहा है. लेकिन बढ़ती महंगाई ने स्थिति को बदला है. जब से कोरोना काबू में आया है, विदेशों में बैठे लोग अपने घर ज्यादा पैसे नहीं भेज रहे हैं. इसके अलावा कोरोना काल में जो आयात काफी कम कर दिया गया था, पिछले साल फरवरी महीने के बाद से उसमें भी बढ़ोतरी देखी गई. ऐसे में विदेशी मुद्रा भंडार पर ज्यादा जोर पड़ा है.