संसद का मानूसन सत्र आरंभ होते ही इसके संकेत उभर आए थे कि पिछले कई सत्रों की तरह विपक्षी दल इस बार भी सदन चलने नहीं देंगे। अंततः ऐसा ही हुआ। मणिपुर की नस्लीय हिंसा को संसद में गतिरोध का जरिया बनाने के लिए कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने पहले से ही तैयारी शुरू कर दी थी। इसकी शुरुआत तभी हो गई थी, जब राहुल गांधी मणिपुर में हिंसा पीड़ितों से मिलने के नाम पर सड़क मार्ग से चूड़चंदपुर जाने के लिए अड़ गए थे। उन्हें सुरक्षा कारणों से हेलीकाप्टर से जाने की सलाह दी गई, पर उनका इरादा सुर्खियां बटोरना था, इसलिए वह सड़क मार्ग से जाने की जिद पर अड़े रहे।
आखिरकार लोगों के धरना-प्रदर्शन के कारण उन्हें हेलीकाप्टर से ही गंतव्य तक जाना पड़ा। राहुल गांधी जिस शैली की राजनीति करने के आदी हैं, उसी के अनुरूप उन्होंने मणिपुर को लेकर केंद्र सरकार और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर तीखा हमला बोला, लेकिन इससे उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ।
गृह मंत्री अमित शाह ने पहले दिन ही स्पष्ट कर दिया था कि सरकार मणिपुर पर चर्चा को तैयार है। चूंकि विपक्ष की रुचि चर्चा में थी ही नहीं, इसलिए उसकी ओर से नई-नई शर्तें लगाई जाती रहीं। इनमें एक शर्त यह भी थी कि संसद तब चलने दी जाएगी, जब प्रधानमंत्री मणिपुर पर वक्तव्य दे देंगे। यह मांग इसके बावजूद की गई कि जब मणिपुर में महिलाओं के साथ अत्याचार का करीब दो माह पुराना और राष्ट्र को शर्मसार करने वाला वीडियो सामने आया तो प्रधानमंत्री ने तत्काल न केवल इस घटना की निंदा की, बल्कि यह आश्वासन भी दिया कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। इसी के साथ मणिपुर में अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई भी तेज कर दी गई और कुछ मामले सीबीआइ को सौंप दिए गए। इसके बाद भी विपक्ष ने किसी न किसी बहाने संसद ठप रखी।
मणिपुर पर प्रधानमंत्री बोलें, इस मांग को पूरा करने के लिए विपक्षी दलों ने अविश्वास प्रस्ताव का सहारा लिया। अविश्वास प्रस्ताव पर तीन दिनों तक चली चर्चा के दौरान यह स्पष्ट दिखा कि राहुल गांधी समेत किसी भी विपक्षी नेता के पास ऐसे तथ्य और तर्क नहीं थे जिससे वे मोदी सरकार को निरुत्तर कर सकते। अविश्वास प्रस्ताव पर विपक्षी नेताओं ने अन्य कई मुद्दों पर भी सरकार को घेरने की कोशिश की, लेकिन तथ्यों के अभाव में वे नाकाम रहे। राहुल गांधी का आक्रोश भरा संबोधन पीएम पर व्यक्तिगत हमले के साथ ही मणिपुर की दो घटनाओं का विवरण सदन में रखने पर ही केंद्रित रहा।
मणिपुर में जो कुछ हुआ, वह सभ्य समाज के लिए अस्वीकार्य है, लेकिन महिलाओं पर अत्याचार के ये इकलौते मामले नहीं हैं। जब भी कहीं सांप्रदायिक या गुटीय हिंसा होती है तो महिलाओं को भी निशाना बनाया जाता है। राहुल गांधी ने मणिपुर को लेकर सरकार पर अनर्गल आरोप लगाकर अपना खोखला राजनीतिक चिंतन ही प्रदर्शित किया। उन्होंने फिर से यही साबित किया कि वह राजनीतिक रूप से परिपक्व नहीं हो सके हैं। उनके संबोधन के कई हिस्से कार्यवाही से हटाने पड़े।
अविश्वास प्रस्ताव पर दिशाहीन नजर आए विपक्ष के मुकाबले सत्तापक्ष विपक्ष की नकारात्मकता को सामने लाने के साथ ही अपनी उपलब्धियां बताने में कहीं अधिक समर्थ रहा। कई मंत्रियों के साथ गृह मंत्री अमित शाह ने जब विभिन्न मोर्चों पर मोदी सरकार की सफलताओं को गिनाया तो विपक्ष की बोलती बंद हो गई। गृह मंत्री ने मणिपुर के संदर्भ में कांग्रेस काल की घटनाओं को तथ्यों के साथ सदन में रखा और यह रेखांकित किया कि इस राज्य की नस्लीय हिंसा दशकों पुरानी समस्या है। उन्होंने यह भी साफ किया कि कांग्रेस के समय मणिपुर में जब कहीं अधिक भीषण हिंसा कई महीनों तक चलती रही थी, तब तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकारों का कैसा उदासीन रवैया था। उन्होंने विपक्ष के इन सवालों का भी ठोस जवाब दिया कि राज्य सरकार को बर्खास्त क्यों नहीं किया गया?
अविश्वास प्रस्ताव पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने कांग्रेस की मौजूदा दुर्दशा रेखांकित करने के साथ ही विभिन्न समस्याओं के प्रति उसके सतही दृष्टिकोण की भी पोल खोली। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि देश की अनेक समस्याओं के लिए कांग्रेस की वोट बैंक वाली राजनीति ही जिम्मेदार है। प्रधानमंत्री ने गांधी परिवार को आवश्यकता से अधिक महत्व देने के लिए भी कांग्रेस को घेरा और ऐसे अनेक प्रसंग याद दिलाए, जिनसे पता चला कि इस दल ने अपनी संकीर्ण राजनीति के चलते किस तरह राष्ट्रहित की अनदेखी की। प्रधानमंत्री के तर्क इतने अकाट्य थे कि कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों के नेता उन्हें सुन नहीं सके और सदन से बाहर चले गए। यह विचित्र है कि एक ओर विपक्षी दल पीएम से सदन में बोलने की मांग कर रहे थे और जब वह बोले तो वे उन्हें सुनने का साहस नहीं दिखा सके।
आखिरकार अविश्वास प्रस्ताव अपेक्षा के मुताबिक गिर गया। यही 2018 में भी हुआ था। यह किसी से छिपा नहीं कि 2019 के चुनावों में राजग ने और बड़े बहुमत से सत्ता में वापसी की थी। प्रधानमंत्री ने यह ठीक ही कहा कि अविश्वास प्रस्ताव तो उनकी सरकार के लिए वरदान सिद्ध हुआ। ऐसा नहीं है कि देश में समस्याएं नहीं हैं अथवा मोदी सरकार के कामकाज में कमियां नहीं निकाली जा सकतीं, लेकिन विपक्ष की रुचि उन्हें तार्किक ढंग से रखने के बजाय हंगामा करने में ही अधिक रही। भले ही विपक्ष को यह लगता हो कि हंगामा करके वह जनता का ध्यान आकर्षित कर सकता है, लेकिन ऐसा होता दिखता नहीं।
जनता ने यह अच्छे से देखा-समझा कि विपक्ष ने किस तरह आवश्यक विधेयकों पर चर्चा करने से इन्कार कर दिया, जबकि कई विधेयक बेहद अहम थे। विपक्षी दल संसद को बाधित कर बहुमूल्य समय तो बर्बाद कर सकते हैं, लेकिन खुद का भला नहीं कर सकते। आज के युवा संसद में व्यवधान और उसके दुष्प्रभाव को कहीं अधिक गंभीरता से समझते हैं।
आज भारत तेजी से उभरती एक अर्थव्यवस्था है। इस अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाते हुए करोड़ों लोगों की आकांक्षाएं पूरी करने के लिए अभूतपूर्व तेजी से कार्य करने की जरूरत है। यह तब संभव होगा, जब संसद सही तरह चलेगी। यदि संसद को बेवजह बाधित किया जाएगा तो जनता विपक्षी दलों को ही कठघरे में खड़ा करेगी।