ललित गर्ग
राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू होने एवं तरह-तरह के कानूनों के प्रावधानों के बावजूद आजादी का अमृत महोत्सव मना चुके राष्ट्र के शिक्षा-मन्दिर बच्चों का सर्वांगीण विकास करने की बजाय उन्हें कमाऊ-धन कमाने की मशीन बना रहे हैं। स्कूलें बच्चों को संस्कारी बनाने की बजाय उन पर हिंसा करने, पिटने, सजा देने के अखाडे़ बने हुए है, जहां शिक्षक अपनी मानसिक दुर्बलता एवं कुंठा की वजह से बच्चों के प्रति बर्बरता की हदें लांघ रहे हैं, वहीं निजी शिक्षण संस्थाएं इन शिक्षकों का तरह-तरह से शोषण करके उन्हें कुंठित बना रहे हैं। सरकारें शिक्षा में अभिनव क्रांति करने का ढ़िढोरा पीट रही है, लेकिन अपने शिक्षकों एवं शिक्षिकाओं पर सवार हिंसा की मानसिकता एवं उनके शोषण को दूर करने का कोई सार्थक उपक्रम नहीं कर पायी है। यही कारण है कि दिल्ली में एक प्राथमिक विद्यालय की एक शिक्षिका ने पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक बच्ची को न केवल बुरी तरह पीटा, बल्कि कैंची से वार करते हुए उसे पहली मंजिल से नीचे फेंक दिया। यह कैसी शिक्षा है एवं कैसे शिक्षक है?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित होने के बावजूद शिक्षा की विसंगतियां एवं विडम्बनाएं दूर होती हुई दिखाई नहीं दे रही है। आज के निजी विद्यालय अपने शिक्षकों को उचित वेतन एवं प्रोत्साहन नहीं देते। अपने आर्थिक लाभ के लिये निजी स्कूलें शिक्षकों को वास्तविक वेतन कुछ और देते है और पूरे वेतन के वाउचर पर हस्ताक्षर लेते हैं, यह शिक्षा के मन्दिरों से जुड़ी अनैतिकता का बड़ा उदाहरण है। इतना ही नहीं ये निजी स्कूलें परीक्षा परिणाम को अव्वल लाने के लिये छात्रों पर तरह-तरह के गैरकानूनी प्रयोग करने की छूट शिक्षकों को दे देते हैं। दूसरी ओर अपने निजी लाभ के लिये शिक्षक छात्रों के परीक्षा परिणामों से छेडछाड करने, कक्षाओं में छात्रों के साथ भेदभाव करने, उनको बेवजह सजा देने का दुस्साहस भी करते हैं ताकि छात्र उन शिक्षकों से ट्यूशन लेने को विवश हो सके। शिक्षक का पेशा पवित्रतम एवं आदर्श माना जाता है। यह इसलिए भी कि शिक्षक के माध्यम से ही बच्चों के भविष्य की नींव तैयार होती है।
देश भर में निजी स्कूलों के शिक्षकों का काफी शोषण किया जाता है। शोचनीय यह है कि जिन अध्यापकों की वजह से ये स्कूल चलते हैं, उन्हें वेतन काफी कम मिलता है, जबकि वे अपनी पूरी जिंदगी उस स्कूल को संवारने में लगा देते हैं। खासतौर से शिक्षिकाओं की मजबूरी का खूब फायदा उठाया जाता है। शहर में संचालित छोटे-बड़े निजी स्कूल प्रबंधन द्वारा अपनी उन्नति व सुख सुविधा के लिए शिक्षा को व्यवसायिक रूप दिया जा रहा है। जिस कारण निजी विद्यालय दिन प्रतिदिन शिक्षक व अभिभावकों के आर्थिक शोषण का केंद्र बन गया है। सरकारी विद्यालयों की चरमराती शैक्षणिक व्यवस्था से आहत अभिभावकों के सामने अपने बच्चों को बेहतर तालिम देने की समस्या खड़ी होती जा रही है। वहीं निजी स्कूल प्रबंधन अपनी व्यवस्था की चमक दमक से अभिभावकों को अपनी ओर आकर्षित करने में लगा है। ऐसे स्कूलों में बच्चों के नामांकन के बाद अभिभावक परेशान है। कई पीड़ित अभिभावकों ने कहा कि नामांकन के समय जो स्कूल प्रबंधन द्वारा सब्जबाग दिया जाता है, उस हिसाब से न तो शैक्षणिक व्यवस्था है और सुविधा। प्रतिवर्ष मनमाने ढंग से विविध शुल्कों में वृद्धि कर दी जाती है। अभिभावकों की शिकायत को प्रबंधन द्वारा नहीं सुनी जाती है उल्टे बच्चे को स्कूल से बाहर कर दिए जाने का अल्टीमेटम दे दिया जाता है। ऐसे छोटे बड़े निजी स्कूलों में कार्यरत शिक्षक व अन्य कर्मियों ने दबी जुवान में कहा कि बच्चों का शुल्क तो प्रतिवर्ष बढ़ा दिया जाता है पर हमलोगों के पगार में मामूली वृद्धि भी नहीं की जाती है। समाज के संवेदनशील लोगों की माने तो निजी शिक्षण संस्था धीरे-धीरे अपने मकसद से भटकता जा रह है। वहां कमजोर बच्चे मानसिक रुप से प्रताड़ित हो रहे हैं। उनके विकास को लेकर प्रबंधन को कोई चिंता नहीं है।
मनुष्य को मनुष्यता का भान कराने में शिक्षा ही सशक्त माध्यम है तथा सभ्यता और संस्कृति से परिचित कराने का दर्पण है। आज की शिक्षा अधूरी है एवं इसमें आधारभूत सुधारों की आवश्यकता है। इस पर वर्षों से राष्ट्रीय स्तर पर चर्चाएं, सम्मेलन होते रहते हैं तथा अनेक शिक्षा-शास्त्रियों के आयोग भी बनाए गए। उनके सुझावों पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी घोषित की गयी है, पर हमारी शिक्षा प्रणाली अभी तक उपयुक्त दिशा की ओर जाती हुई दिखाई नहीं दे रही है। भारतीयता के मूल्यों की पटरी से उतरी हुई है। खुले आकाश के नीचे चल रही पाठशालाओं से लेकर पहाड़ों पर उच्च स्तरीय विद्यालय चल रहे हैं। समानता की दृष्टि से यह स्थिति जमीन और पहाड़ जितनी दूरी लिए हुए है। यह फर्क कब मिटेगा, यह कोई नहीं जानता। विदेशी शासन से मुक्ति का अमृत महोत्सव के बाद भी शिक्षा अभी तक विदेशी भाषा और विदेशी संस्कृति के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकी है। हजारों की तादाद में देश में अंग्रेजी और मिशनरी (कोन्वेन्ट) स्कूल चल रहे हैं जहां शिक्षा में भाषा के माध्यम से लेकर प्रार्थनाएं तक अंग्रेजी मंे होती हैं। हम हैं कि एक दीवानगी पाले हुए हैं कि हमारा बच्चा अंग्रेजी मंे धड़ल्ले से बोले। हमारी संस्कृति पर केवल विदेशी टी.वी. के चैनल ही हमला नहीं कर रहे बल्कि असली धारदार हथियार तो ये स्कूल हैं, जो जड़ें ही काट देते हैं।
विदेशी भाषा का हम भाषा और साहित्य की दृष्टि से आदर कर सकते हैं, कुछ अंशों में विदेशी संस्कृति के अच्छे पक्षों को भी स्वीकार सकते हैं पर भारतीय भाषा और भारतीय संस्कृति की कीमत पर कत्तई नहीं। ऐसे स्कूल में एक बार एक लड़के को इसलिए अपमानित होना पड़ा कि रक्षा बन्धन के पवित्र त्यौहार पर राखियां बांधे स्कूल चला गया। एक दूसरे कान्वेंट स्कूल में एक लड़की को इसलिए कक्षा में नहीं घुसने दिया गया क्योंकि उसके हाथों पर मेहंदी रची हुई थी। यह जानकर मेरा ही नहीं, मेरे भारत के हर नागरिक को भी धक्का लगेगा। लेकिन यह सच्चाई है। इस प्रवाह में केवल मिशनरी ही नहीं अनेक भारतीय संचालक भी बह रहे हैं। स्कूलों के नाम भी अंग्रेजी, ड्रेसें भी अंग्रेजी। उद्देश्य केवल अर्थलाभ। संस्कृति को मिटाकर, सबकुछ भुलाकर। एक बात सौ वर्ष पुरानी है। राजस्थान की एक रियासत के राजा की लड़की बचपन में ही विधवा हो गई। अपना पूरा समय ध्यान, पूजा और भजन में व्यतीत करने लगी। एक दिन राजघराने में एक अंग्रेज मेहमान आया। राजा ने सबसे परिचय कराते वक्त अपनी विधवा लड़की से भी मिलाया। सारी बात सुनकर अंग्रेज मेहमान ने लड़की से कहा, ”तुमने दुबारा शादी क्यों नहीं की?“ लड़की की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। राजा ने सिर पर हाथ फेरकर पूछा, ”क्या हुआ बेटी?“ लड़की ने कहा, ”मुझे दुःख इस बात का है कि इसने यह तो पूछा कि तुमने दुबारा शादी क्यों नहीं की, यह नहीं पूछा कि तू मीरां क्यों नहीं बनी।“ लेकिन ऐसी सोच वाली बालिकाएं आज की शिक्षा से तो तैयार नहीं हो सकती। यह गौरवशाली भारतीय संस्कृति की उज्ज्वलता थी। ऐसा उत्तर जिस दिन देश की बालिकाएं दंेगी, तभी सबकुछ बदलेगा, शिक्षा वास्तविक भारतीय मूल्यों एवं सिद्धान्तों से परिपूर्ण होगी।
ऐसा लगता है कि न नये इंसानों को गढ़ने की सही प्रक्रिया है और न इंसान गढ़ने के प्रति शिक्षक एवं शिक्षण-संस्थानों के भीतर सच्ची निष्ठा। ऐसी स्थिति में शिक्षा का दायित्व कैसे अपने मुकाम पर पहुंचे? इसी कारण शिक्षा की सीख एवं साख नहीं बन पा रही है। शिक्षण संस्थानों पर उन्नत नागरिक बनाने दायित्व है, लेकिन लगता है इस दायित्व को निभाने वालों की सोच एवं समझ के दायरे बदल गये हैं। शिक्षा के आदर्श, सिद्धान्त एवं शैली के प्रति बनी नई मान्यताओं ने नये मानक बना लिये हैं।
यह सुनिश्चित करना भी जरूरी होगा कि स्कूलों में पढ़ाई पूरी व गुणवत्तापूर्ण हो, प्रभावी एवं सहज हो ताकि लोभ, ट्यूशन, शोषण, बर्बरता एवं हिंसक व्यवहार की जरूरत न हो। सरकारी व निजी स्कूलों केे आर्थिक प्रलोभनों, शिक्षकों में ट्यूशन की दुष्प्रवृत्ति एवं सजा देने पर अंकुश भी रखना होगा। छात्रों से ज्यादा जरूरी है शिक्षकों का चरित्र विकास और शिक्षण-संस्थानों को भारतीयाता के सांचे में ढालने की। तभी नये भारत एवं सशक्त भारत की ओर बढ़ते देश की शिक्षा अधिक कारगर एवं प्रभावी होगी। उसके लिये शिक्षा-क्रांति से ज्यादा शिक्षक-क्रांति एवं व्यावसायिक होती शिक्षा को नियंत्रित करने की जरूरत है।