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तश्ना की शायरी में भूख, गरीबी और विस्थापन का दर्द - कौशल किशोर

Nilmani Pal
18 Sep 2023 8:57 AM GMT
तश्ना की शायरी में भूख, गरीबी और विस्थापन का दर्द - कौशल किशोर
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लखनऊ। जन संस्कृति मंच की ओर से उर्दू के मशहूर शायर तश्ना आलमी के छठे स्मृति दिवस के अवसर पर आज 17 सितम्बर दिन इतवार को यूपी प्रेस क्लब, हज़रतगंज में ‘याद ए तश्ना आलमी’ का आयोजन किया गया।

इस मौके पर तश्ना आलमी की शायरी पर बोलते हुए कवि व लेखक कौशल किशोर ने कहा कि उनकी शायारी में बगावती तेवर और हिन्दुस्तानी जबान है। इसमें सहजता ऐसी कि वह लोगों की जुबान पर बहुत जल्दी चढ जाती है। इसमें आम आदमी का दुख-दर्द है। इसमें गली मुहल्ले की गलियों में घूमते, कूड़े के ढ़ेर से कुछ बीनते बच्चे-बच्चियां, सड़कों पर ठेला खींचते बच्चों जैसे विषय हैं जो सुनने वालों को भी बेचैन करते है। शायरी कई तरह के विस्थापन के बीच घूमती है। यह देश में रहते हुए देश से विस्थापन, गांव से शहर व शहर में रहते हुए शहर से विस्थापन तथा साहित्य की दुनिया से विस्थापन - सबको समेटती है। तश्ना की शायरी इस विस्थापन से पैदा हुए दर्द, संघर्ष और मुक्ति की शायरी है।

कार्यक्रम का दूसरा हिस्से में उर्दू के नावेल निगार मोहसिन खान ने अपना चर्चित नावेल ‘अल्लाह मियां का कारखाना’ के एक हिस्से का पाठ किया। इस नावेल को राष्ट्रभाषा पुरस्कार से नवाजा गया है। ‘अल्लाह मियाँ का कारखाना’ में एक बच्चे जिब्रान के ज़रिए वो समाजी, सियासी और कौम के अंदर के हालात को उठाते हैं। उनका अंदाज़े बयां ऐसा है कि जिसे आप तंज भी कह सकते है और मासूमियत भी।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डॉ सबीहा अनवर ने कहा कि कि मोहसिन खान के नावेल में ज़िन्दगी का फलसफा है। इसमें एक बच्चे के माध्यम से बात सामने आती है । वह किस तरह सोचता, समझना व देखता है, यह बात सामने आती है। इसमें उसकी मासूमियत है, ख्वाहिश है, फितरत है। वह जिस भोलेपन से सवाल करता है, उससे अल्लाह मियां किसी विलेन बन जाते हैं। नावेल में मदरसा एक सिस्टम की तरह है। मोहसिन खान अपनी बात को बहुत ही सहज-सरल तरीके से करते हैं। वह खंजर नहीं चलते बल्कि नश्तर चुभाते हैं।

नावेल पर गंभीर चर्चा भी हुई जिसकी शुरुआत करते हुए नाइश हसन ने कहा कि लेखक ने बच्चे के मानस व मनोविज्ञान को जिस तरह पेश किया है, वह अद्भुत है। परवरिश में जो फर्क है वह उनके सोच में सामने आता है। यह नॉवेल उत्तर प्रदेश में मदरसों के हालात का भी एहसास कराता है। यहां उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा हासिल है। सैकड़ों मदरसे मान्यता प्राप्त हैं। लेकिन उनके हालात क्या है? अटल जी की सरकार ने 160 करोड़ का बजट दिया था। अब वह दस करोड़ का रह गया है। यह नावेल आज के सियासी दौर को लेकर बहुत सारे सवाल उठता है।

नावेल पर हुई चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रो साबिरा हबीब ने कहा कि गरीब का बच्चा कदम रखते ही उसमें अक्ल आ जाती है। यही हाल नावेल के पात्र जिब्रान का है। उसका मुर्गियां, बिल्ली आदि से गहरा लगाव है। वह हाफिज साहब के माध्यम से अल्लाह से सवाल करता है। नावेल में इंसानी रिश्ते की बात है। इसमें जिंदगी के गहरे अनुभव हैं। यह नसीहत भी देता है। मैं कह सकती हूं यह 'खुराफाती' दिमाग की 'खुराफाती' किताब है। पढ़िए तो पढ़ते ही जाइएगा। कार्यक्रम का संचालन उर्दू शायरा तथा जसम लखनऊ की उपाध्यक्ष तस्वीर नक़वी ने किया तथा सभी को धन्यवाद ज्ञापित किया सह सचिव कलीम खान ने।

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