निर्मल रानी
पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 में दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली को संबोधित करते हुए देश को एक अति प्रचलित व अति लोकप्रिय नारा दिया था 'जय जवान -जय किसान '। इसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद 'जय जवान, जय किसान के नारे के साथ ही जय विज्ञान' का नारा भी जोड़ दिया था। और अब पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले तो जनवरी 2019 में जालंधर में भारतीय विज्ञान कांग्रेस में 'जय अनुसंधान' का नारा दिया फिर लाल क़िले पर तिरंगा झंडा फहराने के बाद देश को संबोधित करते हुए 'जय जवान', 'जय किसान' और जय विज्ञान के साथ ही इस नारे में 'जय अनुसंधान' शब्द भी जोड़ दिये। इसमें कोई संदेह नहीं कि दुनिया की तरक़्क़ी का आधार केवल विज्ञान ही है। यह मानव को न केवल विकास पथ पर ले जाता है बल्कि अन्धविश्वास व रूढ़ीवादिता से भी दूर करता है। यह विज्ञान ही था जिसने कोविड जैसी वैश्विक महामारी में यथाशीघ्र संभव वैक्सीन तैय्यार कर पूरी मानव जाति का सफ़ाया होने से बचा लिया। इसलिये विज्ञान और तमाम क्षेत्रों में इसपर निरंतर होने वाले अनुसंधानों से भला कौन इनकार कर सकता है। इसलिये 'जय जवान, जय किसान के नारे के साथ ही जय विज्ञान' और अब प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस नारे में 'जय अनुसंधान' शब्द का जोड़ा जाना निश्चित रूप से स्वागत योग्य है।
परन्तु सवाल यह है कि वर्तमान सरकार, विज्ञान व इससे जुड़े अनुसंधान पर जितना ज़ोर दे रही है क्या वास्तव में हमारे देश के लोगों में इस तरह की मुहिम के बाद विज्ञान बोध पैदा हो भी रहा है ? क्या देश के लोगों में वैज्ञानिक चेतना पैदा हो रही है ? आम लोगों की तो बात ही क्या करनी स्वयं सरकार में मंत्री बने बैठे लोग क्या 'जय विज्ञान - जय अनुसंधान' को स्वयं में आत्मसात कर रहे हैं ? या ज़िम्मेदार मंत्रियों व अनेकानेक निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का एक बहुत बड़ा वर्ग अब भी विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधान के बजाये अंधआस्था,पारंपरिक अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता से जकड़ा हुआ है ? उदाहरणार्थ कोविड के ही दौर में जहां देश के वैज्ञानिकों ने कोविड शील्ड व को -वैक्सीन का अनुसंधान कर देश के करोड़ों लोगों को काल की गोद में समाने से बचा लिया वहीं इसी बीच एक ऐसा वर्ग भी सक्रिय था जो गाय के गोबर और गौमूत्र से ही कोविड का इलाज करने का दावा कर रहा था। प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान पर देश के तमाम लोग कभी ताली बजा रहे थे कभी थाली पीट रहे थे,कभी टॉर्च,मोबाईल की लाइट और न जाने क्या क्या जलाकर कोरोना भगा रहे थे। यह आख़िर कौन सा विज्ञान है और इसके अनुसंधान के क्या आधार हैं ?कोविड काल में ही इंतेहा तो तब हो गयी जब प्रधानमंत्री के 'आपदा में अवसर ' के 'मंत्र' को आत्मसात करते हुए सत्ता के निकट सहयोगी बाबा रुपी व्यवसायी रामदेव ने चट-पट कोरोनिल नामक दवा भी बाज़ार में उतार दी। विश्व स्वास्थ्य संग्ठन व आई एम ए इसके अनुसंधान के विषय में पूछते रहे परन्तु इन सवाल जवाबों के बीच जो व्यवसायिक लाभ होना था वह हो चुका था। आज भी रामदेव न तो वैक्सीन को मानते हैं न ही इसके विश्वव्यापी सकारत्मक परिणाम को स्वीकार करते हैं। उल्टे एलोपैथ पद्धति एवं वैज्ञानिकों के दिन रात किये गये प्रयासों से तैय्यार वैक्सीन की आलोचना ज़रूर करते रहते हैं ? क्या सत्ता समर्थक ऐसे लोगों के ऐसे नकारात्मक प्रयासों से वैज्ञानिकों व उनके द्वारा किये जाने वाले अनुसंधानों को प्रोत्साहन मिलेगा ?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों केंद्र-राज्य विज्ञान सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से संबोधित करते हुये कहा कि ''हमें इस 'अमृत काल' में भारत को अनुसंधान और नवाचार का वैश्विक केंद्र बनाने के लिए विभिन्न मोर्चों पर एकसाथ काम करना होगा। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि हमारा प्रयास है कि देश के युवाओं को अंतरिक्ष से लेकर समुद्र की गहराई तक सभी क्षेत्रों में अनुसंधान के लिए हर संभव सहायता मिले। हमारे भविष्य की समस्याओं का समाधान अंतरिक्ष और समुद्र की गहराई में है। परन्तु 2019 में जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह इसी वैज्ञानिक व अनुसंधानपरख उपलब्धियों पर आधारित अति आधुनिक लड़ाकू विमान लेने फ़्रांस गये उस समय उन्होंने सबसे पहले फ़्रांस के मेरिनैक में विमान का पूजन किया। उन्होंने अपने हाथों से विमान पर ॐ लिखा। उस पर नारियल चढ़ाया और विमान के पहियों के नीचे नींबू भी रखे। उन्होंने अपनी इस 'कारगुज़ारी ' को इन शब्दों में सही भी क़रार दिया कि - 'दशमी के अवसर पर शस्त्रों का पूजन करना भारत की प्राचीन परंपरा रही है। उस समय जहां वैज्ञानिक सोच रखने वाले तमाम लोगों ने इसे अवैज्ञानिक,दक़ियानूसी व अंधविश्वासी कृत्य बताते हुये इसका मज़ाक़ उड़ाया था वहीं अंधआस्था प्रेमियों ने 'इसे भारतीय परंपरा का हिस्सा भी बताया था। निश्चित रूप से आज देश का एक वर्ग जब भी कोई वाहन ख़रीदता है,कोई दुकान या मकान बनाता है तो उसपर काला भूत नुमा 'नज़र बट्टू ' लटकाता है। कुछ नहीं मिलता तो काली रिबन,काली चुन्नी,टायर या फटा जूता तक लटका देता है। ताकि कथित तौर पर वह बुरी नज़रों से बच सके। इस तरह की सोच में न तो विज्ञान की ज़रुरत है न ही किसी अनुसंधान की। ऐसे सोच विचार सदियों से हमारी परंपराओं का हिस्सा बन चुके हैं।
राजस्थान के आपदा राहत मंत्री गोविंद मेघवाल ने कुछ समय पूर्व अपने भाषण में कह दिया कि -'चीन में 80 प्रतिशत महिलाएं काम करती हैं तथा अमेरिका में 50 प्रतिशत महिलाएं काम काजी हैं। इसलिए ये देश विज्ञान की दुनिया में जी रहे हैं। साथ ही मंत्री मेघवाल ने यह भी कह दिया कि- दुर्भाग्य है कि आज भी हमारे यहां करवाचौथ पर महिलाएं छलनी देखती हैं। मेघवाल ने कहा कि लोग अंधविश्वास की दुनिया में जी रहे हैं और लोगों को जाति धर्म में लड़वाते हैं। विज्ञान और अनुसंधान की बात करने वालों को तो मंत्री मेघवाल के इस बयान का समर्थन करना चाहिये था परन्तु उस समय बीजेपी ने ही उनके बयान का सख़्त विरोध करते हुये इसपर कड़ी आपत्ति जताई थी। इसी वर्ष मई के अंत में गुजरात के मंत्री अरविंद रैयानी का ज़नजीरों से स्वयं को कोड़े मारने का एक वीडियो सोशल मीडिया पर ख़ूब वायरल हुआ। तमाम लोगों ने इसकी आलोचना करते हुये कहा कि मंत्री रैयानी ने जंजीरों से खुद को कोड़े मारकर अंधविश्वास फैलाया है। जबकि मंत्री महोदय ने जवाब दिया था कि "आप इसे अंधविश्वास नहीं कह सकते। हम केवल अपने देवता की पूजा कर रहे थे।" इससे पूर्व 2017 में भी ठीक इसी तरह गुजरात के शिक्षा मंत्री भूपेंद्र सिंह चूडास्मा और राज्य के सामाजिक न्याय मंत्री ईश्वर परमार भारी भीड़ के बीच तांत्रिकों के कारनामों के मध्य स्वयं को लोहे की ज़नजीरों से पीट रहे थे। और आम लोगों के साथ साथ गुजरात के उपरोक्त दोनों मंत्री उस नज़ारे को पूरे हर्ष उल्लास व आस्था से देख रहे थे। कहाँ है इसमें विज्ञान और अनुसंधान ? दरअसल देश का बड़ा वर्ग इसी तरह की तमाम रूढ़ियों व अन्धास्थाओं का शिकार है। और चूँकि वोट बैंक की राजनीति में लीन नेताओं की इन अंधविश्वासियों से निपटने,इन्हें जागरूक करने व इनसे विज्ञान व अनुसंधान आधारित बातें करने की न तो हिम्मत है न ही दिलचस्पी इसीलिये यह नेता शोर तो विज्ञान और अनुसंधान का मचाते हैं दूसरी ओर अंधआस्था पर ज़ोर देते हैं।