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महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और देश के पूर्व गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी अब कांग्रेस नेतृत्व को खरी-खरी सुनाई है. शिंदे कह रहे हैं कि कांग्रेस की विचारधारा की संस्कृति खत्म हो रही है. गलतियां होती हैं लेकिन उसे सुधारने के लिए कांग्रेस मे चिंतन शिविर की जो परंपरा थी वो खत्म हो गई है. आखिर में शिंदे यह भी कह गए कि एक जमाना था कि मेरे शब्दों का कांग्रेस मे वजन था, लेकिन अब ऐसा नहीं रहा.
वैसे शिंदे एक जमाने मे शरद पवार के करीबी माने जाते थे, एक वक्त 1978 में उन्होंने पवार के साथ कांग्रेस छोड़ी भी थी लेकिन पवार के कांग्रेस में लौटने से पहले ही उन्होंने अपनी घर वापसी कर ली और वे उसके बाद से कांग्रेस और गांधी परिवार के निष्ठावान माने जाते रहे. जब वक्त मिला मौका रहा तब कांग्रेस या यूं कहें गांधी परिवार ने उन्हें वो सब दिया जिसकी शिंदे ने कभी कल्पना भी नही की थी. पहले महाराष्ट्र मे मुख्यमंत्री, उससे हटे तो आंध्र प्रदेश का राज्यपाल ,फिर केंद्र में मंत्री और सदन का नेता पद भी उन्हीं की झोली में डाला गया. उम्र और कांग्रेस के प्रभाव में ढलान की वजह से शिंदे का प्रभाव सिर्फ राजनीति में नहीं लेकिन कांग्रेस में भी ढल रहा है. लगातार दो बार सोलापुर से जो एक समय कांग्रेस का गढ था, वहां से शिंदे लोकसभा का चुनाव हारे हैं.
शिंदे का दर्द, कांग्रेस की असल परेशानी?
एक समय था कि महाराष्ट्र जैसा राज्य कांग्रेस की बुरी से बुरी स्थिति में भी उसे 75 तक सीटें दिलवाता था. पुराने कांग्रेसी कहते हैं कि उम्मीदवार का चयन उपर से नहीं नीचे से होता था. कांग्रेस का अपना कैडर था जो पार्टी की खराब हालत के वक्त भी पार्टी के साथ खड़ा होता. इसी के बलबूते पर सुशील कुमार शिंदे जैसे नेता जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी, जो एक सामान्य नौकरी मे थे, उन्हें मौका मिल पाता अपनी प्रतिभा के आधार पर टिकट पाने का और नेता बनने का. कांग्रेस का समावेशी रूप क्या है, ये लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्हें तमाम वर्कश़ाप्स या चिंतन शिविरों से गुजरना पडता. जहां कांग्रेस के वरिष्ठ नेता के सामने भी खुलकर बोलने की अनुमति होती थी. लेकिन 1980 के बाद कांग्रेस का ये 'कल्चर' बदलने लगा. अब नीति गलत हुई तो वो सुधारने के लिए चिंतन शिविर की जरूरत नही पडती. कई बार तो गलती का एहसास भी नहीं होने दिया जाता क्योंकि हाईकमांड के आसपास जो निष्ठावान लोगों की मंडली होती वो उन्हें जो पसंद वहीं बात करती .
राज्य में जन समर्थन वाले नेता से ज्यादा निष्ठावान ज्यादा भारी पड़ते. अब परिवार का करिश्मा जितवाने के लिए काफी था, ऐसे में कैडर तो सिर्फ जिंदाबाद-मुर्दाबाद के लिए रह गया. महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख जैसे कद्दावर नेता को भी दिल्ली से नजदीकी वाले छोटे-मोटे नेताओं को अपने मंत्रीमंडल में सहन करना पड़ता क्योंकि कहीं वो दिल्ली के कान भर कर उनका खेल खराब ना करें.
कांग्रेस की बदलती विचारधारा हाईकमान नहीं समझ पाई?
कांग्रेस की ही लाई उदारीकरण की नीति के बाद से बड़ी हुई नई पीढ़ी की विचारधारा के मायने बदल रहे थे लेकिन निष्ठावान होने के फल खाने वाले तमाम कांग्रेसियों ने इसे नजरअंदाज ही किया. शिंदे भी इससे अछूते नहीं रहे, राजनीति का पेशेवर फायदा उठाते-उठाते कांग्रेस मे राजनीति पेशा बना और इसी बीच संगठन पर से ध्यान हटने लगा. आज जब राहुल गांधी विचारधारा की लड़ाई की बात कर रहे हैं तब कांग्रेस में विचारधारा से जुडे लोगों की कमी खल रही है. इसका सबसे बडा कारण यही है.
शिंदे महाराष्ट्र से आते हैं इसलिए यहीं का उदाहरण देना है तो जब 1999 में शरद पवार ने कांग्रेस छोड़ी तब महाराष्ट्र के कांग्रेस के अध्यक्ष रहे प्रतापराव भोसले की नेतृत्व में उस मुश्किल समय में भी पवार से ज्यादा सीटें महाराष्ट्र में जीतीं. आज उन्हीं के बेटे और एक वक्त कांग्रेस के विधायक रहे मदन भोसले बीजेपी मे शामिल हैं. शिंदे जो बात आज कह रहे हैं वो आज नहीं पिछले 25 साल से कांग्रेस मे हो रहा है. फर्क इतना ही है कि आज उसका असर दिखने लगा है .
Admin2
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