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कोरोना का ऐसा तांडव: श्मशानों में लकड़ियां पड़ी कम, गन्ने की खोई से किया जा रहा शव का अंतिम संस्कार
jantaserishta.com
24 April 2021 7:45 AM GMT
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कोरोना के कहर के बीच सरकारी मृतकों की संख्या का मायाजाल अलग है...
गुजरात के सूरत शहर में कोरोना का कहर निरंतर जारी है. कोरोना के कहर के बीच सरकारी मृतकों की संख्या का मायाजाल अलग है, और श्मशानों में हो रहे शवों के अंतिम संस्कारों की संख्या अलग है. कोरोना से होने वाली मौतें इतनी अधिक हो रही हैं कि शहर के श्मशानों में लकड़ियां कम पड़ जा रही हैं, ऐसे में चीनी मीलों से भेजी जा रही खोई यानी कि बगास का इस्तेमाल शवों को जलाने के लिए हो रहा है.
सूरत शहर में पहले मुख्य रूप से तीन श्मशान हुआ करते थे. इनमे से एक जहांगीरपुरा कुरुक्षेत्र श्मशान, दूसरा रामनाथ घेला श्मशान और तीसरा अश्वनी कुमार श्मशान है. मगर कोरोना की दूसरी लहर में मृतकों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि दो और नए श्मशान शुरू करने पड़े हैं. नए श्मशान में से एक शहर के लिंबायत क्षेत्र में शुरू किया गया है, जबकि दूसरा पाल इलाक़े में कैलाशमोक्ष धाम श्मशान नाम से शुरू किया गया है. इसके अलावा पुराने सभी तीनों श्मशानों में शवों के अंतिम संस्कार के लिए ऐसी चिंताएँ तैयार की गयी हैं. जहाँ 24 घंटे अंतिम संस्कार की प्रक्रिया जारी रहती है.
सूरत शहर के सभी श्मशानों में शवों के अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियां कम पड़ रही हैं. इसलिए चीनी मिल से बगास यानी खोई भेजी जा रही है. यह हम नही कह रहे यह चीनी मिल के डायरेक्टर दर्शन नायक कह रहे हैं. दर्शन नायक के मुताबिक उनकी चीनी मिल द्वारा शहर और जिला के सभी श्मशानों में जरूरत के हिसाब से मुफ़्त में बगास भेज रहे हैं.
सूरत शहर के जिन श्मशानों में बगास का इस्तेमाल शवों के अंतिम संस्कार के लिए किया जा रहा है उनमें से एक कैलाश मोक्ष धाम श्मशान घाट भी है. कैलाश मोक्ष श्मशान में एडवांस में शवों के अंतिम संस्कार के लिए चिताएं तैयार की गयी हैं, इन चिताओं पर लकड़ियाँ भी रखी रखी गई हैं. साथ ही साथ लकड़ियों के बीच बगास भी रखा गया है.
कैलाश मोक्ष धाम श्मशान से जुड़े नितिन भाई भजियावाला बताते है कि बगास अत्यंत ज्वलनशील होता है इसलिए आग जल्दी पकड़ता है और कम लकड़ियों में शवों का अंतिम संस्कार हो जाता है. बगास से पहले अंतिम संस्कार जल्दी करने के लिए केरोसिन का भी इस्तेमाल करते थे, मगर कुछ लोगों की आपत्ति के बाद केरोसीन का इस्तेमाल कम कर दिया गया है और बगास यानी खोई का इस्तेमाल शुरू किया है.
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