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न्यूज एजेंसी UNI के खिलाफ धरना और भूख हड़ताल पर बैठे कर्मचारी
दिल्ली ब्यूरो। पिछले 56 महीनों से अपनी सैलरी और दूसरी देय राशियों का भुगतान न होने की वजह से अनेक परेशानियों से तंग आकर न्यूज़ एजेंसी यूएनआई (यूनीवार्ता) के कर्मचारियों को धरना-प्रदर्शन का रास्ता अख्तियार करना पड़ा है। यूएनआई (UNI) प्रबंधन की ज़्यादतियों और कर्मचारी-विरोधी रवैय्ये के चलते ये कर्मचारी अपनी जायज मांगों को लेकर 2 अक्टूबर से रफ़ी मार्ग स्थित यूएनआई हेड ऑफिस पर धरना दे रहे हैं और क्रमिक भूख हड़ताल (hunger Strike) पर बैठे हैं।
यूएनआई कर्मचारियों के धरने को पीटीआई एम्प्लाइज यूनियन, इंडियन एक्सप्रेस वर्कर्स यूनियन, पीटीआई वर्कर्स यूनियन, ऑल इण्डिया एम्प्लाइज ऑफ़ न्यूज़पेपर्स फेडररेशन, दिल्ली यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स और बृहन मुंबई यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स जैसे संगठनों का समर्थन हासिल है।
कर्मचारियों की लड़ाई को आगे ले जाने के लिए हाल ही में गठित ऑल इण्डिया यूएन आई एम्प्लाइज फ्रंट के संयोजक शैलेन्द्र झा और महेश राजपूत ने बताया कि हाल में नियुक्त किये गए प्रधान संपादक महोदय तो हर माह 2 लाख रुपये सैलरी लेते हैं, लेकिन लगभग 250 नियमित कर्मचारियों से कहा जा रहा है कि वे 56 महीनों की बकाया सैलरी की जगह मात्र 15 हज़ार रुपये महीना लेकर संतोष करें।
संयोजकों ने कहा कि बकाया सैलरी पाने की कर्मचारियों की उम्मीद उस समय बढ़ गई थी, जब न्यूज़ एजेंसी का 60वां स्थापना दिवस मनाते समय बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स के चेयरमैन सागर मुखोपाध्याय ने सभी वर्तमान और रिटायर्ड कर्मचारियों का आभार मानते हुए कहा था कि एजेंसी के विकास का ख़ाका तैयार कर लिया गया है और जल्द ही इसे घोषित कर दिया जायेगा।
शैलेन्द्र झा और महेश राजपूत का कहना था कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और अप्रैल के तीसरे हफ्ते में प्रधान संपादक और जनरल मैनेजर के पदों के लिए विज्ञापन दे दिया गया। प्रधान संपादक की नियुक्ति के बाद संपादकीय समेत दूसरे विभागों के लिए ठेके में नियुक्तियों का सिलसिला चल पड़ा। नियमित कर्मचारियों पर भी ठेका मज़दूर बनाने का दबाव डाला जाने लगा। इसके चलते कर्मचारियों के बीच दहशत का माहौल पैदा हो गया। परिणामस्वरूप बहुत से नियमित और ठेका कर्मचारी संस्थान को छोड़ कर चले गए।
झा और राजपूत ने बताया कि ठेके पर रोज़गार देने की नीति का इस्तेमाल संस्थान ने कर्मचारियों को परस्पर विभजित कर अपनी मनमानी करने के लिए किया। ठेके पर रखे गए कर्मचारियों को तो नियमित रूप से भुगतान होता रहा, लेकिन नियमित कर्मचारियों को महीनों सैलरी का इंतज़ार कराया जाने लगा। यह सिलसिला साल 2006 से चालू है और अब तो पानी सर से ऊपर पहुँच चुका है। वर्तमान में तो एजेंसी के बहुत से केंद्रों में तो दो सैलरी पाने के बीच का अंतर बढ़ कर 6 से 8 महीने हो गया है। साफ़ है कि कर्मचारियों को एक साल में दो महीने की भी सैलरी नहीं मिल पा रही है।
संयोजकों का कहना था कि प्रबंधन की तरफ से सबसे ज़्यादा प्रताड़ित करने वाला सन्देश यह था कि मासिक सैलरी के रूप में केवल 15,000 रुपये ही दिए जायेंगे और बाकी सैलरी बकाया रहेगी, जिसका भुगतान फंड की उपलब्धता पर निर्भर करेगा। जबकि प्रधान संपादक को हर माह 2 लाख रुपये और उनके द्वारा ठेके पर रखे गए कर्मचारियों को सैलरी के रूप में 50,000 रुपये नियमित रूप से मिलते रहे। गंभीर बात तो यह है कि दिल्ली के अलावा एजेंसी के दूसरे केंद्रों में काम कर चुके उन कर्मचारियों को 15 हज़ार की अदना सी राशि से भी महरूम रखा गया जो या तो रिटायर हो चुके हैं या फिर संस्थान छोड़ कर जा चुके हैं, लेकिन उनकी पिछली सैलरी और दूसरे भुगतान बकाया हैं।
हाँ, इतना ज़रूर हुआ है कि नवगठित ऑल इण्डिया यूएनआई एम्प्लॉईज़ फ्रंट द्वारा 2 अक्टूबर से "क्रमिक भूख हड़ताल" और "धरने" का आह्वाहन करने के बाद इनमें से कुछ कर्मचारियों को प्रति कर्मचारी 10,000 रुपये की राशि का भुगतान किया गया।
झा और राजपूत का कहना था कि ऐसे में यूएनआई कर्मचारियों के पास अपना बकाया हासिल करने के लिए शांतिपूर्वक आंदोलन चलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
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Gulabi
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