कुमारी नेहा
लमचूला, बागेश्वर,
उत्तराखंड
हम भले ही आधुनिक समाज की बात करते हैं, नई नई तकनीकों के आविष्कार की बातें करते हैं, लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि महिलाओं के प्रति आज भी समाज का नजरिया बहुत ही संकुचित है. बराबरी का अधिकार देने की बात तो दूर, उसे अपनी आवाज उठाने तक का मौका नहीं देना चाहता है. विशेषकर माहवारी जैसे विषयों पर खुलकर बात करना आज भी समाज में बुरा माना जाता है. यही कारण है कि भारतीय उपमहाद्वीप में माहवारी से जुड़ी कई गलतफहमियां लंबे अर्से से चली आ रही हैं. जैसे पीरियड्स के दौरान महिलाओं को अछूत माना जाना, पूजा घर में प्रवेश नहीं करने देना, अचार नहीं छूने देना और स्कूल नहीं जाने देने के साथ साथ नहाने से भी परहेज किया जाना जैसा अंधविश्वास हावी है. शहरों में जहां अब भी संकुचित सोच पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ है वहीं देश के दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं और किशोरियों को माहवारी के मुद्दे पर समाज के संकुचित सोच के साथ साथ अंधविश्वास से भी जूझना पड़ता है. हालांकि सरकार के साथ साथ कुछ संस्थाएं इस दिशा में जागरूकता भी फैला रही हैं और किशोरियों को इस मुद्दे और अंधविश्वास के खिलाफ जागरूक कर रही हैं. जिसका सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिल रहा है.
उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक से 24 किमी दूर बसा सुराग गांव इसका एक उदाहरण है. जहां महावारी के समय किशोरियों को घर से अलग गौशाला में रखा जाता है. हालांकि माहवारी पूरी तरह से एक प्राकृतिक चक्र है. लेकिन शिक्षा और जागरूकता के अभाव में ग्रामीण समाज इसे अपवित्र समझ कर महिलाओं और किशोरियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करता है. समाज के इसी सोच से परेशान गांव की एक किशोरी कुमारी गीता का कहना है कि 'रूढ़िवादी सोच के कारण मासिक धर्म में के समय में लड़कियों को अलग गौशाला में रखना अमानवीय है. जिस पर अंकुश लगाने और इसे जड़ से समाप्त करने की ज़रूरत है. ऐसे समय में जबकि हम स्वयं पेट दर्द जैसी कठिन समस्या से गुज़र रहे होते हैं, हमें अपनों के साथ की ज़रूरत होती है, ऐसे मुश्किल समय में ही हमें घर से अलग जानवरों के बीच जानवरों जैसी ज़िंदगी बिताने पर मजबूर कर दिया जाता है. हालांकि यह एक प्राकृतिक देन है. इस पर हमें खुलकर बात करनी चाहिए और सभी महिलाओं और किशोरियों को इसके प्रति जागरूक होना चाहिए. यही वह समय है जब हमे सबसे अधिक अपना ध्यान रखने की ज़रूरत है.'
इस संबंध में गांव की एक महिला भगवती देवी कहती हैं कि 'पुराने समय में मासिक धर्म को लेकर बहुत छुआछूत होती थी. अब यह प्रथा पहले की अपेक्षा थोड़ी कम हो रही है, जबकि इसे पूरी तरह से समाप्त करने की ज़रूरत है. मासिक धर्म को लेकर हमने अपनी किशोरावस्था में बहुत कष्ट उठाया है. अब पहले अपेक्षा इतने कठिन नियम नहीं हैं.' भगवती देवी कहती हैं कि उत्तराखंड के गांव में चलाए जा रहे दिशा प्रोजेक्ट के साथ जब से मेरी पोती जुड़ी है तब से यह प्रथा मेरे परिवार में खत्म हो गई है. उसने हम सब की सोच को बदल दिया है. ज्ञात हो कि 'दिशा प्रोजेक्ट' अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन और दिल्ली स्थित चरखा डेवलपमेंट कम्युनिकेशन नेटवर्क द्वारा राज्य के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ और कपकोट ब्लॉक के विभिन्न गांवों में चलाया जा रहा है. जिसमें किशोरियों को उनके अधिकारों और समाज की रूढ़िवादी विचारों के खिलाफ जागरूक किया जा रहा है. ऐसे विचार जो आधारहीन और तथ्यहीन होने के बावजूद महिलाओं और किशोरियों के विकास में बाधक बने हुए हैं.
इस संबंध में गांव की आशा कार्यकर्ता शोभा देवी का कहना है कि मासिक धर्म एक प्राकृतिक वरदान है. घरों में इस पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इस किशोरियों को इस विषय पर और भी अधिक जानकारी देने की आवश्यकता है. वहीं आंगनबाड़ी कार्यकर्ता माया देवी का कहना है कि 'गांव में कई घर ऐसे हैं जहां पर महावारी के समय लड़कियों को गौशाला में रखा जाता है. इस दौरान उनके खाने के बर्तन भी अलग रखे जाते हैं और उनके पास किसी को भी जाने नहीं दिया जाता है. जिस वजह से किशोरियों को बहुत दिक्कत होती है. इससे न केवल उनके स्वास्थ्य पर खतरा रहता है बल्कि उनकी सुरक्षा भी दांव पर लगी रहती है. इस प्रथा को दूर करने और इस सोच से लोगों को बाहर निकालने के लिए हम आंगनवाड़ी सेंटर पर किशोरियों के साथ कभी-कभी मीटिंग भी करते हैं. इस दौरान किशोरियों को आंगनबाड़ी की ओर से मुफ्त पैड भी दिया जाता है. यह बाज़ार से बहुत सस्ते दरों पर उपलब्ध कराये जाते हैं. मीटिंग में किशोरियों को मासिक धर्म के दौरान पूरी साफ सफाई के लिए भी जागरूक किया जाता है.
वहीं ग्राम प्रधान पदम राम का कहना है कि मासिक धर्म के समय भेदभाव और छुआछूत यहां किशोरियों के साथ उनके घरों में ही किया जाता है. शहरों में यह प्रथा अब खत्म हो चुकी है लेकिन गांव में यह अमानवीय कुप्रथा आज भी जीवित है. जब से हमारे गांव की लड़कियां दिशा प्रोजेक्ट के साथ जुड़ी है तब से उनकी सोच में काफी बदलाव आया है. कई घरों में लोगों ने महावारी के समय में लड़कियों को अलग भेजना बंद कर दिया है. लेकिन बड़ी बुजुर्ग महिलाएं अभी भी इस रूढ़िवादी सोच के शिकंजे में कैद हैं. मेरा विश्वास है कि समय के साथ-साथ उनकी सोच में भी बदलाव आएगा.
सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैंडी का कहना है कि 'गांव में अधिकतर किशोरियों को ग्यारह वर्ष की उम्र से मासिक धर्म शुरू हो जाता है. यह अच्छे स्वास्थ्य की निशानी है, परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के अभाव में इसे एक छुआछूत और अपवित्र समझा जाता है और इस दौरान किशोरियों और महिलाओं के साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता है. उन्हें सात दिनों तक घर से बाहर गौशाला में रहने पर मजबूर किया जाता है. इस दौरान उसे अपने कपड़े धोने के लिए भी घर से दूर नदियों में जाना होता है. इस रूढ़िवादी सोच से किशोरियों के मानसिक और शारीरिक विकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. ऐसे बहुत से स्थान है जहां पर यह भेदभाव जारी है, लेकिन कुछ जगह ऐसी भी हैं जहां पर धीरे-धीरे समाज की सोच में परिवर्तन आ रहा है. विशेषकर दिशा प्रोजेक्ट के बाद से गरुड़ और कपकोट ब्लॉक के बहुत से गांवों में इस सोच के विरुद्ध जागरूकता आई है. लेकिन अभी भी ग्रामीण समाज माहवारी पर संकुचित सोच से पूरी तरह से आज़ाद नहीं हुआ है. (चरखा फीचर)