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आरक्षण बन गया अफीम की गोली

Nilmani Pal
30 Dec 2022 11:42 AM GMT
आरक्षण बन गया अफीम की गोली
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक

भारत में जातीय आरक्षण अफीम की गोली बन चुका है। हर राजनीतिक दल चाहता है कि वह जातीय आधार पर थोक वोट सेंत-मेत में कबाड़ ले। इस समय दो प्रदेशों में जातीय आरक्षण को लेकर काफी दंगल मचा हुआ है। एक है, छत्तीसगढ़ और दूसरा है- उत्तरप्रदेश! पहले में कांग्रेस की सरकार है और दूसरे में भाजपा की सरकार। लेकिन दोनों तुली हुई हैं कि 50 प्रतिशत की संवैधानिक सीमा को तोड़कर आरक्षण को 76 प्रतिशत और अन्य पिछड़ा वर्ग तक बढ़ा दिया जाए। बिहार तथा कुछ अन्य प्रांतों में भी इस तरह के विवादों ने तूल पकड़ लिया है। जहाँ तक छत्तीसगढ़ का सवाल है, उसकी सरकार ने विधानसभा में ऐसे विधेयक को पारित कर दिया है, जो 58 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ाकर 76 प्रतिशत कर देता है। आर्थिक दृष्टि से पिछड़ों के लिए सिर्फ 4 प्रतिशत आरक्षण रखा गया है।

इस नई प्रस्तावित आरक्षण-व्यवस्था के पीछे न तो कोई ठोस आंकड़े हैं और न ही तर्क हैं। सितंबर 2022 में प्रदेश के उच्च न्यायालय ने एक फैसले में साफ़-साफ़ कहा था कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देना असंवैधानिक है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने एक फैसले में कहा था कि सीमा से अधिक आरक्षण देना हो तो उसके लिए उसे तीन पैमानों पर पहले नापा जाना चाहिए। याने उनकी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति, उन्हें आरक्षण की जरूरत है या नहीं और वह उनको दिया जा सकता है या नहीं? यह जांचने के लिए बाकायदा एक सर्वेक्षण आयोग बनाया जाना चाहिए। इन सब शर्तों को दरकिनार करके सभी राज्य आरक्षण को आनन-फानन बढ़ा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में तो राज्यपाल अनसुइया उइके पर राजनीतिक प्रहार किए जा रहे हैं कि वे भाजपा के इशारे पर इस विधेयक पर दस्तखत नहीं कर रही हैं। यदि यह सही होता तो उ.प्र. के मुख्यमंत्री स्थानीय चुनावों में अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने पर क्यों अड़े हुए हैं? योगी के इस फैसले का विरोध अखिलेश और मायावती भी कर रहे हैं, क्योंकि उनके वोट बैंक में इस फैसले से सेंध लग सकती है। योगी ने अपने उच्च न्यायालय के आरक्षण-विरोधी फैसले से असहमति व्यक्त की है और कहा है कि जब तक इस आरक्षण का प्रावधान नहीं होगा, उ.प्र. में स्थानीय चुनाव नहीं होंगे। उ.प्र. सरकार ने न्यायालय की अपेक्षा को पूरा करने के लिए एक जातीय सर्वेक्षण आयोग का प्रावधान भी कर दिया है। अर्थात सरकारें कांग्रेस की हों, भाजपा की हों, जदयू की हों या कम्युनिस्टों की हों, किसी की हिम्मत नहीं है कि वह जातीय आरक्षण का विरोध करे याने वे डाॅ. आंबेडकर की इच्छा को पूरी करते अर्थात जात-आधारित आरक्षण को 10 साल से ज्यादा चलने न देते। छत्तीसगढ़ की राज्यपाल तो स्वयं आदिवासी महिला हैं। वे आदिवासियों के हितार्थ बहुत कुछ पहल कर रही हैं। वे यदि इस अंधाधुंध जातीय आरक्षण पर शांति से विचार करने के लिए कह रही हैं तो उसमें गलत क्या है? हमारी अदालतें भी आरक्षण के विरुद्ध नहीं हैं लेकिन वे अंधाधुंध रेवड़ियां बांटने का विरोध कर रही हैं तो नेताओं को ज़रा अपने थोक वोटों के लालच पर कुछ लगाम लगाना चाहिए या नहीं?

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