सत्ता के लिये धार्मिक परम्परायें सर्वोपरि या संविधान की रक्षा ?
निर्मल रानी
पिछले दिनों सेंट्रल विस्टा नामक परियोजना के अंतर्गत भारत के नव निर्माणाधीन संसद भवन पर अशोक स्तंभ की एक विशालकाय विवादित प्रतिमा स्थापित की गयी। जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिन्दू रीति रिवाज एवं कर्मकाण्ड के साथ किया। यह वह अशोक स्तंभ है स्वरूप है जो भारतीय संविधान के मुख्य पृष्ठ पर अंकित है। और इसी संविधान का अनुच्छेद 51 A प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिये अनेक कर्तव्य सुनिश्चित करता है। और इसी क्रम में यह उल्लेख है कि प्रत्येक नागरिक भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे, भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो। वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे तथा व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले। सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री द्वारा अशोक स्तंभ के उद्घाटन के समय किया जाने वाला कर्मकाण्ड संविधान की उक्त परिभाषा के अंतर्गत सही था ? इस के अलावा भी भारत के प्रधानमंत्री भारत नेपाल अथवा अन्य किसी देश में किसी मंदिर अथवा धार्मिक आयोजन में शरीक होते हैं तो उनका पहनावा देखकर तो कोई यह कह ही नहीं सकता कि वे किसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रधानमंत्री हैं। बल्कि ऐसा प्रतीत होता कि भारत को जिस हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात की जा रही है वह हिन्दू राष्ट्र बन चुका है और यही उस 'हिन्दू राष्ट्र के पहले प्रधानमंत्री' हैं।
दो वर्ष पूर्व राफ़ेल लड़ाकू विमान के पूजा पाठ यहाँ तक कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा विमान पर निम्बू व हरी मिर्च लटकाने जैसी अंधविश्वासपूर्ण परंपरा का पूरी दुनिया में मज़ाक़ उड़ाया गया। क्या इन्हीं अंधविश्वासी 'कारगुज़ारियों ' से संविधान के अनुरूप 'जनता में वैज्ञानिक और मानववादी चिंतन विकसित' किया जायेगा? कभी इसी अंधविश्वासी कुनबे का कोई नेता यहां तक दावा कर बैठता है कि हमारे मंत्रोच्चारण मात्र से चीन की सेना पराजित हो जायेगी। कहीं कांवड़ियों पर उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पुष्प वर्षा कराई जा रही है और मुख्यमंत्री स्वयं हेलीकॉप्टर से कांवड़ यात्रियों का अभिवादन कर रहे हैं। तो कहीं उत्तरांचल के मुख्यमंत्री कांवड़ियों के पैर धोते दिखाई दे रहे हैं। राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनने के बाद द्रौपदी मुर्मू विभिन्न मंदिरों में झाड़ू लगाती नज़र आईं। कहीं ब्राह्मण मण्डली द्वारा कथित तौर पर उनका शुद्धिकरण किये जाने के वीडिओ वायरल हुए। प्रधानमंत्री,उनके अनेक मंत्रिमंडलीय सहयोगी तथा अनेक भाजपाई मुख्य मंत्रियों व मंत्रियों से जुड़ी इसी तरह की अनेक ख़बरें व उनके चित्र अक्सर सामने आते रहते हैं।
परन्तु पिछले दिनों ठीक इसके विपरीत एक समाचार तमिलनाडु राज्य की धर्मपुरी लोकसभा क्षेत्र से प्राप्त हुआ। इस क्षेत्र के लोक सभा सदस्य डॉक्टर सेंथिल कुमारको पी डब्ल्यू डी द्वारा शुरू की जाने वाली एक सड़क परियोजना के शुभारंभ के लिये आमंत्रित किया गया था। विभाग की ओर से अवसर पर भूमि पूजन कराये जाने के उद्देश्य से ब्राह्मणों को भी आमंत्रित किया गया था। समारोह स्थल पर जब सांसद ने पूजा सामग्री सहित ब्राह्मण को मौजूद देखा उसी समय वे आग बबूला हो उठे। उन्होंने सवाल किया कि यहाँ केवल ब्राह्मण ही क्यों? चर्च के फ़ादर इमाम आदि क्यों नहीं? सभी को इसमें शामिल करना चाहिये? उन्होंने निर्देश दिया कि भविष्य में किसी भी सरकारी समारोह में किसी धर्म विशेष के लोगों को न बुलाया जाये। क्योंकि यही तमिलनाडु का द्रविण मॉडल है और मुख्य मंत्री एम के स्टालिन भी यही चाहते हैं। ग़ौर तालाब है कि मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के किसी भी उद्घाटन समारोह की शुरुआत किसी भी धर्म विशेष के धार्मिक रीति रिवाजों से नहीं की जाती है। बल्कि संविधान उल्लिखित धर्मनिरपेक्ष बिंदुओं का ही पालन किया जाता है। बेशक उत्तर भारतीय राजनीतिज्ञों की नज़रों में दक्षिण भारत के केरल व तमिलनाडु जैसे राज्य खटकते रहते हों परन्तु हक़ीक़त यह है कि अपनी इसी संवैधानिक,धर्मनिरपेक्ष व संविधान सम्मत सोच व विचारधारा के चलते ही आज जहां केरल में ०.7 तथा तमिलनाडु में 4.9 प्रतिशत ग़रीबी है वहीं बिहार,उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश में क्रमशः 51.9,37.8 तथा 36.7 प्रतिशत ग़रीबी है। इन राज्यों में शिक्षा का आंकड़ा भी कम-ो-बेश इसी अनुपात में है।
प्रायः विभिन्न मंचों पर यह बहस होती ही रहती है कि मानववादी चिंतन तथा वैज्ञानिक व तर्कशील सोच हमें और हमारे देश को आगे ले जाएगी या फिर धार्मिक रीति रिवाज,उनकी आड़ में पनपने वाले पाखण्ड,दक़ियानूसी सोच और इसी से जुड़ी वोट बैंक की वह राजनीति जो किसी धर्म विशेष को प्रसन्न कर सत्ता तक पहुँचने में सहायक होती है ? इतिहास में यह दर्ज है कि जब ग़ज़नवी ने सोमनाथ मंदिर को लूटा उस समय भी वहां मौजूद ब्राह्मण मण्डली वहां उपस्थित हज़ारों लोगों को यह विश्वास दिलाती रही कि अभी श्लोकों के उच्चारण से ग़ज़नवी की सेना तबाह हो जाएगी। परन्तु आक्रांता ग़ज़नवी मंदिर का सोना लूट कर ले भागा और सैकड़ों लोगों की हत्या कर दी। कितना हास्यास्पद है कि आज चीन से लड़ने के लिये फिर से वही भाषा बोली जा रही है ? अतीत से हम कोई सबक़ सीखने के बजाये उसी दक़ियानूसी व अवैज्ञानिक विचारों को फिर खाद पानी दे रहे हैं ? जिस गाय के गोबर और गौमूत्र को पूरे विश्व के किसी भी आधुनिकतम व प्रगतिशील देश में कोई वैज्ञानिक महत्व व मान्यता न दी जा रही हो उस गोबर और गौमूत्र को हम जबरन औषधि यहाँ तक कि 'अमृत' के रूप मान्यता देने के लिये व्याकुल हैं। ऐसे ही अवैज्ञानिक प्रयासों के अंतर्गत कहीं किसी धर्म विशेष का धर्मग्रन्थ स्कूलों में पढ़ाया जाने लगा तो कहीं ज्योतिष विद्या सिखाए जाने का समाचार मिल रहा है। जो कभी दूसरों पर तुष्टीकरण का आरोप लगाया करते थे उन्होंने अपनी 'कारगुज़ारियों ' को तृप्तीकरण का नाम दे दिया है।
धर्म विशेष के 'धर्म भीरुओं 'को हो सकता है यह सब अच्छा भी लग रहा हो। हो सकता है कि किसी को मज़ार पर चादरें चढ़ाना और इफ़्तार पार्टी से सुकून मिलता हो। परन्तु केरल और तमिलनाडु जैसे जो राज्य धर्म के बजाये वैज्ञानिक सोच को प्राथमिकता देते हों वहां की शिक्षा व आर्थिक सम्पन्नता का स्तर देखकर तो ऑंखें खोलनी ही चाहिए। और यह स्थिति यह सोचने के लिये भी काफ़ी है कि आख़िर सत्ता के लिये धार्मिक परम्परायें सर्वोपरि हैं या संविधान की रक्षा ?