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इन राज्यों में हिंदी के खिलाफ विरोध

Admin2
5 May 2022 3:53 AM GMT
इन राज्यों में हिंदी के खिलाफ विरोध
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क : गृहमंत्री अमित शाह ने हाल ही में कहा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का समय आ गया है। अंग्रेजी छोड़ हिंदी में ही बात करने पर उन्होंने जोर दिया। ​इस पर विरोध के स्वर फिर उठने लगे,

जिसने इस सवाल को जन्म दिया कि क्या हिंदी राष्ट्रभाषा बन पाएगी? हिंदी भाषा से जुड़े विवाद को गहराई से जानें, इससे ये जान लेते हैं कि इस पर ताजा विवाद क्या है। दरअसल, पिछले दिनों एक दक्षिण भारतीय फिल्म कलाकार ने हिंदी भाषा पर उंगली उठाते हुए कहा कि यह अब राष्ट्रभाषा नहीं रह गई है। उत्तर पूर्व के राज्यों में हिंदी की पढ़ाई के खिलाफ गोलबंदी शुरू हो गई है। स्थानीय भाषाओं को देवनागरी में लिपिबद्ध किये जाने और हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य किये जाने के खिलाफ त्रिपुरा, असम, मणिपुर, मिज़ोरम और अरुणाचल में विरोध किया जा रहा है।
त्रिपुरा
त्रिपुरा में हाल ही में 56 आदिवासी संगठनों के एक समूह ने राज्य के अधिकांश जनजातियों की भाषा "कोकबोरोक" की लिपि को देवनागरी में पेश किए जाने का विरोध किया है। "कोकबोरोक चोबा के लिए रोमन लिपि" (आरएसकेसी) नामक संगठन ने संसदीय राजभाषा समिति की 37वीं बैठक में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Union Home Minister Amit Shah) की टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने टिप्पणी की थी कि पूर्वोत्तर के नौ आदिवासी समुदायों ने अपनी बोलियों की लिपियों को देवनागरी में बदल दिया है, और पूर्वोत्तर के सभी आठ राज्यों ने 10वीं कक्षा तक के स्कूलों में हिंदी अनिवार्य करने पर सहमति जताई है। इन टिप्पणियों के कारण क्षेत्र के कई राज्यों में विरोध प्रदर्शन हुए हैं।
कोकबोरोक को 1979 में त्रिपुरा की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी गई थी। अब इसे 22 डिग्री कॉलेजों के साथ-साथ त्रिपुरा केंद्रीय विश्वविद्यालय में बंगाली और रोमन लिपियों का उपयोग करके पढ़ाया जाता है। इसकी स्क्रिप्ट को लेकर बहस कई दशक पुरानी है। त्रिपुरा के पूर्व विधायक श्यामा चरण (Former Tripura MLA Shyama Charan) और भाषाविद् पबित्रा सरकार के नेतृत्व में दो आयोगों का गठन किया गया था जबकि पूर्ववर्ती वाम मोर्चा सरकार ने बंगाली लिपि को प्राथमिकता दी। आरएसकेसी का कहना है कि दोनों आयोगों ने पाया कि अधिकांश आदिवासी लोग रोमन लिपि के पक्ष में हैं। आरएसकेसी ने कहा कि वह हिंदी या देवनागरी के खिलाफ नहीं है, लेकिन वह देवनागरी या हिंदी जबरन थोपने का कड़ा विरोध करता है।
मिजोरम
मिज़ो भाषा या मिज़ो तौंग चीन-तिब्बत भाषाई ग्रुप से संबंधित है। औपनिवेशिक शासन के दौरान, ईसाई मिशनरियों रेवरेंड्स जे एच लोरेन और एफ डब्ल्यू सैविज ने लुशाई हिल्स (अब मिजोरम) का दौरा किया और रोमन लिपि के आधार पर 1894 में मिजो वर्णमाला की शुरुआत की।
मिज़ो लिपि को 'ए ओ बी' कहा जाता है। यह लंबे समय से मिज़ो स्क्रिप्ट है। मिजोरम के सबसे बड़े छात्र संगठन मिजोजिरलाई पावल (एमजेडपी) ने कहा है कि हम इस पर हिंदी लिपि थोपना स्वीकार नहीं करेंगे।
मणिपुर
मणिपुर की मैतेई मायेक या मणिपुरी लिपि 2,000 साल पुरानी है। इसकी लिपि को मणिपुर सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है, और मणिपुरी संविधान की 8वीं अनुसूची में सूचीबद्ध 22 भाषाओं में से एक है। 25 अप्रैल को, मणिपुर के छह छात्र संगठनों ने अमित शाह (Amit Shah) के प्रस्तावों के विरोध में एक सार्वजनिक सम्मेलन का आयोजन किया। इसने मणिपुर में दसवीं कक्षा तक हिंदी को अनिवार्य विषय के रूप में स्वीकार करने के खिलाफ प्रस्ताव पास किया है। संगठन का कहना है कि हिंदी थोपने का मतलब होगा अन्य भाषाओं और लिपियों को खारिज करना। इससे छात्रों पर अतिरिक्त दबाव पड़ सकता है और स्थानीय भाषा के विकास में बाधा आ सकती है।
असम
असमिया और बोडो, दोनों आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध हैं। असमिया अपनी खुद की एक प्राचीन लिपि का उपयोग होता है जबकि बोडो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। असम में दर्जनों अन्य देशी भाषाएं हैं, उनमें से कई बिना लिपि के हैं। कार्बी, मिसिंग और तिवा ज्यादातर रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, जबकि राभा आमतौर पर असमिया लिपि में लिखी जाती है। ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (All Assam Students Union) ने कहा कि असम में छात्र वैसे भी कक्षा 8 तक हिंदी पढ़ रहे हैं। और इसे आगे बढ़ाने का कोई मतलब नहीं है। सरकार को इस फैसले को रद्द कर देना चाहिए।
तमिलनाडु में हिंदी को लेकर विरोध 1937 से ही रहा, जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सरकार ने मद्रास प्रांत में हिंदी को लाने का समर्थन किया था पर द्रविड़ कषगम (डीके) ने इसका विरोध किया था। लेकिन 1965 में जब शास्त्रीजी ने इस पर फैसला किया तो हिंसक प्रदर्शन हुए। इसे देखते हुए कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने लचीला रूख दिखाया और ऐलान किया गया कि राज्य अपने यहां होने वाले सरकारी कामकाज के लिए कोई भी भाषा चुन सकता है। फैसले में कहा गया कि केंद्रीय स्तर पर हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल किया जाएगा और इस तरह हिंदी कड़े विरोध के बाद देश की सिर्फ राजभाषा बनकर ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई।
विशेषज्ञों का कहना है कि विरोध प्रदर्शन इसलिए किया जाता रहा है कि यह इसके बिना हिंदी को संरक्षण देने वाले लोग मज़बूत हो जाते। दरअसल, तमिल अपनी भाषाई पहचान को अन्य लोगों की तुलना में अधिक गंभीरता से लेते हैं। ​तमिल भाषा और संस्कृति से प्यार करने वाले ये लोग थोपी गई भाषा पर मुखर हो उठते हैं।
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