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सामाजिक क्रांति के अगदूत पद्म विभूषण डॉ बिन्देश्वर पाठक

Nilmani Pal
4 Sep 2023 5:05 AM GMT
सामाजिक क्रांति के अगदूत पद्म विभूषण डॉ बिन्देश्वर पाठक
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आर. के. सिन्हा

बात 1968-1969 की है। मैं उन दिनों पटना के अंग्रेजी दैनिक सर्चलाईट और हिन्दी दैनिक के प्रदीप में दिवभाषीय कार्यालय संवाददाता था। पटना के गर्दनीबाग मुहल्ले के रोड नं0 4 ए के क्वाटर नं0-15 में अपने पिताजी के साथ उनके सरकारी आवास में रहता था। प्रतिदिन सुबह 10 बजे के आसपास पिताजी द्वारा टूटी-फूटी हालत में दी गई साइकिल से कार्यालय जाता था, क्योंकि 11 बजे प्रदीप के संपादक जी की और 11.30 बजे सर्चलाईट के सम्पादक जी की एडिटोरिएल बैठक होती थी। एक दिन मैं सुबह 10 से 10.30 बजे के बीच में जल्दी -जल्दी साइकिल का पैडल मारता हुआ सर्चलाइट प्रेस की ओर चला जा रहा था। रोड नं0-1 के रेलवे फाटक के पास एक बुलंद आवाज सुनाई पड़ी। “पहले इधर आइये। इधर आइये। मेरे साथ एक कप चाय पीकर जाइयेगा।” मैंने पलट कर देखा तो गर्दनीबाग थाने के इंस्पेक्टर श्री पन्ना लाल मेहरा जी एक नं0 फाटक के बगल वाली इंस्पेक्टर क्वार्टर के बाहर बैठकर जाड़े की धूप का आनन्द लेते हुए अपनी पोर्टेबुल टाईपराइटर पर फटाफट कुछ टाईप किये जा रहे थे। शायद किसी केस का सुपरविजन रिपोर्ट टाईप कर रहे थे। मैंने जब अपनी साइकिल उनके क्वार्टर के गेट के अन्दर लगायी तो उन्होंने कहा कि “क्या श्रीमान् जी आप इसी तरह रोज चले जाते रहिएगा। यहां रूककर एक कप चाय पीकर तो जाया करिये।” उन्होंने मैं चाय भी पिलाऊंगा और आपको खबर देते रहूँगा ।

उन्होंने आवाज लगाई “पाठक जी। अरे ओ, पाठक जी। मैंने सड़क के उस पार में देखा कि झोपड़ीनुमा चाय की दूकान से एक आदमी झांका। मेहरा जी ने कहा कि “दो गिलास बढ़िया चाय भेजो।“ फिर हमलोग बातचीत में लग गये। तीन-चार मिनट के बाद एक नवयुवक लाल गमझा लपेटे हुए और एक बनियान पहने हुए दो गिलास चाय लेकर आया और उनके सामने टेबुल पर रख दिया। जब मैंने उनका चेहरा देखा तो लगा कि ये तो बिन्देश्वर पाठक हैं। वे उस समय वे डा0 बिन्देश्वर नहीं थे। उन्हें कोई नहीं जानता था। मैंने उन्हें इसलिए पहचान लिया था कि वे मेरे बड़े भाई के साथ पढ़ते थे और कभी-कभी मेरे क्वाटर में आते रहते थे । मैंने उनसें पूछा कि “आप यहां?” उन्होंने कहा कि “हाँ यह होटल मेरे गावं के चाचा जी की है। कभी-कभी यहां मैं आता रहता हूँ और चाचा जी की मदद कर देता हूँ । यहां नहाने-धोने की सुविधा होती है। फिर यहीं से तैयार होकर कालेज चला जाता हूँ।” मैं यह जानकारी के रूप में बता रहा हूँ कि किसी व्यक्तित्व का कैसा परख हैं। पाठक जी दूकान पर चाचा जी की चाय बेचते थे और समोसा, बंगला निमकी और गुलाबजामुन भी वहां बहुत बढ़िया बनता था । इसी कारण से पाठक जी की दूकान पर हमलोगों का आना-जाना नियमित था। कभी-कभी मैं आज भी जब उस इलाके से गुजरता हूँ तो पाठक जी की दूकान और मेहरा जी का याददास्त सामने आ जाती है। अतः मैं अपने कुछ संस्मरण झलकियों के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ I

इसके कूछ महीनों के बाद “सीमांत गांधी” के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान पटना आये तो गांधी मैदान के उत्तर पूर्व कोने पर अनुग्रह नारायण सामाजिक शोध संस्थान से सटे पूर्व गांधी शांति प्रतिष्ठान में ठहरे। “प्रदीप” के संपादक राम सिंह भारतीय जी ने मेरी यहां डयूटी लगाई कि मैं दोपहर के सम्पादकीय बैठक के तुरंत बाद प्रतिदिन गांधी शांति प्रतिष्ठान जाया करूँ और खान अब्दुल गफ्फार खान के पास आधे-एक घंटे बैठ कर इनकी जो भी संस्मरण निकाल सकूँ या दिनभर कोई विशेष व्यक्ति उनसे मिलने आये तो उनका खान साहब से जो भी वार्तालाप हो उसका समाचार बना सकूँ । मैं यह काम प्रतिदिन करूँ । मैं गांधी प्रतिष्ठान जाने लगा और धीरे-धीरे मेरी खान साहब से टीयूनिंग भी अच्छी बन गयी। खान साहब के पास जब भी जाता और प्रणाम करता तो बैठक के बीच में ही अपनी लम्बी कमीज की जब से कुछ डाई फ्रुट्स निकालकर मेरे हाथ में रख देते। एक दिन मैं जब खान साहब से मिलने पहुंचा और अपनी साइकिल को खड़ा कर ताला लगा ही रहा था कि मुझे बिन्देश्वर पाठक जी मिल गये। मैंने पूछा “क्या हाल है पाठक जी।” उन्होंने कहा कि भाई मैं बड़ी परेशानी में हूँ ।” मैंने कहा, “आपकी परेशानी क्या है और मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ ?” बिन्देश्वर जी ने कहा कि आप तो जान ही रहे हैं कि मैं सुलभ शौचालय संस्थान की स्थापना की है और कम खर्चे में शौचालय कैसे बनाया जा सकता है इस पर एक प्रदर्शनी लगाना चाहता हूँ। अगर उस प्रदर्शनी का उद्घाटन खान साहब कर देंगे तो उसकी प्रेस कभरेज अच्छी हो जायेगी। उससे हमारी संस्था को बड़ा लाभ और बल मिलेगा।” मैंने पूछा आप खान साहब से मिले? पाठक जी ने कहा, “खान साहब के लोग मिलने नहीं दे रहे हैं। खान साहब जय प्रकाश नारायण के घर को छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाते हैं।” मैंने कहा कि “आप मेरे साथ चलिये, मैं आपको खान साहब से मिलवाता हूँ ।” फिर मैं उन्हें लेकर खान साहब से मिलने अंदर गया। चूँकि, मैं रोज वहां जाता था इसलिए सभी लोग मुझे जानते थे। औपचारिक नमस्कार के बाद जब वार्ता शुरू हुई तो मैंने कहा कि बिन्देश्वर जी अच्छे गांधीवादी कार्यकर्ता हैं। स्वच्छता के लिए काम कर रहे हैं और एक सुलभ शौचालय की स्थापना की है। स्वच्छता और सिर पर मैला ढोने की प्रथा को रोकने के लिए काम को आगे बढाने के लिए एक प्रदर्शनी लगाना चाहते हैं और इसका उद्घाटन आपसे करवाना चाहते हैं। सीमांत गांधी ने कहा कि “क्या यह संभव है कि प्रदर्शनी गांधी शांति प्रतिष्ठान के अंदर में ही लग जायेगी। क्या आप रजी अहमद जी से मिले हैं?” फिर उन्होंने संस्थान के सचिव रजी अहमद जी को बुलवाया और कहा कि “पाठक जी एक सुलभ शौचालय की प्रदर्शनी लगवाना चाहते हैं तो इसमें आपको क्या दिक्कत है। गांधी जी तो ऐसा ही चाहते थे।” वे खड़े रहे। फिर उन्होंने कहा कि “यहां गंदगी नहीं फैलनी चाहिए तो कोई दिक्कत नहीं है।” पाठक जी ने कहा कि यहां कोई गंदगी नहीं फैलेगी। शौचालय हम 500 से 800 रूपये में कई तरह के शौचालय बना देंगे। “बात तय हो गयी और सुलभ शौचालय की पहली प्रदर्शनी गांधी शांति प्रतिष्ठान, गांधी मैदान में लगी और उसका उद्घाटन सीमांत गाँधी द्वारा हो गया। अच्छा प्रेस कभरेज हुआ। इस तरह से बिन्देश्वर जी का काम शुरू हो गया।

कुछ दिनों के बाद जब बिन्देश्वर जी मिले तो उन्होंने खुशखबरी दी कि आरा नगर निगम में दो शौचालय बनाने का आर्डर मिला है। उन्होंने कहा कि लेकिन, इसमें दिक्कत यह है कि “शौचालय नगर निगम द्वारा बन जाने के बाद इसका दिनप्रति दिन साफ सफाई का कार्य कैसे होगा। यह तो संस्थान को करना पड़ेगा और पैसा कहां से आयेगा?” मैंने कहा कि “आपको यदि यह एक मौका मिल रहा है तो उसे पकड़ लो। ऐसा करो एक दो लड़कों को पकड़ो जो नियमित सफाई करें और हर व्यक्ति जो शौचालय जाये उसको कहो कि वह आठ आना बक्से में डाल दिया करे। बक्से में पैसा रहेगा I आप महीने में आकर एक बार बक्सा खोलकर जो भी पैसा हो उसका आधा सफाई कर्मी में बांट दें और आधा संस्थान के काम में लगायें।” उन्होंने कहा कि यह आइडिया अच्छा है। कुछ दिन बाद जब मिले तो मैंने पूछा कैसा चल रहा है आरा नगर निगम का काम? आठ आने वाली योजना जचीं की नहीं।” उन्होंने का कि अब तो कई जगह काम चल रहा है और यह योजना बहुत अच्छी तरह से जचीं। अब तो इस कार्य में एक रूपया भी देने के लिए लोग तैयार हो गये हैं। अब वहां एक स्थायी कर्मचारी भी रख लिया है। मैंने कहा कि पटना नगर निगम में भी यह काम शुरू करो। वहां हमारे चाचा कृष्ण नन्दन सहाय, महापौर हैं। उन्होंने कहा कि एक दिन उनसे मिलने चलना है। मैंने कहा कि जब आप कहें चलेंगे। दिक्कत की कोई बात नहीं है। एक दिन मैंने उन्हें अपने अखबार के कार्यालय में बुलाया। एक ही साइकिल पर बैठकर हम दोनों विशालकाय सहाय सदन पहुंच गये और कृष्ण नन्दन सहाय चाचा जी से मिले और प्रणाम कर उन्हें बताया कि बिन्देश्वर पाठक जी भी आप ही के जिले वैशाली के रहने वाले हैं और अच्छा काम कर रहे हैं, सुलभ शौचालय के लिए। मैं समझता हूँ कि यदि यह काम पटना नगर निगम में बड़े पैमाने पर हो तो अच्छा रहेगा। पहली ही मिटिंग में चाचा कृष्ण नन्दन सहाय जी को यह बात जंच गयी और पटना नगर निगम में कार्य करने की सहमति दे दी। पटना गांधी मैदान के दक्षिणी छोर रिजर्व बैंक आफ इंडिया के ठीक बगल में एक बड़ा सुलभ शौचालय का काम्प्लेक्स स्थापित हो गया।

1972 के विधान सभा का चुनाव संपन्न हो गया था और नये विधान सभा का सत्र भी शुरू हो गया था। प्रतिदिन मैं विधान सभा की रिर्पोटिंग के लिए वहां जाया करता था। चूँकि, मेरे पिताजी विधान सभा में ही सहायक सचिव थे। इसलिए मुझे विधान सभा आने जाने और वहां रिर्पोटिंग करने में काफी सुविधा होती थी। जब भी विधान सभा सचिवालय में किसी जानकारी की जरूरत होती तो पिताजी आसानी से उपलब्ध करवा देते। जब भी खाने पीने की कमी होती तो पिताजी तत्काल विधान सभा के कैंटिन से मनपसंद नास्ता पानी मंगवा देते। एक दिन पिताजी के चैम्बर में बिन्देश्वर पाठक जी वैशाली जिले के लालगंज क्षेत्र के विधायक भागदेव सिंह योगी जी के साथ आये। बड़ी-बड़ी मुछों वाले भागदेव सिंह योगी जी को मैं पहले से ही पहचानता था। वे सरकारी आश्वासन समिति के एक प्रमुख सदस्य थे और पिताजी के कार्यों में “आश्वासन समिति” का कार्य शामिल था । योगी जी के साथ बिन्देश्वर जी को देख कर मुझे आश्चर्य सा हुआ जिसे बिन्देश्वर जी ने तुरंत भांप लिया और कहा कि “योगी जी सुलभ के अध्यक्ष है।” मैंने उनके कान में फुसफुसा कर कहा कि फिर आप क्या हैं। बिन्देश्वर जी ने मेरे हाथ को दबाकर कहा कि बाद में बात करूगा। बाद में उन्होंने बताया कि मैं सचिव के रूप में सारे कार्य करता रहूँगा I तो इस तरह सुलभ का कुछ दिन कार्य चला। जब सुलभ प्रचलित हो गया और भागदेव सिंह योगी जी विधायक नहीं रहे तब बिन्देश्वर जी सुलभ के अध्यक्ष बन गये। संस्था तो उनकी पहले से ही थी। अच्छे-अच्छे लोग सुलभ के साथ जुड़ते रहे जिससे संस्थान को फायदा हुआ । पाठक जी ने सुलभ को बिहार के बाहर अन्य राज्यों में भी फैलाना शुरू किया। वे बहुत भागदौड़ करते रहते थे, जिसके कारण अन्य राज्यों में सुलभ का विस्तार करने और उसके कार्य को देखरेख करने के लिए बिहार के ही किसी प्रमुख पुराने पत्रकार को या अवकाश प्राप्त पदाधिकारी को सुलभ का सलाहकार बनाकर उस राज्य के कामों की देखरेख में बैठा देते। बिन्देश्वर जी का प्रवास बहुत ज्यादा रहता था फिर भी सभी राज्यों में कार्य नियंत्रण करने मेंवे सक्षम थे। इस तरह से सुलभ का कार्यो का विस्तार हुआ और इसने एक महान समाजिक क्रांति का रूप ले लिया।

पटना के शेखपुरा में अवकाष प्राप्त आरक्षी महानिरीक्षक बी0 एन0 प्रसाद जी जिन्हें हम “बिरजू बाबू” कहते थे, का आवास था। बिरजू भैया के इस आवास के पीछे कुछ खाली जमीन में बिन्देश्वर जी ने एक प्रशिक्षण इंस्टीच्यूट खोला। यह प्रशिक्षण इंस्टीच्यूट उन महिलाओं के लिए था जो सिर पर मैला ढोने की प्रथा से मुक्त होकर स्वतंत्र तो हो गयी थीं। किन्तु, उनकी आजीविका भी तो चली गयी थी। ऐसी मुक्त महिलाओं और पुरुषों के स्वरोजगार के लिए तरह तरह के व्यवसायों का प्रशिक्षण जिसमें सिलाई, कढाई, बुनाई आदि कार्य सिखलाया जाता था। धीरे-धीरे इस तरह के प्रशिक्षण केन्द्र को हर राज्यों में खोला जाने लगा। डा0 बिन्देश्वर पाठक को 1991 में पद्म विभूषण से अलंकृत किया गया। उसके बाद डा0 पाठक ने सुलभ इन्टरनेशनल संस्थान की ओर से पालम हवाई अड्डे के पास महावीर इन्क्लेव में एक विशालकाय सुलभ परिसर की स्थापना की। इस परिसर में एक बहुत ही वृहत और विशद शौचालयों की प्रदर्शनी भी लगायी जिसे देखकर यह आभास हो उठता है कि किस प्रकार भारत में इस सामाजिक क्रांति के कारण सिर पर मैला ढोने की प्रथा का समूल अंत हुआ।

मेरी अंतिम मुलाकात बिन्देश्वर भाई से उनकी इसी महावीर इन्क्लेव में हुई। उनके परलोक गमन के मात्र 11 दिन पूर्व यानि 4 अगस्त को उन्होंने एक समारोह आयोजित किया था जिसमें जैविक उत्पादों विशेषकर परम्परागत अन्नों (मिलेट) के ऊपर मेरा व्याख्यान आयोजित किया था। जब मैं अपनी श्रीमती के साथ उस परिसर में पहुंचा तो वे स्वयं अपने वरिष्ठ पदाधिकारियों के साथ परिसर के मुख्य द्वार पर ही खड़े थे और पुष्प मालाओं और चादरों से मुझे लाद दिया।

मेरे व्याख्यान और कार्यक्रम की समाप्ति के बाद बातचीत में उन्होंने कहा कि “सिन्हा साहब, इस व्याख्यान से मेरा मन भरा नहीं है। एक बार आपको पूरे दिन के लिए आना होगा और इस विषय पर हमलोग मिलकर काम करेंगे।” किन्तु, दुर्भाग्य से वह दिन आया न। जब उनका देहावसान हुआ तो मैं अमेरिका के शिकागो में सर्व धर्म सम्मेलन में भाग ले रहा था।

आज शाम कुछ देर पहले दिल्ली के चिन्मय मिशन हॉल में उनकी शोक सभा समाप्त हुई है जिसमें मैं सपत्नीक उपस्थित था। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने भाषण में उन्हें “सामाजिक क्रांति का अग्रदूत कहा।” ऐसे युग पुरुष युगों युगों तक याद किये जायेंगे।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं पूर्व राज्य सभा सांसद हैं)

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