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अब देश के हर गांव में कानूनी मदद का ढांचा मौजूद : प्रधान संपादक से साक्षात्कार में न्यायमूर्ति उमेश ललित ने राखी अपनी राय

Renuka Sahu
14 Nov 2021 3:55 AM GMT
अब देश के हर गांव में कानूनी मदद का ढांचा मौजूद : प्रधान संपादक से साक्षात्कार में न्यायमूर्ति उमेश ललित ने राखी अपनी राय
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फाइल फोटो 

कानूनी सहायता देश के हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, उसे यह मिलनी ही चाहिए। यह कहना है सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित का

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। कानूनी सहायता देश के हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, उसे यह मिलनी ही चाहिए। यह कहना है सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित का। न्यायमूर्ति ललित जून 2021 से राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नाल्सा) के कार्यकारी अध्यक्ष हैं और देश के अगले मुख्य न्यायाधीश के तौर पर अगस्त 2022 में शपथ लेंगे। नाल्सा के तहत इस तरह की दर्जनों कोशिश हो रही हैं कि सुदूर गांव का आखिरी आदमी भी कानूनी मदद से वंचित नहीं रहना चाहिए। पेश है प्रधान संपादक शशि शेखर और विधि संवाददाता श्यामसुमन की उनसे विस्तृत बातचीत के प्रमुख अंश:-

आप किस मकसद और प्रेरणा के साथ कानूनी मदद को जरूरतमंद तक पहुंचाने के कार्य में जुटे हैं?
जब जून में मैं कानूनी सहायता का कार्यकारी चेयरमैन बना तो मैंने देखा कि कोविड-19 के प्रतिबंधों के कारण शारीरिक रूप से संपर्क करना संभव नहीं था। जो भी कानूनी मदद दी जा रही थी वह व्यक्ति के गिरफ्तार होने के बाद ही दी जा रही थी। यह कुल कानूनी सहायता का महज एक प्रतिशत था। मैंने सभी जिला, राज्य और ताल्लुक स्तर के कानूनी प्राधिकारों, समितियों के चैयरमैन की बैठक बुलाई। यह तय किया गया कि यदि कानूनी सहायता का ब्योरा प्राथमिकी में लिखवा दिया जाए तो अभियुक्त और संदिग्ध को थाने में शुरुआत से ही कानूनी मदद मिल सकती है।
हमने गृह मंत्रालय से संपर्क किया और वह राजी हो गया। आज हर एफआईआर में कानूनी सहायता कैसे और कहां से लें इसका ब्योरा, फोन नंबर और दफ्तर का पता सब कुछ लिखा जाने लगा है। इसके अलावा हर थाने के प्रवेश द्वार और अंदर एक बोर्ड लगाया गया है जहां कानूनी मदद लेने की जानकारी मौजूद है।
देखिए, हमने अध्ययन किया और देखा कि ग्रामीण क्षेत्र मनीआर्डर पर चल रहे हैं जो शहरों में काम करने गए उनके परिजन भेजते हैं। हमने देखा कि डाकघर के जरिये यह काम किया जा सकता है। इसे लेकर डाक और टेलीग्राफ विभाग और केंद्रीय गृह मंत्रालय से संपर्क किया गया और मंत्रालय इसके लिए तैयार हो गए। अब थाने की तरह हर डाकघर में कानूनी सहायता के बोर्ड लगाए गए हैं।
आपराधिक मामलों में अभियुक्त को 24 घंटे के अंदर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है, क्या वहां से उसे कानूनी सहायता मिलनी शुरू हो गई है, क्योंकि कानूनी सहायता का प्रावधान ट्रायल की अवस्था से शुरू होता है?
बिल्कुल सही है। हमने इस मुद्दे पर भी ध्यान दिया और सभी हाईकोर्ट के साथ त्वरित बैठक की। हाईकोर्ट इस बात के लिए सहमत हुए और हर मजिस्ट्रेट को आवश्यक निर्देश दिए गए कि पेश किए गए व्यक्ति को पहले दिन से ही कानूनी सहायता मिल जाए। हमने यहां तक कहा कि यदि वकील देने में देरी हो रही है तो मामले को दोपहर के भोजन तक स्थगित कर दिया जाए और उसके बाद वकील बुलाकर उसे कानूनी सहायता दी जाए।
आपराधिक मामलों में कानूनी सहायता मुहैया करवा दी गई पर अन्य सामाजिक मुद्दों पर यह कैसे दी जा रही है?
बिल्कुल, आपराधिक मामलों के साथ कानूनी सहायता का अंत नहीं था। यह हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण था क्योंकि आपने देखा कि आपराधिक मामलों में जैसे एक फीसदी व्यक्ति कानूनी सहायता ले रहे थे तो इसका यह मतलब नहीं था कि 99 फीसदी को कानूनी सहायता नहीं चाहिए। इसका सीधा कारण था कि वह इसके लिए जागरूक नहीं थे। इसके बाद हमने तुरंत बैठकें कीं। हमने देखा कि अन्य सामाजिक योजनाएं जैसे मुफ्त शिक्षा, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना के बारे में लोग जागरूक नहीं है। उन्हें जागरूक करने और बच्चों को स्कूल तक लाने में अर्ध-न्यायिक सहायक(पैरालीगल) की मदद दी जाने लगी। यह वही सहायक हैं जो थाने में भी मदद देते हैं।
लोक अदालत भी कानूनी सहायता का हिस्सा है इसे लेकर जागरूकता का बेहद अभाव है इसे आप कैसे देखते हैं?
बहुत सही बात है, हमने तय किया कि लोक अदालत के बारे में एक माह पूर्व से ही जागरूकता अभियान शुरू किया जाए। अब तक लोग जिस दिन लोक अदालत होती थी उसी दिन वहां पहुंचते थे। ऐसे में उनके केस तय नहीं हो पाते थे क्योंकि इसके लिए समझौते आदि होने में समय लगता है। हमने अर्ध-न्यायिक सहायकों को सक्रिय किया जिन्होंने डिजिटल माध्यम से दोनों पक्षों से संपर्क किया, उन्हें समझौते के लिए तैयार किया और नतीजा यह रहा कि 11 जुलाई 2021 को हुई देशव्यापी लोक अदालत में 29 लाख मुकदमे निपटाए गए, जबकि 2020 में हुई लोक अदालत में महज 14 लाख केस ही निस्तारित किए गए थे। यह दोगुने से भी ज्यादा था और यह लॉकडाउन के दौरान था। सितंबर में लोक अदालत लगाई गई जिसमें 42 लाख से ज्यादा मुकदमे निस्तारित किए गए।
जेलों में बंद कैदी मानसिक संताप से गुजरते हैं क्योंकि कानूनी लड़ाई के दौरान जेल में रहते हुए वे अवसाद में आ जाते हैं। उन्हें कैसे मदद मिल रही है?
जुलाई में मैंने हैदराबाद की चेरलापल्ली और गुड़गांव जेल का दौरा किया। सदस्य सचिव पुनीत सहगल को बुलंदशहर जेल भेजा। हमने जेलों में बंद कैदियों की संख्या, जेलों की क्षमता और वहां कि अन्य स्थितियों का जायजा लिया और इसी प्रकार सभी जेलों से रिपोर्ट मांगी। 8 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दिन से प्रेरणा लेते हुए हमने 8 अगस्त को विजन स्टेटमेंट जारी किया। इसमें हमने सभी हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि लोगों को गुणवत्ता वाली कानूनी सहायता दी जाए, जिससे इसमें विश्वास पैदा हो। वकील सक्षम हो जिससे उनकी क्षमता लोगों में विश्वास का संचार करे।
लेकिन जागरूकता अभियान कोर्ट और अर्ध-न्यायिक सहायकों तक ही सीमित है जबकि कानून से जुड़ेसंस्थान जैसे लॉ कॉलेज, न्यायिक अकादमियां आदि भी हैं?
इस मुद्दे पर हमने बहुत अहम काम किया है। मेडिकल और डेंटल कोर्स की तरह से किसी कोर्स में इंटर्नशिप नहीं है। हमने बार काउंिसल ऑॅफ इंडिया से बात की और कहा कि हर लॉ कॉलेज अपने आस-पास के तीन ताल्लुकों को गोद ले और कानून पढ़ने वाले चौथे और अंतिम वर्ष के छात्रों को वहां नियमित रूप से भेजे। इससे उनमें कानूनी ज्ञान के साथ सामाजिक सेवा का भाव भी आएगा और आने वाले समय में जब वे पेशे में आएंगे तो उन्हें एक बेहतरीन कानूनी सहायता पैनल वकील नियुक्त किया जा सकेगा। वे सिर्फ पैसा कमाने की मशीन न बनें बल्कि समाज सेवा भी करें। अधिकतर लॉ कॉलेज सहमत हो गए और बार काउंसिल ने हमें ऐसे कॉलेजों की सूची भी दी है। छात्रों के लिए यह कार्यक्रम बहुत जल्द शुरू होने वाला है।
इसके अलावा 'आजादी के अमृत महोत्सव' पर हमें सात हफ्ते मिले हैं जो 14 नवंबर को समाप्त हो जाएंगे। हम इस दौरान कानूनी जागरूकता बढ़ाने के लिए हर कानूनी सहायता समिति, अर्ध-न्यायिक सहायक, आशावर्कर, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और छात्र सबको लेकर चल रहे हैं। इस का नतीजा यह है कि आज देश का हर एक गांव कानूनी सेवा कार्यकर्ता से जुड़ा है। मैंने व्यक्तिगत रूप से 13 राज्यों का दौरा किया है, उत्तर में लद्दाख, दक्षिण में कन्याकुमारी, पश्चिम में कच्छ और पूर्व में त्रिपुरा व मिजोरम, इसके अलावा केंद्र में वाराणसी, सांगरेड्डी, बीड, गुलबर्गा, गोवा, राजस्थान आदि।
ग्रामीण महिलाओं और बच्चों के लिए क्या पहल है?
ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाएं जो घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं उन्हें महिला अर्ध-न्यायिक सहायक कानूनी सहायता दे रहे हैं। जहां तक बच्चों का सवाल है तो उनके लिए गुणवत्ता वाली शिक्षा देने के लिए, जो उनका शिक्षा के अधिकार कानून के तहत उनका हक भी है, प्रयास किया जा रहा है। साथ ही कोविड-19 काल के दौरान स्कूलों से बाहर हुए बच्चों की मदद भी जा रही है जिससे उनकी शिक्षा बाधित न हो। विशेष जरूरत वाले बच्चों के लिए भी अर्ध-न्यायिक सहायक प्रयास कर रहे हैं।
कानूनी सहायता के लिए कोई स्थायी कार्यालय नहीं होना चाहिए जैसा हर जिले में सरकारी वकील का होता है?
बिल्कुल इसके लिए प्रस्ताव किया गया है कि हर जिले में कानूनी सहायता का स्थायी दफ्तर बनाया जाए जिसमें एक कानूनी सहायता प्रमुख होगा जो वरिष्ठ वकील होगा, उसकी सहायता करने के लिए 15 साल की प्रैक्टिस वाले वकील होंगे।
इसी तर्ज पर स्थायी लोक अदालतें नहीं बनाई जा सकतीं?
बिल्कुल, इसके लिए काम किया जा रहा है और कुछ हद तक हुआ भी है जिसमें मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता की व्यवस्था की गई है। यानी मुकदमे से पूर्व समझौते की संभावनाएं देखने के लिए बीच-बचाव करवाया जाता है। इस बारे में लखनऊ और इलाहाबाद में दो सेमिनार किए गए, सभी जज स्थायी लोक अदालत के पक्ष में थे।
यह ठीक है लेकिन क्या जिला जजों पर कानूनी सहायता देने के कर्तव्य पर उनका उत्तरदायित्व तय किया जाएगा?
जैसा कि मैंने कहा कि यदि कोर्ट से कानूनी मदद दी जा रही है तो आप वकील पर निर्भर हैं। यह वकील अच्छी गुणवत्ता वाला होना चाहिए, लेकिन इसके लिए आपको उसे अच्छा पैसा देना होगा, उसे अच्छी सुविधाएं, जैसे लीगल बुक- एआईआर (सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की किताब) देने होंगे। इस दिशा में हमने एआईआर से बात की है और वह हर जिला कानूनी सहायता क्लीनिक में एआईआर की ऑनलाइन कानूनी सहायता लाइब्रेरी उपलब्ध कराने को सहमत हो गए हैं।
लेकिन कानूनी सहायता लेना एक जटिल कार्य है क्योंकि कोई व्यक्ति जब जेल में है तो उसका काम वकील कैसे करेगा। क्या उसकी कागजी कार्यवाही करने के लिए कोई व्यवस्था है। वहीं किसी जगह पर कैदी बहुत ज्यादा हैं और कहीं बिल्कुल कम, इसके लिए क्या व्यवस्था है?
बिल्कुल जेलों में यह व्यवस्था है। मैं आपको गुड़गांव और नागपुर जेल का उदाहरण देता हूं वहां एक ऑनलाइन व्यवस्था बनाई गई है जहां कैदी यदि अपना अंगूठा लगाएगा तो उसका पूरा विवरण स्क्रीन पर आ जाएगा। वह कब से जेल में है, अगली पेशी कब है, वकील कौन है, उसे क्या करना चाहिए आदि। यह सिस्टम हर जेल में बना हुआ है। इससे वह अपने परिवार और वकील से भी बात कर सकता है जो उसका केस तैयार करने में मदद करेंगे।
आश्चर्यचकित करने वाला कोई व्यक्तिगत अनुभव?
हां, ऐसा हुआ है, जब में गुड़गांव जेल गया तो वहां एक ऑनलाइन सिस्टम देखा जिसमें कैदियों का पूरा ब्योरा आ जाता था। मैंने जेलर से पूछा कि यह किसने बनाया। तो मुझे आश्चर्य हुआ वह सिस्टम जेल में बंद एक कैदी ने ही बनाया था। बाद में हरियाणा सरकार ने इस सिस्टम को पूरे राज्य की जेलों में लागू कर दिया।
कैदियों की याचिकाएं कोर्ट में भेजने और उन्हें लीगल एड दिलाने में जेल प्राधिकरण कितने संवेदनशील हैं?
जेल प्राधिकरण बहुत ही संवेदनशील हैं, जेलर काफी पहल कर रहे हैं और कैदियों की मदद करने में जेलरों की प्रतिक्रिया बहुत ही सकारात्मक हैं।
आप कानूनी सहायता पर अब तक हुए कार्यों से संतुष्ट हैं?
हां, बिल्कुल मैं बहुत संतुष्ट हूं। कोविड-19 काल में हम थोड़ा चिंतित थे कि ऑनलाइन प्रणाली में संपर्क कैसे संभव होगा, लेकिन जब पहल की गई तो परिणाम बहुत ही सकारात्मक निकले, हर व्यक्ति ने बढ़ चढ़ कर ऑनलाइन तकनीक का इस्तेमाल किया और उसके नतीजे आए। 14 नवंबर को हम सब मिलकर राष्ट्रपति की मौजूदगी में इस उपलब्धि पर समारोह का आयोजन करेंगे।


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