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नेहरू ने देश के एकीकरण का मार्ग किया प्रशस्त

jantaserishta.com
13 Nov 2022 8:04 AM GMT
नेहरू ने देश के एकीकरण का मार्ग किया प्रशस्त
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नई दिल्ली(आईएएनएस): जवाहरलाल नेहरू के लिए यह सोचना मुमकिन नहीं था कि रियासतें स्वतंत्र भारत की सीमा से बाहर रहेंगी। वह भारतीय रियासतों के राजाओं को ब्रिटिश शासन के साथ संबधों के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। उन्हें किसी बाहरी सत्ता के प्रति निष्ठा रखने या बिटिश शासन के साथ कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती थी, क्योंकि इससे स्वतंत्र भारत की आंतरिक सुरक्षा खतरे में पड़ जाती और राष्ट्र का विकास भी प्रभावित हो सकता था। देश के नेहरूवादी आदर्श की आधारशिला यह थी कि एकीकरण की प्रक्रिया शुरू होने पर रियासतों की सांस्कृतिक और भाषाई निकटता को एक दूसरे के साथ या आसपास की इकाइयों के साथ सबसे ऊपर रखा जाएगा। नेहरू ब्रिटिश राजशाही व्यवस्था और भारत में चैंबर ऑफ प्रिंसेस के साथ इसके संबंधों से घृणा करते थे।

उनके उपनिवेश-विरोधी विचारों को इंग्लैंड में बिताए उनके समय से आकार मिला, जहां वे फेबियन सोसाइटी के संपर्क में आए। उनकी सोच फैबियन समाजवादी थी। देश की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने फेबियन समाजवाद की तर्ज पर भारत के लिए आर्थिक नीति तैयार की। फेबियन समाजवाद का नेहरू पर इतना दूरगामी और स्पष्ट प्रभाव था कि उन्होंने भारत को एक ऐसी अर्थव्यवस्था की संकल्पना की, जिसमें उत्पादन के साधनों, विशेष रूप से भारी उद्योग जैसे इस्पात, दूरसंचार, परिवहन, बिजली उत्पादन, खनन और रियल एस्टेट आदि का स्वामित्व, संचालन और नियंत्रण राज्य के पास था। वास्तव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नेता व उनकी गुरु एनी बेसेंट भी एक फेबियन समाजवादी थीं।
जवाहरलाल नेहरू के जीवनी लेखक फ्रैंक मोरेस कहते हैं, धर्म पर जवाहरलाल के अपने विचार धुंधले थे, उनके निजी शिक्षक ब्रुक्स दृढ़ थियोसोफिस्ट थे, इसलिए उन्हें अपने शिष्य को अपने तरीके से प्रभावित करने में थोड़ी कठिनाई हुई। उन्होंने थियोसॉफी में उनकी रुचि पैदा की। 13 वर्ष की आयु में जवाहरलाल नेहरू ने थियोसोफिकल सोसायटी में शामिल होने का फैसला किया।
उनके पिता मोतीलाल भी सोसायटी के सदस्य थे। सोसायटी की संस्थापक ब्लावात्स्की ने भारत यात्रा के दौरान उन्हें इसके बारे में बताया। न्यूयॉर्क में 1875 में स्थापित सोसाइटी को 1882 में मद्रास में स्थानांतरित कर दिया गया। चार्ल्स ब्रैडलॉफ और जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की दोस्त एनी बेसेंट के भारत आगमन के साथ थियोसॉफी ने शहरी भारतीय बुद्धिजीवियों को अपनी तरफ आकर्षित करना शुरू किया। बेसेंट अपने समय के श्रेष्ठ वक्ताओं में से एक थीं। इलाहाबाद में उनके कुछ भाषणों को सुनने के बाद नेहरू मंत्रमुग्ध हो गए थे। लेकिन थियोसोफी के प्रति नेहरू का मोह लंबे समय तक नहीं चल सका।
नेहरू की जीवनी में मोरेस लिखते हैं कि कैम्ब्रिज के दिनों में नेहरू के मन में समाजवाद ने जड़ें जमाई, जब शॉ और वेब के फेबियनवाद ने उन्हें आकर्षित किया। बट्र्रेंड रसेल और जॉन मेनार्ड कीन्स के व्याख्यानों को उन्होंने सुना।
हालांकि लंदन में रहने के दौरान उनके विचारों में स्पष्टता नहीं आई थी। वह अब भी द्वंद में थे। हालांकि वह समाजवाद के प्रति आकर्षित थे, लेकिन दो राहे पर खड़े थे। अभी तक उनका कोई स्थापित सामाजिक, राजनीतिक या बौद्धिक विचार नहीं था।
नेहरू ने इंग्लैंड में जो कुछ भी पढ़ा और सुना, उसे और परिमार्जित किया और अपना फैबियन सोशलिस्ट मॉडल बनाया। उन्होंने राजशाही और उसके समर्थकों और चैंबर ऑफ प्रिंसेस का विरोध किया। उन्होंने कहा कि स्वतंत्र भारत में राजशाही का अस्तित्व नहीं रहेगा। राजाओं को जनता के प्रतिनिधियों को शासन सौंपना ही होगा। ये लोग जनता का भविष्य निर्धारित नहीं कर सकते थे।
ब्रिटिश सरकार ने दिसंबर 1933 में, दिल्ली के मुख्य आयुक्त को यह विचार करने के लिए कहा कि क्या ब्रिटिश राजशाही व देशी राजाओं की आलोचना करने भाषण के लिए नेहरू को गिरफ्तार किया जा सकता है। लेकिन अधिकारियों ने भाषण को आपत्तिजनक मानते हुए भी कहा कि मामले कोई दमदार केस नहीं बनता है। पुलिस को नेहरू के भाषणों पर नजर रखने के लिए कहा गया।
उसी माह कानपुर में ट्रेड यूनियन कांग्रेस में बोलते हुए नेहरू ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया। मामले को ब्रिटिश सरकार ने संज्ञान लिया। उन्हें लगने लगा कि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अब नेहरू के खिलाफ कार्रवाई का समय आ गया है।
आजादी के लिए छिड़ा आंदोलन ब्रिटिश शासन तक ही सीमित था। नेहरू ने रियासतों के लोगों से स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रवादी आंदोलन का हिस्सा बनने की अपील की। इस प्रकार 1927 में अखिल भारतीय राज्यों के पीपुल्स कांफ्रेंस का गठन किया गया।
1935 में नेहरू को कांफ्रेंस का अध्यक्ष बनाया गया था। उन्होंने लोगों की राजनीतिक सहभागिता बढ़ाने पर बल दिया। सरदार पटेल और वी.पी. मेनन को देशी राजाओं से आजादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए देशी राजाओं से बातचीत की कमान सौंपी।
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