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केरल: राजनीतिक क्षितिज पर चुनावों में सुनाई दे रही भविष्य में बड़े बदलावों की आहट, जानें क्या हैं चुनावी मुद्दे
Deepa Sahu
23 March 2021 6:29 PM GMT
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केरल: राजनीतिक क्षितिज पर चुनावों
जनता से रिश्ता वेबडेस्क: तिरुअनंतपुरम। चुनावों में अब तक शालीनता और सादगी की कसौटी का मानक तय करने वाले राज्यों में शुमार किए जाते रहे केरल में मौजूदा विधानसभा चुनाव आक्रामकता और कटुता की नई सीमा रेखा खींच रहा है। केरल के राजनीतिक क्षितिज पर भविष्य में बड़े बदलावों की सुनाई दे रही धीमी आहट शायद इसकी एक बड़ी वजह है और सूबे के तीनों प्रमुख राजनीतिक ध्रुवों की अगुआई कर रही पार्टियों में बचैनी भी ज्यादा है। इसीलिए चुनाव में विकास से जुड़े मुददों के मुकाबले पार्टियां और उनके सहयोगी दल एक दूसरे के खिलाफ निजी कटु हमलों की बौछार कर रहे हैं।
चुनावी सर्वेक्षणों ने दी हवा
केरल के चुनावी अभियान के इस बदले स्वरूप को बीते दो तीन दिनों में आए अलग-अलग चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों के आकलनों ने और हवा दे दी है। इन सर्वेक्षणों में माकपा की अगुआई वाले सत्ताधारी एलडीएफ गठबंधन के फिर से सत्ता में लौटने की बातें कही जा रही हैं। जाहिर तौर पर विपक्षी गठबंधन यूडीएफ की प्रमुख पार्टी कांग्रेस इसे सहज रूप में नहीं ले रही और मुख्यमंत्री पिनरई विजयन की भाजपा से कथित अंदरूनी साठगांठ को बड़ा मुददा बनाने की कोशिश कर रही है। केरल में नेता विपक्ष रमेश चेन्निथेला ने इन सर्वेक्षणों को प्रायोजित करार देते हुए कहा कि विजयन केंद्र के भाजपा के मॉडल का अनुकरण कर प्रदेश का चुनाव नैरेटिव बदलने के लिए अथाह पैसा बहा रहे हैं। चुनाव आयोग से इन सर्वेक्षणों पर रोक की गुहार लगाने के साथ-साथ कांग्रेस के नेता अपनी चुनावी सभाओं में इसकी काट के लिए भाजपा और माकपा के बीच गुपचुप समझौते की बातें भी उठा रहे हैं।
भाजपा के सियासी आधार में इजाफे से कांग्रेस असहज
कांग्रेस की इस आक्रामकता की वजह राजनीतिक विश्लेषणों और चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में एलडीएफ को बढ़त के साथ केरल में भाजपा के सियासी आधार में इजाफे का आकलन है। केरल के 2021 के चुनाव यदि अनुमानों की दिशा में ही आगे बढ़े तो कांग्रेस के लिए अपने इस मजबूत गढ़ में भविष्य की चुनौती गहरी हो जाएगी। इसी संदर्भ में इन सियासी चर्चाओं का बाजार गर्म है कि यूडीएफ सत्ता में नहीं लौटी तो आने वाले चुनावों में कांग्रेस की जगह भाजपा ले सकती है।
कुछ इसी तरह की आशंका एलडीएफ के खेमे में भी है कि बंगाल और त्रिपुरा से वाममोर्चा के सफाए के बाद केरल में अगर माकपा अपना दुर्ग नहीं बचाती है और यूडीएफ सत्ता में आता है तो यहां वामपंथी राजनीति का सूरज अस्त हो सकता है। जाहिर तौर पर यूडीएफ और एलडीएफ दोनों गठबंधन इस चुनाव को भविष्य में अपनी सियासत बचाने की लड़ाई के रूप में देख रहे हैं। दोनों खेमों को भाजपा के उभार में अपने लिए खतरा दिख रहा है तो दूसरी ओर भाजपा को चुनाव नतीजों में हार-जीत से परे इसमें भविष्य की उम्मीद दिखाई दे रही है।
तिरुअंनतपुरम के अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों में माकपा, कांग्रेस और भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच मौजूदा चुनाव से सूबे की सियासी तस्वीर में बदलाव की आशंकाओं को लेकर चर्चा भी खूब है। हालांकि दलीय निष्ठा की वजह से वे खुले तौर पर टिप्पणी करने से बचते नजर आए।
केरल का राजनीतिक परिदृश्य बदलना बहुत आसान नहीं
वैसे केरल के चुनावी मिजाज के इतिहास को देखते हुए सूबे के राजनीतिक कैनवास में बदलाव की लगाई जा रही उम्मीद बहुत सहज नजर नहीं आ रही हैं। केरल में बीते 44 साल से हर पांच साल में सत्ता के बदलने का इतिहास रहा है और पिछली बार 1977 में ही ऐसा हुआ था जब सत्ताधारी गठबंधन दोबारा सत्ता में लौटा था। चुनाव का यह ट्रेंड ही है कि चाहे माकपा सत्ता में लौटने का ज्यादा आत्मविश्वास दिखा रही हो, मगर अंदर ही अंदर उसके कैडर में बेचैनी है कि ऐसा नहीं हुआ तो भविष्य का संकट बड़ा हो सकता है। कांग्रेस के लिए यह चुनावी ट्रेंड ही उम्मीद की सबसे बड़ी किरण है और इसीलिए गुटबाजी के दौर से उबरने की कोशिश कर रही पार्टी भविष्य का खतरा टालने के लिए जोर लगाने में जुट गई है। जबकि भाजपा की चिंता है कि कांग्रेस की अगुआई वाले यूडीएफ को पांच साल में सत्ता बदलने के ट्रेंड का फायदा न मिल जाए क्योंकि इसमें केरल में सत्ता का पार्टी का सपना और लंबा हो जाएगा। यही वजह है कि सभी पार्टियां सूबे में आक्रामकता और कटुता की नई रेखा खींच रही हैं।
राजनीति में बदलाव की आहट
-तीनों प्रमुख ध्रुवों एलडीएफ-माकपा, यूडीएफ-कांग्रेस और एनडीए-भाजपा के भविष्य की दिशा तय करेगा विधानसभा चुनाव
-बंगाल और त्रिपुरा में सफाए के बाद वामपंथी राजनीति के अस्तित्व के लिए केरल में माकपा गठबंधन का जीतना बेहद अहम
-भाजपा हार-जीत पर नहीं, राज्य की राजनीति में भविष्य की उम्मीदों पर लगा रही है दांव
-सत्ताधारी एलडीएफ के फिर सत्ता में लौटने के कयासों को सहज रूप में नहीं ले रही यूडीएफ की प्रमुख पार्टी कांग्रेस
-यूडीएफ को सत्ता नहीं मिलने पर राज्य में भाजपा के कांग्रेस का विकल्प बनने की चर्चा भी गर्म
-केरल में हर पांच साल में बदलती रही है सत्ता, केवल 1977 में ही सत्ताधारी गठबंधन की हुई थी वापसी
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