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झारखंड में कांग्रेस के लिए आसान नहीं 2004 को दोहरा पाना

jantaserishta.com
20 May 2023 12:12 PM GMT
झारखंड में कांग्रेस के लिए आसान नहीं 2004 को दोहरा पाना
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शंभु नाथ चौधरी
रांची (आईएएनएस)| 2024 में कांग्रेस क्या झारखंड में वर्ष 2004 को दोहरा पाएगी? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए सबसे पहले इस राज्य के इतिहास पर गौर करना होगा। वर्ष 2000 में भारत के नक्शे पर 28 वें राज्य के रूप में झारखंड का उदय हुआ था। उस वक्त केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार थी। स्वाभाविक तौर पर झारखंड अलग राज्य के गठन का श्रेय उनकी सरकार को जाता है।
सो, झारखंड निर्माण के बाद वर्ष 2004 में जब पहली बार लोकसभा के चुनाव हुए तो उम्मीद की जा रही थी कि इस नवगठित राज्य में अटल-आडवाणी की पार्टी यानी भाजपा को वोटरों का जमकर समर्थन मिलेगा। लेकिन हुआ ठीक इसके उलट।
झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में से भाजपा के हिस्से मात्र एक सीट आई। कांग्रेस-झामुमो-राजद और सीपीआई ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और उन्होंने राज्य की 13 सीटों पर जीत दर्ज की।
अकेले कांग्रेस की झोली में छह सीटें आईं। यह इस राज्य में संसदीय चुनाव में कांग्रेस का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा है। चुनावी उपलब्धि की इस लकीर को 2024 में लांघ पाना या फिर से छू पाना पार्टी के लिए आसान नहीं है।
वह भी तब, जब आज की तारीख में कांग्रेस राज्य की सत्ता में शामिल है। झारखंड की मौजूदा सरकार में झारखंड मुक्ति मोर्चा के बाद वह सबसे बड़ी साझीदार-हिस्सेदार है। पार्टी के चार विधायक हेमंत सोरेन की कैबिनेट में मंत्री हैं।
82 सदस्यीय झारखंड विधानसभा में पार्टी के कुल 17 विधायक हैं। इसके पहले इस विधानसभा में कांग्रेस के पास कभी इतना संख्या बल नहीं रहा। यानी सत्ता-सियासत में हैसियत के नजरिए से यह उसके लिए मुफीद स्थिति है। माना जा रहा है कि 2024 के चुनाव में साधनों-संसाधनों के लिहाज से पार्टी पिछले चुनावों की तुलना में बेहतर पोजीशन में होगी।
लेकिन, सच यह भी है कि राज्य में पावर शेयरर होकर भी कांग्रेस की हनक एक सत्तारूढ़ पार्टी जैसी नहीं दिखती। राज्य की गठबंधन सरकार ने पिछले साढ़े तीन साल में जितने भी बड़े फैसले लिए या बड़े काम किए, उसका श्रेय सीएम हेमंत सोरेन के हिस्से में ही आया है। इस सरकार की ओर से राजनीतिक तौर पर मुफीद वही फैसले लिए गए या लिए जा रहे हैं, जो हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी चाहती थी।
चाहे 1932 के खतियान पर आधारित डोमिसाइल पॉलिसी का स्टैंड हो या फिर एससी-एसटी-ओबीसी आरक्षण बढ़ाने का फैसला, राज्य में प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए नियमावली हो या फिर कर्मचारियों की ओल्ड पेंशन बहाली का मसला - तमाम फैसलों में हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी का निजी स्टैंड प्रभावी रहा।
हालांकिअदालत ने हेमंत सोरेन सरकार के इन फैसलों में कुछ को खारिज कर दिया, लेकिन वह इनकी बदौलत अपने कोर वोटर्स को राजनीतिक तौर पर मजबूत संदेश देने में सफल रहे हैं।
कांग्रेस इस स्थिति में नहीं है कि वह 2024 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में इस सरकार के कामकाज या फैसलों को अपनी उपलब्धियों के तौर पर गिना-बता सके। वजह यह है कि डोमिसाइल, परीक्षा नियमावली, भाषा आदि पर हेमंत सरकार के बड़े फैसले कांग्रेस के एजेंडे के अनुकूल नहीं थे।
कांग्रेस के विधायकों ने ऐसे कुछ फैसलों पर एतराज भी जताया था, लेकिन सीएम हेमंत सोरेन के आगे उनकी एक न चली। कांग्रेस के एक बड़े नेता निजी बातचीत में कहते हैं कि सोरेन सरकार में हमारी पार्टी की हैसियत रेलगाड़ी के इंजन में लगी बोगी से ज्यादा नहीं।
राज्य सरकार के चार कांग्रेसी मंत्रियों का अपने विभागों में प्रदर्शन चाहे जैसा रहा हो, लेकिन उनके कामकाज को लेकर पार्टी के नेता-कार्यकर्ता उत्साहित नहीं दिखते। इन मंत्रियों का पार्टी में संगठनात्मक स्तर पर न तो दखल दिखता है, न ही कोई खास सक्रियता नजर आती है।
हालांकि पिछले साल पार्टी की ओर से चलाए गए सदस्यता अभियान में मंत्री बादल पत्रलेख ने अपने गृह जिले में सबसे अच्छा स्कोर किया था। पार्टी ने घोषणा की थी कि जनता से पार्टी के सीधे जुड़ाव के लिए हर शनिवार को प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में पार्टी के एक मंत्री उपस्थित होंगे और जनता की समस्याएं सुनेंगे। यह घोषणा जमीन पर उतर ही नहीं पाई। यह भी तय हुआ था कि चारों मंत्री हर महीने छह-छह जिले का दौरा करेंगे। पिछले साल इसकी शुरूआत तो हुई, लेकिन दूसरे ही महीने के बाद मंत्री शिथिल पड़ गए।
फिलहाल झारखंड में कांग्रेस के पास लोकसभा की मात्र एक सीट है। चाईबासा सीट से गीता कोड़ा सांसद हैं। वह अपने क्षेत्र में सक्रिय रहती हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि पार्टी चाहती तो आदिवासी बहुल झारखंड में उन्हें मजबूत चेहरे के तौर पर पेश किया जा सकता था, पर ऐसा हुआ नहीं।
झारखंड में पार्टी के पास आदिवासी चेहरे के तौर पर बंधु तिर्की एक बड़े नाम हैं। वह पार्टी की प्रदेश कमेटी के कार्यकारी अध्यक्ष हैं। राजनीतिक मुद्दों को लेकर जरूरत के मुताबिक सक्रिय भी दिखते हैं। पुराने आदिवासी चेहरों में प्रदीप बलमुचू को पार्टी ने कुछ महीने पहले आदिवासी कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है। सुखदेव भगत भी बड़े नेताओं में गिने जाते हैं। देखना यह होगा कि पार्टी इनका उपयोग किस हद तक कर पाती है।
पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय, आलमगीर आलम, अजय कुमार, रामेश्वर उरांव, बन्ना गुप्ता, मधु कोड़ा जैसे नेताओं की भूमिका संगठनात्मक स्तर पर बढ़ाकर या उन्हें ज्यादा सक्रिय कर पार्टी एक हद तक सकारात्मक माहौल बनाने की उम्मीद कर सकती है।
पार्टी में दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेताओं का एक समूह कई वजहों से असंतुष्ट है। ये वो लोग हैं, जो पार्टी की प्रदेश कमेटी में ज्यादा बेहतर पोजीशन चाहते थे या फिर बोर्ड-निगम में पद की चाहत रखते थे। बोर्ड-निगमों का गठन अब तक हुआ नहीं।
आलोक दुबे, राजेश गुप्ता छोटू, किशोर शाहदेव, साधु शरण गोप जैसे कुछ ऐसे नेता हैं, जिन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजेश ठाकुर के खिलाफ बयानबाजी की वजह से पार्टी से सस्पेंड कर दिया गया है।
हालांकि पार्टी ने आगामी चुनाव के मद्देनजर संगठनात्मक स्तर पर तैयारियां तेज कर दी हैं। अभी हाल में कर्नाटक में कांग्रेस की जीत हुई है। इस नतीजे का कोई तार झारखंड की सियासी परिस्थिति से भले सीधे तौर पर नहीं जुड़ता, लेकिन कांग्रेस के नेताओं-कार्यकतार्ओं के बीच एक जोश का संचार हुआ है। पार्टी नेतृत्व अपने कॉडर को ऐसे उदाहरण देकर मोटिवेट करने की कोशिश कर रहा है।
आगामी चुनाव को लेकर पार्टी ने संगठनात्मक कार्यक्रमों को गति देना शुरू कर दिया है। प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडेय हर महीने-डेढ़ महीने के अंतराल में झारखंड आते हैं। छह साल बाद पहली बार बीते दिसंबर में पार्टी ने प्रदेश कमेटी गठित की है। इसमें कुल 197 नेताओं को जगह दी गई।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर बताते हैं कि पार्टी ने बूथ स्तर पर संगठन को गतिशील रखने के लिए राज्य के सभी 329 प्रखंडों में प्रदेश प्रतिनिधियों को अहम जिम्मेदारी सौंपी है। मैं खुद एक-एक कर सभी जिलों का दौरा कर रहा हूं। राज्य सरकार में शामिल चार मंत्री छह-छह जिलों की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं।
प्रदेश कमेटी के सभी महासचिवों को एक-एक जिला और सचिवों को एक-एक विधानसभा में संगठनात्मक गतिविधियां तेज करने करने का दायित्व सौंपा गया है। प्रखंड और मंडल स्तर पर भी समितियां गठित कर दी गई हैं। इन कमेटियों में लगभग 30 हजार पदाधिकारी हैं। प्रत्येक बूथ के लिए दस यूथ को चिन्हित करने की योजना पर काम चल रहा है।
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