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आश्चर्य नहीं कि ये संकीर्णतावादी वीर अब्दुल हमीद व कलाम का भी विरोध करने लगे?

Nilmani Pal
22 Jan 2023 5:59 AM GMT
आश्चर्य नहीं कि ये संकीर्णतावादी वीर अब्दुल हमीद व कलाम का भी विरोध करने लगे?
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तनवीर जाफ़री

कांग्रेस सहित अन्य विभिन्न दलों में रहकर धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने वाले कई नेता जबसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ संरक्षित भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुये हैं तभी से उनके समक्ष अपने आप को वफ़ादार भाजपाई ही नहीं बल्कि संघी विचारधारा का प्रबल समर्थक व ध्वजावाहक होने की भी गोया होड़ सी लगी हुई है। साम्प्रदायिकता फैलाने,सामाजिक तनाव पैदा करने तथा मुखरित होकर मुस्लिम समाज के विरोध का कोई भी अवसर यह गंवाना नहीं चाहते। फिर चाहे इन्हें आम मुसलमानों का विरोध करना हो या भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अपना नाम दर्ज कराने वाले मुसलमान शासकों,योद्धाओं,सैनिकों अथवा अन्य प्रतिष्ठित लोगों का। वैसे भी इतिहास गवाह है कि लोकतंत्र में जो भी नेता या उनके दल विकास के नाम पर अथवा सर्व समाज के कल्याण के बल पर स्वयं को जनता के बीच स्थापित नहीं कर पाते वे ही सीमित,संकीर्ण जातिवादी,सम्प्रदायवादी,क्षेत्र व भाषा आदि की राजनीति कर किसी वर्ग विशेष को लुभाने का काम करते हैं। आजकल भारतीय राजनीति में इस प्रयोग को सफलता की गारण्टी के रूप में देखा जाने लगा है।

धर्मनिरपेक्षता का चोला फेंक खांटी हिन्दूवादी राजनीति के रास्ते पर चलने वाले ऐसे ही एक नेता हैं असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा। नेहरू-गांधी परिवार की क्षत्र छाया में रहकर अपने राजनैतिक जीवन में सफलता की मंज़िलें तय करने वाले बिस्वा सरमा को जब से भाजपा ने असम का मुख्यमंत्री बनाया है तभी से वे अपनी कुर्सी को बरक़रार रखने की ख़ातिर अपनी वफ़ादारी दिखाने के लिये नेहरू-गांधी परिवार को अपमानित करने,उनके लिये अपशब्द बोलने,असम में साम्प्रदायिक धुर्वीकरण कराने जैसी कोशिशों का कोई भी अवसर गंवाना नहीं चाहते। इसके लिये चाहे उन्हें देश के वास्तविक इतिहास पर पर्दा डालना पड़े,उसे झुठलाना पड़े या फिर अपनी सुविधानुसार नया इतिहास ही क्यों न गढ़ना पड़े। सरायघाट जिसे अब गुवाहाटी के नाम से जाना जाता है की लड़ाई में अहोम साम्राज्य और मुग़लों के बीच ब्रह्मपुत्र नदी पर एक भीषण नौसैनिक युद्ध हुआ था। इस युद्ध में मुग़लों के ख़िलाफ़ अहोम सेना के जनरल लचित बरफुकन के नेतृत्व में ही उनके काँधे से कांधा मिलाकर लड़ने वाले एक मुस्लिम योद्धा थे इस्माइल सिद्दीक़ी ऊर्फ़ बाघ हज़ारिका। जबकि मुग़ल सेना की कमान सेनापति राम सिंह के हाथों में थी। उधर बीजेपी पर यह आरोप भी लग रहे हैं कि वो अहोम सेनापति लचित बरफुकन को हिंदू राष्ट्रवादी नायक के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है। जबकि महान अहोम योद्धा लचित बरफुकन स्वयं भी हिंदू नहीं बल्कि अहोम थे। " असम के स्थानीय मुसलमान तो लचित बरफुकन के परम सहयोगी,बाघ हज़ारिका पर गर्व करते ही हैं आम असमी भी बाघ हज़ारिका को बड़े ही आदर व सम्मान की नज़रों से देखता है। इस्माइल सिद्दीक़ी ऊर्फ़ बाघ हज़ारिका को असम की धर्मनिरपेक्ष संस्कृति का हीरो माना जाता है। बाघ हज़ारिका के वंशज अभी भी असम में ही रहते हैं। असमी इतिहास में लचित बरफुकन व उनके सहयोगी इस्माइल सिद्दीकी ऊर्फ़ बाघ हज़ारिका का गुण गान करने वाली अनेकानेक घटनाएं व लोक गीत आज भी दर्ज हैं।

परन्तु महज़ अपनी कुर्सी को सुरक्षित करने के मक़सद से मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने एक नई मुहीम छेड़ दी है। इसके अंतर्गत बिस्वा सरमा इस्माइल सिद्दीक़ी ऊर्फ़ बाघ हज़ारिका को लचित बरफुकन का सहयोगी व तत्कालीन अहोम नव सेना का प्रमुख नहीं बल्कि केवल एक गढ़ा हुआ काल्पनिक चरित्र प्रचारित कर रहे हैं। सरायघाट(गुवाहाटी ) का युद्ध हुए साढ़े तीन सौ साल से अधिक समय बीत चुका है परन्तु आज तक किसी भी नेता या इतिहासकार ने भी बाघ हज़ारिका के अस्तित्व को लेकर ऐसा विवाद नहीं खड़ा किया। जबकि इतिहास बताता है कि अहोम जल सेना की कमान बाघ हज़ारिका यानी इस्माइल सिद्दीक़ी के हाथों में थी। असम के इतिहास विशेषकर 'स्वदेशी' असमिया मुसलमानों के लिए बाघ हज़ारिका की वीरता की कहानियों का महत्वपूर्ण सांस्कृतिक महत्व है। परन्तु बिस्वा सरमा की इस विवादित टिप्पणी के बाद असम के मुसलमानों को उनका वह अपेक्षित सन्देश पहुँच चुका है कि चूंकि बाघ हज़ारिका एक मुस्लिम योद्धा थे इसलिए असम भाजपा सरकार द्वारा उनके योगदान को मिटाने की कोशिश की जा रही है। मज़े की बात यह भी है कि मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा से पहले राज्य में बीजेपी सरकार के ही मुख्यमंत्री रहे सर्बानंद सोनोवाल ने असम विधानसभा के भीतर बाघ हज़ारिका के बारे में यह कहा था कि सरायघाट के युद्ध में लचित बरफुकन के साथ बाघ हज़ारिका ने भी अहम भूमिका निभाई थी."

बाघ हज़ारिका यानी इस्माइल सिद्दीक़ी के अस्तित्व को नकारने व उन्हें काल्पनिक बनाने वाला संकीर्णतावादियों का यह वही 'गिरोह' है जो 18वीं सदी में मैसूर के शासक रहे टीपू सुल्तान को अपमानित करने की हर समय कोशिश में लगा रहता है। हमारा इतिहास जहाँ टीपू सुल्तान को मैसूर का शेर बताता है वहीं अंग्रेज़ों की दलाली,चाटुकारिता व उनसे मुआफ़ी मांगने वालों के राजनैतिक वारिस टीपू सुल्तान को 'बर्बर', 'सनकी हत्यारा' और 'बलात्कारी' बताते रहते हैं। टीपू सुल्तान के साम्राज्य में हिंदू समुदाय के लोग बहुमत में थे परन्तु टीपू सुल्तान को हमेशा धार्मिक सहिष्णुता और उदारवादी विचारों के लिए जाना जाता है। इतिहास में इस बात का उल्लेख भी है कि टीपू ने श्रीरंगपट्टनम, मैसूर और अपने राज्य के कई अन्य स्थानों में कई बड़े मंदिर बनाए और अनेक मंदिरों के लिए ज़मीन व धन भी दान में दिए।परन्तु टीपू विरोधियों को टीपू सुल्तान नायक नहीं बल्कि खलनायक नज़र आते हैं। कारण केवल एक ही है कि टीपू सुल्तान मुसलमान था और किसी मुसलमान को नायक के रूप में प्रस्तुत करने का अर्थ है देश में साम्प्रदायिक सद्भाव व धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देना। जोकि इनके राजनैतिक एजेंडे के बिलकुल विपरीत है।

सवाल यह है कि जो शक्तियां और विचारधारा बाघ हज़ारिका व टीपू सुल्तान को स्वीकार नहीं कर पातीं,जो पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की सेवाओं को नज़रअंदाज़ कर उनके विरोध पर आमादा हो सकती हैं। जिन्हें बहराईच के सर्व धर्म समभाव के केंद्र संत मसूद सालार ग़ाज़ी की दरगाह पर लाखों हिन्दू मुस्लिम का एकजुट होना सिर्फ़ इसीलिये नहीं भाता कि यहां साम्प्रदायिक सद्भाव का दृश्य देखा जाता है। तो आश्चर्य नहीं कि भविष्य में ये साम्प्रदायिकतावादी व संकीर्णतावादी परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद व भारत रत्न मिसाइलमैन ए पी जे अब्दुल कलाम का भी विरोध केवल इसीलिये करने लगें क्योंकि यह भी मुसलमान परिवारों में पैदा हुये थे ?


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