खेलों में भारत के बढ़ते कदम, पचास पदकों के साथ बना खेल महाशक्ति
आर.के. सिन्हा
यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं हैं जब अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेल आयोजनों में भारत की लगभग सांकेतिक उपस्थिति ही रहा करती थी। हम हॉकी में तो कभी-कभार बेहतर प्रदर्शन कर लिया करते थे, पर शेष खेलों में हमारा प्रदर्शन औसत से नीचे या खराब ही रहता था। हमारे खिलाड़ियों- अधिकरियों की टोलियां वहां पर जाकर मौज-मस्ती करके वापस आ जाया करती थी। हिन्दुस्तानी खेल प्रेमियों की निगाहें तरस जाती थीं कि एक अदद पदक को देखने के लिए।
पर गुजरे दशक से स्थितियां तेजी से बदल रही हैं खासकर मोदी सरकार के आने के बाद । सबसे बड़ी बात ये है कि हम बैडमिंटन में विश्व चैंपियन बनने लगे हैं, हमारा धावक ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतता है और क्रिकेट में तो हम विश्व की सबस बड़ी शक्ति हैं ही। हमने इस कामनवेल्थ गेम में पचास पदक बटोरे जिसमें कि अठारह तो स्वर्ण पदक है और पंद्रह रजत पदक I
बेटियां वेटलिफ्टिंग तथा कुश्ती जैसी स्पर्धाओं में देश की झोली पदकों से भर देती हैं। चालू कॉमनवेल्थ खेलों की वेटलिफ्टिंग स्पर्धाओं में मीराबाई चानू, जेरेमी लालरिनुंगा और अचिंता शुली ने भारत के लिए तीन गोल्ड मेडल जीते, जबकि संकेत महादेव सरगर, बिंद्यारानी देवी सोरोखैबम और विकास ठाकुर ने सिल्वर मेडल और लवप्रीत सिंह, गुरुराजा, हरजिंदर कौर और गुरदीप सिंह ने ब्रॉन्ज मेडल जीता। फिर कुश्ती मुकाबलों में भारतीय खिलाड़ियों का जलवा देखने को मिला। कुश्ती मुकाबलों के पहले ही दिन साक्षी मलिक ने महिला 62 किलो भारवर्ग के फाइनल में कनाडा की एना गोडिनेज गोंजालेज को हराकर गोल्ड मेडल जीता। भगवान शिव के भक्त बजरंग पूनिया ने भी भारत के लिए गोल्ड मेडल जीता। पुरुषों की फ्रीस्टाइल 65 किलो भारवर्ग के फाइनल में बजरंग पूनिया ने कनाडा के एल. मैकलीन को 9-2 मात दी। वहीं अंशु मलिक सिल्वर मेडल जीतने में कामयाब रहीं। जबकि दिव्या काकरान और मोहित ग्रेवाल कांस्य का पदक हासिल करने में सफल रहे। कुश्ती में रवि दहिया और दीपक पुनिया ने भी स्वर्ण पदक हासिल किये I
एक तरफ हमारे खिलाड़ी कॉमनवेल्थ खेलों में बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे हैं, दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चेन्नई में 44वें शतरंज ओलंपियाड का उद्घाटन करते हैं। जो पहली बार भारत में हो रही है। शतरंज ओलंपियाड का चेन्नई से 50 किलोमीटर दूर मामल्लापुरम में हो रहा है और इसमें रिकॉर्ड खिलाड़ी भाग ले रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा,'' यह खास टूर्नामेंट है और हमारे लिये यह सम्मान की बात है कि इसका आयोजन भारत में हो रहा है और वह भी तमिलनाडु में जिसका शतरंज से सुनहरा नाता रहा है।'' तमिलनाडु सरकार ने टूर्नामेंट का जबर्दस्त प्रचार भी किया है । पारंपरिक तमिल परिधान पहने ओलंपियाड के शुभंकर 'थम्बी' के कटआउट जगह-जगह लगाये गए हैं। ओलंपियाड रूस में होना था I लेकिन, यूक्रेन पर रूस के सैन्य हमले के बाद उससे मेजबानी छीन ली गई। शतरंज के जानकारों का मानना है कि इसके आयोजन सन्देश में शतरंज की लोकप्रियता और बढेगी ।
कॉमनवेल्थ खेलों से ठीक पहले ओलंपिक चैंपियन नीरज चोपड़ा ने वर्ल्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में इतिहास रच दिया था। उन्होंने इस चैंपियनशिप में 19 साल बाद भारत को पदक दिलाया। उनकी उपलब्धि पर सारा देश गर्व कर रहा था। वे दूसरे स्थान पर रहने के बावजूद इतिहास रचने में कामयाब रहे। वह भारत के पहले पुरुष खिलाड़ी बन गए हैं, जिन्होंने वर्ल्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में पदक हासिल किया है। उनसे पहले लंबी कूद में भारतीय महिला एथलीट अंजू बेबी जॉर्ज ने यहां पदक जीता था। अंजू ने साल 2003 में हुई वर्ल्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में मेडल अपने नाम किया था।
और बीती मई के महीने में भारत ने थॉमस कप जीता था। लक्ष्य सेन, किदांबी श्रीकांत, एच एस प्रणय और सात्विकसाईराज रंकीरेड्डी-चिराग शेट्टी ने जो धैर्य और दृढ़ संकल्प दिखाया उसने उस धारणा को धराशायी कर दिया कि भारतीय खेलों के लिए नहीं बने हैं। लंबे समय से हम भारतीयों ने अपने मन में इन भ्रांतियों को पनपने दिया। कहा जाता रहा है कि भारतीयों में वह जीतने वाला दम नहीं होता। हम सिर्फ देश में ही अच्छा खेलते हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेकार साबित होते हैं। अफसोस कि हमने खुद दूसरों को अपने ऊपर हंसने का मौका दिया है। भारतीय बैडमिंटन की लंबी छलांग की बात करेंगे तो पी.वी. सिधु को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं। उसने कुछ हफ्ते पहले सिंगापुर ओपन चैंपियनशिप को जीता। उसने अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी चीन की वैंग झी यी को धूल चटाई। सिंधु के लिए ये किसी कड़ी परीक्षा की तरह था। लेकिन वो जंग ही क्या जिसे भारत की सिंधु पार नहीं कर पाए। मुकाबला टक्कर का था पर कोर्ट पर सिंधु की फुर्ती के सामने चीनी दीवार ढेर हो गई। सिंधु ने महत्वपूर्ण लम्हों पर धैर्य बरकरार रखना सीख लिया है। सिंधु का मौजूदा सत्र का यह तीसरा खिताब है। सिंधु ओलिंपिक में रजत और कांस्य पदक के अलावा विश्व चैंपियनशिप में एक स्वर्ण, दो रजत और दो कांस्य पदक भी जीत चुकी हैं।
बहरहाल, ये कहना पड़ेगा कि भारत खेलों में चौतरफा स्तर पर आगे बढ़ रहा है। हमारी क्रिकेट टीम ने हाल ही में पहले इंग्लैंड में और वेस्ट इंडीज में शानदार प्रदर्शन किया। ये वास्तव में सुखद स्थिति है।
पर एक पहलू को देखना होगा कि हमें खेलों में उपलब्धियां पूर्वोत्तर या हरियाणा से ही अधिक क्यों मिल रही हैं। दरअसल चानू मीराबाई और साक्षी मलिक जैसी महिला खिलाड़ी सारे देश की आधी आबादी के लिए प्रेरणा बन चुकी हैं। इन सबने कठिन और विपरीत हालातों में भी अपने देश का नाम रोशन किया है। इन्होंने देश को गौरव और आनंद के अनेक लम्हें दिये हैं। ये ओलंपिक तथा कॉमनवेल्थ जैसे मंचों पर अपनी श्रेष्ठता को साबित कर रही हैं। इनकी कामयाबियों से सारा देश अपने को गौरवान्वित महसूस करता है। इनके रास्ते पर देश की लाखों-करोड़ों बेटियां भी चलें तो अच्छा रहेगा। पर अब भी बिहार, झारखंड तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से सफल खिलाड़ियों का निकलना बाकी है। इन राज्यों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। उभरती हुई प्रतिभाओं को सुविधायें देनी होंगी। झारखंड से बेहतरीन हॉकी खिलाड़ी खास तौर पर निकलते रहे हैं।
भारत ने कॉमनवेल्थ खेलों की कुश्ती स्पर्धा में उम्मीद के मुताबिक सही प्रदर्शन किया। भारत को पदक दिलवाने वाले लगभग सब पहलवान हरियाणा से थे। इन हरियाणा के पहलवानों पर देश को गर्व है। पर उत्तर प्रदेश के वाराणसी, इलाहाबाद, आजमगढ़, गाजीपुर, गोरखपुर आदि जिलों के अपने अखाडों से श्रेष्ठ पहलवान क्यों नहीं निकल रहे हैं? क्या हालत है इन जिलों के अखाड़ों की? उत्तर सुनकर सिर शर्म से झुक जाएगा कि बदहाल इन आखाड़ो को कोई पूछने वाला नही है। रुस्तमे हिन्द मंगला राय, हिन्द केसरी विजय बहादुर, मनोहर पहलवान कभी तो इन्हीं अखाड़ों से निकले थे।
बिहार को भी खेलना होगा। याद नहीं आता कि 10-12 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश से कब कोई नामवर खिलाड़ी निकला । बिहारी समाज को खेलों पर फोकस करना होगा। खेलों में करियर बनाना कतई गलत नहीं है। इन सब राज्यों में श्रेष्ठ खेल मैदान बनाये जाने चाहिए। इन सब राज्यों में खेलों का कल्चर विकसित करना जरूरी है। हरेक भारतवासी की यह चाहत है कि भारत दुनिया में खेलों की महाशक्ति बने। बेशक, हम इस दिशा में तेजी से बढ़ भी रहे हैं। लेकिन, अब भी हमारे देश के कुछ राज्यों में खेलों की संस्कृति विकसित नहीं हो पा रही है। इसी तरह से दिल्ली, मुंबई, कोलकाता तथा कुछ अन्य महानगरों से भी पदक दिलवाने वाले खिलाड़ी सामने नहीं आ रहे हैं। दिल्ली में 1982 के एशियाई खेल हुए। उसके बाद 2012 में क़ॉमनवेल्थ खेल हुए। इस लिए यहां तमाम विश्व स्तरीय स्टेडियम बने। इनमें उच्च कोटि की सुविधाएं दी गईं। इसके बावजूद दिल्ली भी बहुत सारे खिलाड़ी देश को नहीं दे रही है। इन पहलुओं पर भी गौर करने की जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)