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2024 से पहले कृषि कानून को फिर से लाना असंभव

Bhumika Sahu
27 Dec 2021 5:27 AM GMT
2024 से पहले कृषि कानून को फिर से लाना असंभव
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संघ और भाजपा दोनों के लिए जरूरी है कि तमाम विवादित मसलों को किनारे रखकर 2022 में यूपी फतह और फिर 2024 में देश का जनादेश भाजपा के पक्ष में खड़ा हो. ऐसे में इस बात के आसार कम ही हैं कि सरकार कृषि कानूनों को दोबारा लेकर फिर से आए.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। 'मोदी है तो मुमकिन है' का लोकप्रिय नारा विपक्ष का पीछा नहीं छोड़ रहा है और विपक्ष भी ऐसा कि इसी नारे की कालिख सत्ता के मुंह पर पोतकर चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश में जुटी है. आमतौर पर ऐसा होता नहीं है, लेकिन उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की गरमागरमी के बीच एक बार फिर से यह चर्चा तेज हो गई है कि जिन तीन कृषि कानूनों को हाल ही में रद्द किया गया है सरकार उसे फिर से ला सकती है. दरअसल, देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर अपने हालिया भाषण में कुछ ऐसा बोल गए जिसे देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने एक बड़े मुद्दे के तौर पर उछाल दिया है. अब कृषि मंत्री तोमर घूम-घूम कर सफाई देते फिर रहे हैं कि हमने ऐसा नहीं कहा है. यह विपक्ष की घिनौनी राजनीति है.

दरअसल, केंद्रीय कृषि मंत्री पिछले दिनों महाराष्ट्र के उस शहर में थे जो भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय भी है. इस शहर से सत्ता का कोई भी बयान जारी होता है तो उसके मायने निकाले जाते हैं. ऐसा ही हुआ कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के साथ. महाराष्ट्र के नागपुर में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कृषि मंत्री ने जो बात कही उसे ध्यान से पढ़िए और शब्दों पर गौर कीजिए– "हम कृषि सुधार कानून लेकर आए थे. कुछ लोगों को रास नहीं आया. लेकिन वो 70 वर्षों की आजादी के बाद एक बड़ा रिफॉर्म था जो नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में आगे बढ़ रहा था. लेकिन सरकार निराश नहीं है. हम एक कदम पीछे हटे हैं. आगे फिर बढ़ेंगे क्योंकि हिन्दुस्तान का किसान हिन्दुस्तान की बैक बोन है."
क्या फिर से कानून आ सकता है
असल में जब आप मंत्री जी के भाषण का वीडियो देखेंगे तो ज्यादा समझ में आएगा. 'हम एक कदम पीछे हटे हैं. आगे फिर बढ़े हैं' इस वाक्य को बोलने के दौरान मंत्री जी के चेहरे पर जो भाव था और जिस तरह की उत्तेजना झलकी वह इस बात को इंगित करने के लिए काफी है कि कोई इस भ्रम में न रहे कि सरकार ने तीन कृषि कानूनों को सदा के लिए रद्द किया है. उसे सत्ता अपने फायदे के लिए स्थगित किया है. वक्त निकल जाने के बाद उसे फिर से लाया जा सकता है. मतलब साफ है- मोदी है तो मुमकिन है. बस इसी मुद्दे को चुनावी हथियार बनाकर कांग्रेस पार्टी देश को यह बताने और समझाने में जुट गई है कि सरकार किसानों को चुनौती के अंदाज में कह रही है कि "आंदोलन को खत्म करना था लिहाजा हम थोड़ा पीछे हटे हैं. इस भ्रम में मत रहना कि हम तुम्हारे साथ खड़े हो गए हैं." कांग्रेस ने सरकार पर पूंजीपतियों के दबाव में दोबारा काले कानूनों को वापस लाने की साजिश रचने का आरोप लगाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से स्पष्टीकरण मांगा है. पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तोमर के इस बयान को पीएम मोदी की माफी का अपमान करार देते हुए कहा कि सरकार ने इन विवादास्पद कानूनों पर यदि फिर से अपने कदम आगे बढ़ाए तो देश का किसान फिर सत्याग्रह करेगा. पहले भी अहंकार को हराया था, फिर हराएंगे!
राकेश टिकैत की प्रतिक्रिया के मायने भी समझिए
अगर आपको याद हो तो गाजीपुर बॉर्डर छोड़ने से पहले भारतीय किसान आंदोलन के प्रवक्ता और किसान आंदोलन के प्रमुख चेहरा राकेश टिकैत ने कहा था कि किसान आंदोलन अभी खत्म नहीं हुआ है. आंदोलन अभी स्थगित हुआ है. हम फिर वापस आएंगे क्योंकि अभी तो सिर्फ तीन कृषि कानूनों की ही वापसी हुई है. फसलों की एमएसपी का असली मुद्दा तो अभी बचा ही हुआ है जिसपर सरकार को फैसला करना है. कृषि मंत्री के खलबली मचाने वाले बयान के तुरंत बाद राकेश टिकैत ने भी चेतावनी दे दी कि किसान आंदोलन फिर से शुरू हो सकता है. टिकैत की यह चेतावनी भी कोई ऐसी-वैसी जगह नहीं, किसानों के गढ़ और राजेश पायलट की कर्मभूमि राजस्थान के दौसा में मीडिया के बीच जारी की. टिकैत ने कहा कि केंद्र सरकार ने सिर्फ तीन कृषि कानून ही रद्द किए हैं, किसान संगठनों की अन्य मांगें अभी नहीं मानी गई हैं. सत्ता पक्ष टिकैत के बयान को भले ही 'थोथा चना बाजे घना' के अंदाज में ले रही हो, लेकिन किसान आंदोलन को करीब से समझने वाले विश्लेषक इस बात की तरफ इंगित कर रहे हैं कि टिकैत की प्रतिक्रिया को देखते हुए कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बयान को हल्के में नहीं लिया जा सकता है. ऐसे भी तोमर का व्यक्तित्व गंभीर किस्म का है. लिहाजा उनके बयान को गंभीरता से लिया जाना चाहिए और उसकी गंभीर व्याख्या होनी चाहिए ताकि इस बात का पता चल सके कि अगर फिर से कृषि कानून लेकर सरकार आती है तो उसका स्वरूप क्या होगा?
2024 से पहले कानून को फिर से लाना असंभव
हालांकि कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कोई इकलौते नेता नहीं हैं जिन्होंने कृषि कानूनों को फिर से लाने की तरफ इशारा किया हो. उन्नाव से भाजपा सांसद साक्षी महाराज भी कह चुके हैं कि राष्ट्र विरोधी ताकतों की वजह से कृषि कानूनों को वापस लिया गया है. बिल का क्या है? बनता है, बिगड़ता है. फिर वापस आ जाएगा. राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने भी कुछ इसी तरह के संकेत देते हुए कह चुके हैं कि जरूरत पड़ी तो किसान बिल को फिर से ड्राफ्ट करके लाया जाएगा. लेकिन भाजपा नीत मोदी सत्ता 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इस तरह का कोई रिस्क लेना नहीं चाहेगी. क्योंकि सरकार को भी अच्छे से पता है कि कानून कोई जादुई छड़ी नहीं कि घुमा दी और सुधार हो गया. भारत में हजारों कानून हैं, लेकिन कितने कारगर हैं ये कानून समस्याओं का समाधान कराने में? असल में सुधार, बदलाव या परिवर्तन एक प्रक्रियागत चीजें हैं जिसका सरकार द्वारा समग्र प्रबंधन किया जाना बेहद जरूरी होता है. कृषि कानूनों के संदर्भ में बात करें तो यहां सुधार या परिवर्तन के प्रबंधन पर जोर नहीं दिया गया, सिर्फ कायदे-कानून पर जोर दिया गया. इसी मूल वजह से सरकार को कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा. और उससे भी बड़ा सच यह कि प्रचार-प्रसार के बल पर सरकार बिग रिफॉर्म का एक परसेप्शन गढ़कर इन तीन कृषि कानूनों को लागू करना चाहती थी. चूंकि किसान देश की नब्ज जानते हैं, पहचानते हैं लिहाजा वो सत्ता की नीयत को आसानी से भांप गए. उन्हें सरकार की नीयत पर शक हुआ कि आखिर सत्ता चाहती क्या है? कृषि सुधारों का क्रियान्वयन कैसे होगा? कृषि सुधार के लिए जरूरी था कि तमाम स्टेकहोल्डर्स से, किसान संगठनों से संवाद किया जाता, इसके तहत सरकार और किसान अपना-अपना पक्ष रखते. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया. जिससे जैसे-तैसे सरकार ने पीछा छुड़ाया. अब आगामी चुनावों में किसानों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एसएसपी) गारंटी कानून की मांग ही सरकार के लिए मुसीबत का सबब बना रहेगा. लिहाजा तीनों कृषि कानूनों को फिर से लाने का रिस्क कम से कम 2024 के लोकसभा चुनाव तक सरकार लेने की स्थिति में बिल्कुल नहीं है.
बहरहाल, आने वाले वक्त में मोदी सत्ता के समक्ष कई चुनौतियां हैं. बंगाल चुनाव में पराजय के बाद यूपी का चुनाव दोबारा से जीतना सबसे बड़ी चुनौती सामने खड़ी है. आरएसएस की भी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं और उसकी चाहत है कि 2025 में संघ के शताब्दी समारोह का जश्न मोदी सत्ता की चकाचौंध में मने. लिहाजा संघ और भाजपा दोनों के लिए जरूरी है कि तमाम विवादित मसलों को किनारे रखकर येन-केन-प्रकारेण 2022 में यूपी फतह और फिर 2024 में देश का जनादेश भाजपा के पक्ष में खड़ा हो. ऐसे में इस बात के आसार कम ही हैं कि सरकार कृषि कानूनों को दोबारा से लाकर फिर से एक और किसान आंदोलन की मुसीबत मोल ले.


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