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नई दिल्ली | सांप्रदायिक समस्या भारत की आंतरिक स्थितियों को अब इस तरह प्रभावित करने लगी है कि वह घोर सांप्रदायिकता के साथ-साथ क्षेत्रीय अलगाव का भी कारण बन रही है। यह सांप्रदायिकता बिहार और उत्तर प्रदेश में जातीयता का अवलंब बनकर संकट खड़ा कर रही है। बंगाल और केरल में यही सांप्रदायिकता आतंकी विभाजनकारी अभियान का आश्रय बन चुकी है। पीएफआइ के अतिरिक्त आइएस की भारत में संगठित होने की सूचनाएं हैं।
कैप्टन आर. विक्रम सिंह: बीते दिनों नूंह की घटना का पूरा देश साक्षी रहा। एक संसद सदस्य सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान भारत माता की जय बोलने को लेकर लगभग हाथापाई पर उतर आए। कुछ महीनों पहले कन्हैयालाल और उमेश कोल्हे जैसे लोगों की गर्दनें मजहबी कट्टरपंथियों द्वारा उतार दी गईं। खालिस्तानी समर्थकों के प्रदर्शन दिख रहे हैं। पूर्वोत्तर में विदेशी शक्तियों की मदद से माहौल बिगाड़ा जा रहा है। देश में चौड़ी होती ये भ्रंश रेखाएं युद्धकाल का संकेत नहीं दे रहीं तो यह और क्या है। स्पष्ट रूप से हमें अपनी पुख्ता तैयारी करनी होगी।
वस्तुत:, शांति का काल राष्ट्र के लिए स्थिरता, विकास, शक्ति अर्जन एवं भविष्य की तैयारियों का समय होता है। शांतिकाल के दायित्वों को विस्मृत करने के दुष्परिणाम हमने देखे हैं। जब मौर्य, गुप्त, कनिष्क और ललितादित्य के साम्राज्यों से लेकर यहां तक कि अंग्रेजों ने भी पश्चिमोत्तर में हमारी सीमाओं की रक्षा की है तो स्पष्ट है कि यही भारतवर्ष की स्वाभाविक सीमा है। देश के बंटवारे की ये नकली विभाजक रेखाएं हमारे भाग्य की रेखाएं नहीं हैं। कल जब हम समर्थ होंगे तो इतिहास की लहरों के सामने रेत की लकीरों की तरह ये मिट जाएंगी। हमारी पूर्वी सीमाएं कभी उस तरह से समस्या नही रहीं।
समस्या तो उत्तरी सीमाएं भी न होतीं, लेकिन हमारे अयोग्य शासक इसके मूल में रहे। पाकिस्तान बनाकर ब्रिटिश सरकार ने पश्चिमी दिशा में भारत के संभावित शक्ति विस्तार को जानबूझकर निष्प्रभावी कर दिया। जहां सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की पराजय हुई थी, आज वहां पाकिस्तान बना हुआ है। अगर सेल्यूकस की परायज न हुई होती तो मौर्य साम्राज्य स्थिर न होता। शेष विश्व से व्यापारिक संबंध न बने होते। समृद्धि और शक्ति का मार्ग बाधित रहता। उसी तरह आज पाकिस्तान एक शत्रु ही नहीं, बल्कि एक बाधा है जो हमारी राह रोके खड़ा है।
हमारी सांप्रदायिक समस्या देश की आंतरिक स्थितियों को अब इस तरह प्रभावित करने लगी है कि वह घोर सांप्रदायिकता के साथ-साथ क्षेत्रीय अलगाव का भी कारण बन रही है। यह सांप्रदायिकता बिहार और उत्तर प्रदेश में जातीयता का अवलंब बनकर संकट खड़ा कर रही है। बंगाल और केरल में यही सांप्रदायिकता आतंकी विभाजनकारी अभियान का आश्रय बन चुकी है। पीएफआइ और अलकायदा के अतिरिक्त आइएस की भारत में संगठित होने की सूचनाएं हैं। इस सांप्रदायिक विभाजन से भारतवर्ष के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो रहा है। शांतिकालीन प्रविधानों से युद्धकाल का नियंत्रण असंभव सा होता जा रहा है।
हम अतीत से ही आसन्न संकटों के प्रति जाग्रत नहीं रहे। कश्मीर 1947 से ही पाकिस्तान के लिए नाक का सवाल बना रहा है। एक तिहाई कश्मीर उसके अवैध कब्जे में पहले से है। बाकी कब्जाने का कुत्सित अभियान उसने छेड़ रखा है। कश्मीर पर कब्जा एवं भारत का इस्लामीकरण ही उसका लक्ष्य है। इसके लिए हम कौनसी काट तैयार कर रहे हैं? पारंपरिक रूप से हम रक्षात्मक देश रहे हैं।
संकटों के बावजूद आक्रामक सैन्य सशक्तीकरण हमारी नीति ही नहीं रही। हमने तो युद्ध भी हमेशा रक्षात्मक किया है। 1947-48 के पाकिस्तानी आक्रमण के फलस्वरूप कश्मीर युद्ध में पंडित नेहरू ने सुरक्षा परिषद से युद्धविराम करा लिया। 1965 में हम लाहौर के करीब थे, लेकिन हमने स्वयं युद्धविराम घोषित कर दिया। 1971 का युद्ध हम अपने नहीं, बांग्लादेश के हित में लड़े। फिर शिमला समझौते में सामरिक विजय को कूटनीति के स्तर पर गंवा दिया गया। परिणामस्वरूप समस्याएं जस की तस बनी रहीं।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि जल्द ही देश दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। ऐसे में बड़ा सवाल उठता है कि आर्थिक शक्ति की रक्षा बाहरी एवं आंतरिक सामरिक शक्ति के अभाव में कैसे संभव होगी? शत्रु तो अंदर भी हैं। चीन हमारे समक्ष आंतरिक शत्रुओं के नियंत्रण का एक बड़ा उदाहरण है।
रूस-यूक्रेन युद्ध में हमने देखा है कि आर्थिक एवं सैन्यशक्ति का सहयोग एक दूसरे के लिए कितना आवश्यक है। पुतिन यदि सामरिक दृष्टि से जागरूक न रहते तो वह यूक्रेन के रूप में अपनी सीमाओं पर एक पाकिस्तान जैसा सिरदर्द बन जाने देते। नाटो संगठन उनकी घेराबंदी कर यूरोप में उन्हें सीमित कर देता। हालांकि, पुतिन ने ऐसा नहीं होने दिया और युद्ध का चुनाव किया।
आर्थिक समृद्धि के साथ यदि सामरिक शक्ति-सामर्थ्य नहीं होता तो इसके बड़े भयानक परिणाम सामने आते हैं। हम इसके भुक्तभोगी रहे हैं। हमारी इस्लामिक गुलामी का दौर दसवीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। इस्लामिक आक्रमण से पूर्व हम विश्व के सबसे समृद्ध देश थे। विश्वप्रसिद्ध आर्थिक इतिहासकार एंगस मैडिसन ने अपने विशद अध्ययन में सिद्ध किया है कि प्राचीन विश्व की अर्थव्यवस्था का 55 से 57 प्रतिशत भारत और चीन के नियंत्रण में था। उसमें भारत तो चीन से भी आगे रहा।
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