आर.के. सिन्हा
दीपक पारेख को भारत के कोरपोरेट जगत में बहुत ही आदर भाव के साथ देखा जाता है। एचडीएफसी बैंक के चेयरमेन दीपक पारेख बीती आधी सदी से कोरपोरेट जगत की हरेक घटना के अहम साक्षी हैं। वे जब किसी विषय पर बोलते हैं तो उसे नजरअंदाज करना संभव नहीं होता। उन्होंने हाल ही में एक सेमिनार में कहा कि भारत के बहुत से औद्योगिक-घरानों में संपत्ति बंटवारे को लेकर हुआ विवाद इतना गंभीर हो गया है कि वे घराने इस आघात से बुरी तरह से छलनी हो गए। इस पूरी प्रकिया में लंबा वक्त भी लगा सो अलग । उनकी सलाह थी कि जिन घरानों में विवाद हो तो उन्हें मध्यस्थता के रास्ते पर चलना चाहिए। इससे धन और वक्त भी बच जाएगा। दीपक पारेख की बात में दम है। हमने देखा है कि रिलायंस ग्रुप के चेयरमेन धीरूभाई अंबानी के निधन के बाद उनके दोनों पुत्रों - मुकेश और अनिल में संपत्ति विवाद गहरा होता चला गया। बात जब कोर्ट गई तो दोनों ने नामवर वकीलों को अपने पक्ष में दलीलें देने के लिए रखा। इस प्रक्रिया में दोनों ने करीब दो सौ करोड़ रुपये फूंक भी दिए। अंत में, बैंकिग की दुनिया के प्रमुख हस्ताक्षर के.वी. कामथ को मध्यस्थता और संपत्ति के बंटवारे के लिए रखा गया। फिर कहीं जाकर बात बनी। कामथ आईसीआईसीआई बैंक के फाउंडर चेयरमेन थे। हालांकि यह स्वीकार करना होगा कि बंटवारे के बाद मुकेश अंबानी ने जहां शिखर को छुआ, वहीं अनिल अंबानी अपने समूह को कायदे से दिशा देने में नाकाम रहे।
अब बात पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक बड़े औद्योगिक समूह की भी कर लेते हैं। यह समूह चीनी, धागे, टायर, घी वगैरह का उत्पादन करता था। इस समूह का देश में खासा नाम था। पर इसके चेयरमेन का 1970 के दशक के आरंभ में निधन हो गया। कुछ समय के लिए चेयरेमन के छोटे भाई को समूह का प्रमुख बना दिया गया। पर बडे भाई के पुत्रों ने विद्रोह कर दिया। इसके चलते यह समूह कलह-क्लेश का शिकार हो गया। इसकी पहले वाली स्थिति नहीं रही। अब यह समूह कतई खबरों में नहीं रहता किसी विशेष उपलब्धि के चलते। इसी तरह दिल्ली के डीसीएम समूह को गांधीवादी लाला श्रीराम ने शुरू किया था। उनके बाद, उनके दोनों पुत्रों लाला भरत राम तथा लाला चरत राम ने डीसीएस समूह को सही से चलाया। पर इनके बाद डीसीएम समूह बिखरने लगा। यानी तीसरी पीढ़ी इसे एक नहीं रख सकी। दोनों भाइयों के पुत्रों के बीच डीसीएम समूह की कंपनियां विभाजित हुई थीं। इससे पहले विवाद भी हुए। पर यह तो कहना ही होगा कि डीसीएम समूह ने शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में शानदार योगदान दिया। इस समूह की तरफ से श्रीराम कॉलेज आफ कॉमर्स, लेडी श्रीराम कॉलेज, श्रीराम कला केन्द्र जैसे स्तरीय संस्थान खोले गए। मुंबई में मफतलाल समूह में भी बंटवारे के सवाल पर लंबे समय तक बवाल चलता रहा। इसका समूह को नुकसान हुआ। मफतलाल समूह की विकास की रफ्तार धीमी पड़ गई। कायदे से बड़े घरानों का समय रहते ही बंटवारा हो जाना चाहिए। प्रोमोटर को चाहिए कि वे एक उम्र के बाद अपने समूह की संपत्तियों का अपने बच्चों में बंटवारा कर दे। इससे विवाद की नौबत नहीं आएगी। बंटवारे के बाद जिस-जिस के हिस्से में कंपनियां आएंगी वे उन्हें आगे लेकर जाएगे अगर बात गुजरे कुछ दशकों की करें तो हम देखते हैं कि कोलकाता के आरपी गोयनका समूह का बंटवारा सौहार्दपूर्ण माहौल में हुआ। आरपीजी समूह के चेयरमेन आर.पी.गोयनका ने अपनी कंपनियों को अपने दोनों पुत्रों- हर्ष और संजीव में वक्त रहते हुए बांट दिया। अब दोनों भाई अपने- अपने समूहों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। दोनों भाइयों में संबंध भी मधुर हैं। संजीव गोयनका उद्योग और वाणिज्य संगठन सीआईआई के अध्यक्ष भी रहे हैं। हर्ष ट्वीटर पर भी एक्टिव रहते हैं। वे सामयिक विषयों पर अपनी बेबाक राय रखते रहते हैं।
यहां पर एक बात कहने का मन कर रहा है कि उन घरानों में संपत्ति के बंटवारे को लेकर कोई विवाद कभी सुनने में नहीं आया जिनका स्वामित्व पारसियों के पास है। आप टाटा, गोदरेज, वाडिया वगैरह का इस बात उदाहरण दे सकते हैं। ये सभी एक सदी पुराने औद्योगिक घराने हैं। पर कभी याद नहीं पड़ता कि इनमें प्रोमोटरों के बीच में कभी कोई विवाद हुआ हो। इस बारे में अधिक गंभीरता से शोध करने की आवश्यकता है कि ऐसा क्यों हैं ? आप यह भी देखेंगे कि पारसी उद्योपतियों का लाइफ स्टाइल कोई बहुत खर्चीला भी नहीं होता। ये सादगी से जीवन व्यतीत करना पसंद करते हैं। अब रतन टाटा को ही लें। वे कोई सौ-दो करोड़ के आलीशान घर में नहीं रहते। कायदे से सभी धनी लोगों को रतन टाटा से प्रेरणा लेनी चाहिए।
खैर, हम अपने मूल विषय की तरफ वापस चलेंगे। सबसे आदर्श स्थिति यह होगी कि जब किसी कंपनी या समूह के प्रोमोटरों में संपत्ति विवाद हो तो सारा मसला मध्यस्थता से हल कर लिया जाए। इस स्थिति के चलते कंपनी की ग्रोथ भी प्रभावित नहीं होगी और शेयर धारकों के हितों की रक्षा भी हो जाएगी।
दरअसल संपत्ति बंटवारे को लेकर होने वाले विवाद के मूल में एक बड़ा कारण यह भी होता कि कंपनी या समूह का चेयरमेन बनना। बेहतर होगा कि प्रोमोटर किसी पेशेवर को यह जिम्मेदारी दें कि वह कंपनी को चलाए। हां, प्रोमोटर अपने पेशेवर चीफ एक्जीक्यूटिव आफिसर (सीईओ) पर नजर रखे। उसे कंपनियों के लक्ष्यों के बारे में जानकारी देता रहे। अब देश की प्रमुख आई टी कंपनियों को ही ले लें। इनमें प्रोमोटरों ने सीईओ पद पर पेशेवरों को नियुक्त कर दिया है। वह ही कंपनी का विस्तार कर रहा है और आगे लेकर जा रहा है। विप्रो, इंफोसिसस, टीसीएस, एचसीएल वगैरह में यही हो रहा है। इससे कंपनियों के विभाजन का कोई मसला नहीं आता। दरअसल प्रोमोटरों को वक्त के साथ बदलना होगा। उन्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि अगर वे मैनेजिंग डायरेक्टर या सीईओ के पद पर नहीं रहेंगे तो कंपनी बैठ जाएगी।यह सोच गलत है। देखिए बड़े समूहों तो बंटेगे और उनका टेकओवर भी होगा। इसे कोई नहीं रोक सकता। पर यह सब कुछ बेहतर तरीके से हो जाए तो सबके हित में होगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)