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कैसे बनी हिंदी विश्व भाषा

Nilmani Pal
16 Feb 2023 7:52 AM GMT
कैसे बनी हिंदी विश्व भाषा
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आर.के. सिन्हा

भारत से दूर प्रशांत महासागर के द्वीप लघु भारत फीजी में 12 वां विश्व हिन्दी सम्मेलन वैदिक मंत्रोच्चार के बीच विधिवत उद्घाटन फिजी के राष्ट्रपति रातू विनिमाये कोटो निवरी और भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने संयुक्त रूप से किया I इस अवसर पर विश्व के पचासों देशों के हिंदी के विद्वान हिंदी प्रेमी सम्मलेन में भाग लेने के लिए एकत्र होकर इसके विश्व स्तरीय प्रसार-प्रचार पर चर्चा कर रहे हैं। वहां पर अनेकों शोध पत्र पढ़े जा रहे हैं तथा सारगर्भित चर्चाएं हो रही हैं। पर हिन्दी तो अब विश्व भाषा बन चुकी है। अंग्रेजी और चीनी (मैंडरिन) के बाद हिंदी ही एक वडी और लोकप्रिय भाषा के रूप में उभरी है I फ्रेंच, जर्मन और स्पेनिश को पीछे छोड़ते हुए हिंदी लगातार आगे बढ़ रही है I आप दुबई, सिंगापुर, न्यूयार्क, सिडनी, लंदन जैसे संसार के प्रमुख शहरों में इसे सुनेंगे। कभी दुबई जाइये। आपको एयरपोर्ट से लेकर बाजारों में हिन्दी सुनाई देगी। एयरपोर्ट में इमिग्रेशन विभाग में पहुंचिए। वहां पर अरब के नागरिक बैठे हैं। वे आपसे हिन्दी में सवाल-जवाब कर लेंगे। बातचीत संक्षिप्त होगी पर होगी आपकी भाषा में। हिन्दी जानना समझना भारत से बाहर भी एक व्यावसायिक आवश्कता बनती जा रही है। दुबई में स्थित दुनिया की सबसे ऊँची बुर्ज खलीफा नाम की इमारत के सबसे ऊपर पर्यटक फोटो खिंचवा रहे होते हैं। फोटो लेने वाले अधिकतर फिलीपींस के नागरिक होते हैं। वे आपसे पूछेंगे - 'फोटो खीचें।' 'अच्छी फोटो आएगी।' आप उनसे पूछते हैं कि 'वे हिन्दी कैसे बोलना जाने?' जवाब मिलता है- 'यहां पर आने वाले अधिकतर भारतीय होते हैं। इसलिए हमने अपने काम की जरूरत समझकर हिन्दी सीखी।' यकीन मानिए हिन्दी को जानने-समझने की लालसा समूचे संसार में देखी जा रही है। हिन्दी प्रेम और मानवीय संवेदनाओं की बेजोड़ भाषा है। भारत से बाहर लगभग सभी टैक्सी वाले भी कुछ न कुछ हिन्दी समझ लेते हैं । कम से कम एकाध लाइन हिंदी फिल्मों का गाना तो गुनगुना ही देते हैं।

आप कभी सिंगापुर जाइये। वहां पर एक क्षेत्र का नाम है लिटिल इंडिया। वहां पर अधिकतर तमिलभाषी भारतवंशी रहते हैं। पर वे बेहिचक और प्यार से हिंदी बोलते हैं I वहां के बाजारों में साइन बोर्ड तक हिन्दी में मिलेंगे। वहां पर ही एक डीएवी हिन्दी स्कूल का बोर्ड भी दिखाई देगा। वहां पर जाकर पता चलता है कि सिंगापुर में रहने वाले सारी दुनिया के भारतीय यहां अपने बच्चों को भेजते हैं ताकि वे हिन्दी को पढ़-लिख सकें। यहां पर गैर-भारतीय भी अपने बच्चों को भेजते हैं। ये स्कूल पिछली आधी सदी से चल रहा है। इसने हजारों-लाखों बच्चों को हिन्दी से जोड़ा है। अभी नहीं 1984 में मैं पहली बार मारीशस गया था I एक दिन पोर्ट लुईस के चाइना बाजार में घूम रहा था I मुझे एक दूकान से भोजपुरी मिश्रित हिंदी सुनाई पड़ी, "ले लड, ले लड 500 रुपया में एकदम नीमन सूट I" मैंने देखा तो एक अधेड़ चाइनीज एक सूट दिखाता हुआ मुसकुरा रहा था I यह है हिंदी का बढ़ता प्रभाव I

दरअसल अब भारत की सीमाओं को लांघ चुकी है हिन्दी। हिन्दी को भारत के बाहर के बाजारों, मॉल्स, यूनिवर्सिटी कैंपस, एफएम रेडियो और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर सुन सकते हैं। दुबई के कई मॉल्स में हिन्दी के बोर्ड मशहूर ब्रांड्स के शो-रूम में देखेंगे। वहां पर तो हिन्दी संपर्क भाषा का काम कर रही है। बिना हिन्दी को जाने आपका काम ही नहीं चलता। इसी तरह से आप जब मिस्र की राजधानी काहिरा के एयरपोर्ट पर उतरते हैं तो आपको सब तरफ हिन्दी सुनाई देती है। आपसे टैक्सी वाला और टुरिस्ट गाइड पूछने लगते हैं- 'कहां जाना है?' 'क्या हाल है?' 'इंडिया से?'आपको यकीन नहीं होता कि आप अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर हैं। बेशक, हिन्दी विश्व भाषा बन चुकी है। इसके दो-तीन कारण तो समझ में भी आते हैं। पहला, पूरी दुनिया में करीब दो करोड़ से ज्यादा प्रवासी भारतीय बसे हुए हैं। ये भारतीय अपने साथ हिन्दी भी लेकर बाहर गए हैं। भले ही कोई दक्षिण भारतीय शख्स भारत में तमिल में ही बतियाता हो, पर देश से बाहर वह भी किसी अन्य भारतीय के साथ हिन्दी ही बोलता है।

हां, यह कहना होगा कि फीजी में चल रहे विश्व हिन्दी सम्मेलन में बॉलीवुड के किसी अभिनेता, अभिनेत्री, गीतकार, संवाद लेखक आदि का न होना जरूर खला। क्या हिन्दी सेवी सिर्फ स्कूल- कॉलेज में पढ़ाने वाले हिन्दी के अध्यापक, पत्रकार, कवि या कहानीकार ही हैं? यह स्वीकार करना होगा कि हिन्दी को दुनिया के कोने-कोने में लेकर जाने में हिन्दी फिल्मों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। आज सारी दुनिया में हिन्दी फिल्मों के चाहने वाले हैं। ये सब हिन्दी फिल्मों की मार्फत हिंदी गानों के प्यार से हिन्दी से जुड़ रहे हैं। अमिताभ बच्चन से बड़ा हिन्दी सेवी कौन होगा। अमिताभ बच्चन के चाहने वाले अमेरिका, ब्रिटेन, मिस्र जॉर्डन, सउदी अरब, मलेशिया, समूचे अफ्रीका आदि तमाम देशों में हैं। मुझे कई बार मिस्र जाने का अवसर मिला। वहां पर मुझसे करीब एक दर्जन लोगों ने अमिताभ बच्चन के बारे में पूछा जब उन्हें पता चला कि मैं भारत से हूं। उन्हें भोपाल में हुए आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में आमंत्रित किया गया तो कुछ हिन्दी के तथाकथित मठाधीश शोर करने लगे। मैं भी आमंत्रित था, गिरमिटिया देशों में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य पर बोलने के लिये I तत्कालीन गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा अध्यक्षता कर रही थीं I हम सभी इस अनावश्यक शोर से दु:खी थे I शोर वे मचा रहे थे, जिनकी एक किताब की 100 प्रतियां भी जिंदगी भर में नहीं बिक पाती हैं। अंत में अमिताभ बच्चन ने खुद तय किया कि वे भोपाल में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन से दूर ही रहें । नुकसान तो हिंदी का ही हुआ न ? आप बता दीजिए कि लता मंगेशकर या आशा भोंसले से बड़ा और सच्चा हिन्दी सेवी कौन होगा। इस विश्व हिन्दी सम्मेलन में शायद ही किसी गैर-हिन्दी भाषी राज्यों के हिन्दी विद्वान को लेकर जाया गया। जबकि भारत के दक्षिण और पूर्वोत्तर के राज्यों में हिन्दी के गैर-हिन्दी भाषी सैकड़ों शिक्षकों ने बेहतरीन काम किया है। मुझे यहां वेंकट सुंदरम जैसे हिन्दी सेवी की चर्चा करने दीजिए। उनका संबंध राजधानी के एक प्रतिष्ठित तमिल परिवार से है। दिल्ली और उत्तर क्षेत्र की क्रिकेट टीमों के कप्तान रहे वेंकट सुंदरम क्रिकेट से सन्यास लेने के बाद आकाशवाणी पर हिन्दी के कमेंटेटर बन गए। वेंकटसुंदरम ने 80 से अधिक टेस्ट और एकदिवसीय मैचों की कमेंटरी की हैं। वे कहते हैं, "मुझे हिन्दी कमेंटरी करने के चलते सारे देश में पहचान मिली।" वे भी हिन्दी की अभूतपूर्व ताकत को मानते हैं। वेंकट सुदरम की एक बहन का विवाह पूर्व विदेश सचिव जेएन दीक्षित से हुआ है। क्या वेंकट सुंदरम जैसे हिन्दी सेवी को विश्व हिन्दी सम्मेलन का हिस्सा नहीं होना चाहिए था ? इसी क्रम में दूरदर्शन के गुजरे दौर के मशहूर हिन्दी समाचार वाचक जेवी रमण का उल्लेख करना समीचीन रहेगा। वे तेलुगू भाषी थे, पढ़ाते थे दिल्ली यूनिवर्सिटी में इक्नोमिक्स। वे 1973 में दूरदर्शन से जुड़े। वे हिन्दी-अंग्रेजी दोनों की खबरें पढ़ने लगे। रमण जी जैसा टीवी पर खबर पढ़ने वाला मिलना मुश्किल है। वो कभी एक शब्द का भी गलत उच्चारण नहीं करते थे। हिन्दी समाज को वेंकट सुंदरम तथा जेवी रमण जैसे हिन्दी सेवियों के प्रति भी कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

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