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मुलायम सिंह यादव कैसे बने थे विलेन? पढ़े पूरी स्टोरी

jantaserishta.com
28 Jan 2022 4:28 AM GMT
मुलायम सिंह यादव कैसे बने थे विलेन? पढ़े पूरी स्टोरी
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नई दिल्ली: उत्तराखंड चुनाव में बीजेपी बनाम कांग्रेस की कांटे की टक्कर देखने को मिल रही है. आम आदमी पार्टी भी पूरा दमखम लगा रही है. इसके अलावा सपा और बसपा भी उत्तराखंड की सियासत में किस्मत आजमाती रही है. बसपा को तो कुछ सीटें मिलती रही हैं, लेकिन सपा को जीत सिर्फ एक सीट पर एक बार ही नसीब हो पाई. वह जीत विधानसभा चुनाव में ना होकर लोकसभा में मिली थी.

सपा उत्तराखंड चुनाव में हर बार कोशिश करती है और इस बार भी प्रत्याशी मैदान में हैं. मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी की बुनियाद रखने के बाद पार्टी का पहला सम्मेलन इसी उत्तराखंड के नैनीताल में रखा था. लेकिन इस सब के बावजूद भी राज्य बनने के दो दशक के बाद भी सपा की साइकिल उत्तराखंड के पहाड़ों पर नहीं चढ़ पाई है.
सपा से उत्तराखंड के लोगों की बेरुखी की वजह 27 साल पहले रामपुर तिरहा कांड की घटना से जुड़ी हुई है, जिसके चलते प्रदेश के लोगों का दिल आज भी सपा के लिए नहीं पसीज रहा है.
मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा पर एक और दो अक्टूबर, 1994 की रात उत्तराखंड के लोगों के साथ बर्बरता को याद कर आज भी रूह कांप जाती है. उस रात न सिर्फ कई लोगों ने अपनी जान गंवाई बल्कि तमाम महिलाओं की जिंदगियां तबाह कर दी गईं. इस घटना को आज 27 साल बीत चुके हैं लेकिन लोगों के जख्म अभी भी हरे हैं. यही वजह है कि पहाड़े के लोग सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव को अपना सबसे बड़ा विलेन मानते हैं.
उत्तराखंड बनने से पहले मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. जल, जंगल, जमीन और पहाड़ से पलायन के मुद्दे को लेकर उत्तराखंड के अलग राज्य बनाने की मांग तेज हो रही थी. सड़कों पर प्रदर्शनकारी विरोध कर रहे थे, जो मुलायम सरकार के लिए मुसीबत बनता जा रहा था. पुलिस बल उसे शांत करने की कोशिश थी, सख्ती दिखाने के आदेश थे. नतीजा ये हुआ कि रामपुर तिहारा कांड में 7 आंदोलनकारी शहीद हो गए और कई लोग बुरी तरह जख्मी हुए.
इस घटना के कई सालों बाद कुछ पुलिसकर्मियों पर एक्शन हुआ, लेकिन जैसी न्याय की उम्मीद की गई, वो कभी नहीं मिल पाया.
दरअसल, उत्तराखंड अलग राज्य की मांग भले ही काफी पहले से उठ रही थी, लेकिन मंडल कमीशन के बाद अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के 27 फीसदी आरक्षण दिए जाने से यूपी के पहाड़ी लोगों में उत्तराखंड की मांग को तेज कर दिया. उन्हें लग रहा था कि 27 फीसदी आरक्षण के चलते उनकी नौकरियों पर मैदानी इलाकों के लोग कब्जा कर लेंगे. ऐसे में उत्तराखंड की मांग को लेकर आंदोलन तेज होने लगा, पूरे पहाड़ी इलाके को आंदोलन ने अपने जद में ले लिया था.
साल 1994 में सितंबर और अक्टूबर महीने में दो कांड हुए थे. पहले 2 सितंबर को मसूरीकांड में 6 आंदोलकारियों ने अपनी जान से हाथ धो दिया था. उत्तर प्रदेश से अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर राज्य आंदोलन संघर्ष समिति के नेतृत्व में प्रदर्शन चल रहे थे. 1 सितंबर 1994 को खटीमा में पुलिस ने आंदोलन को खत्म कराने के लिए प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसाईं थीं. इसके बाद एक सितंबर की रात ही संयुक्त संघर्ष समिति ने झूलाघर स्थित कार्यालय पर कब्जा कर लिया था और आंदोलनकारी वहीं धरने पर बैठ गए.
पुलिस ने पांच आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया था. इसके विरोध में दो सितंबर को नगर के अन्य आंदोलनकारियों ने झूलाघर पहुंचकर शांतिपूर्ण धरना शुरू कर दिया. रात से ही वहां तैनात सशस्त्र पुलिसकर्मियों ने बिना किसी पूर्व चेतावनी के मौन जुलूस निकाल रहे आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं, जिसमें छह आंदोलनकारी शहीद हो गए थे और एक पुलिस अधिकारी की भी मौत हुई थी. अब ये वो पहली बड़ी हिंसा रही जिसने तब के सीएम मुलायम सिंह यादव की छवि को उत्तराखंड की जनता के मन में धूमिल कर दिया.
क्या है राम तिराहा कांड?
मसूरीकांड के घटने से अलग राज्य बनाने का आंदोलन और भी तेजी से फैलने लगा. मुलायम सिंह यादव उत्तराखंड पृथक राज्य के पक्ष में नहीं थे. अलग उत्तराखंड की मांग कर रहे आंदोलनकारियों ने 2 अक्टूबर 1994 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करना तय किया. आंदोलनकारियों ने देहरादून से दिल्ली कूच करने का फैसला किया, लेकिन सरकार ने पहले से ही तय कर लिया था कि किसी भी सूरत में उन्हें दिल्ली नहीं पहुंचने देना है. आंदोलनकारियों को रोकने के लिए पहले नारसन बार्डर पर पुलिस ने नाकाबंदी की, लेकिन यहां पर आंदोलनकारियों के आगे पुलिस प्रशासन बेबस हो गया. इसके बाद गढ़वाल और कुमाऊ के आंदोलनकारी का काफिला दिल्ली की तरफ बढ़ा तो मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा पर पुलिस ने जबरदस्त नाकाबंदी कर रखी थी. ऐसे में पुलिस ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी- उत्तराखंड के आंदोलनकारियों को किसी भी सूरत में रामपुर तिरहे से आगे नहीं बढ़ने दिया जाएगा.
प्रशासन के निर्देशों का पालन करने के लिए पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को रामपुर तिराहा पर रोक दिया. उस प्रदर्शन में छात्र थे, बड़े थे और महिलाएं थीं. ऐसे में उन्हें आगे जाने से रोका गया तो नाराजगी इस कदर बढ़ी कि पत्थरबाजी शुरू कर दी गई. फिर उस पत्थरबाजी का जवाब पुलिस ने अपनी लाठी और गोलियों से दिया. अंधाधुन फायरिंग कर दी गई, कई गाड़ियों में भी आग लगा दी गई थी. पुलिस की गोलियों से सात आंदोलनकारी शहीद हो गए थे. इस घटना ने उत्तराखंड के लोगों से मुलायम सिंह यादव को दूर कर दिया. रामपुर कांड का कलंक सपा आजतक नहीं धुला पाई.
विवादित बयान और सपा का गिरता प्रदर्शन
इतना ही नहीं उत्तेजना में आकर मुलायम सिंह यादव ऐसे बयान दे चुके थे कि पहाड़ी क्षेत्र में उनकी स्वीकृति होना मुश्किल नहीं नाममुकिन सा बन गया था. ऐसे ही एक विवादित बयान में उन्होंने कहा था कि मैं उनकी परवाह क्यों करूं, कौन सा उन्होंने मुझे वोट दिया था. ये बयान मुलायम सिंह यादव ने उन लोगों की मांग पर दिया था जो उत्तराखंड को अलग राज्य बनाना चाहते थे. ऐसे में लोगों के लिए मुलायम का ये बयान बताने के लिए काफी था कि यूपी के 'नेताजी' पहाड़ी लोगों के और उनकी जरूरतों के प्रति हितैषी नहीं हैं.
इसी का नतीजा है कि उत्तराखंड में सपा अपनी सियासी आधार नहीं खड़ा कर पाई बल्कि हर बीतते चुनाव के साथ पहाड़ी राज्य में समाजवादी पार्टी का वोट शेयर गिरता गया, सीटें तो मिल ही नहीं रही थीं. 2002 के चुनाव में सपा ने 56 सीटों पर चुनाव लड़ा था, आठ फीसदी वोट प्राप्त किए लेकिन सीटें रह गईं शून्य. फिर 2007 के चुनाव में पार्टी ने फिर अपनी किस्मत आजमाई, 42 सीटों पर लड़ी और पार्टी का वोट शेयर साढ़े छह फीसदी रह गया. 2012 के चुनाव में पार्टी 32 सीटों पर चुनाव लड़ी और डेढ़ प्रतिशत वोट ही मिल सके.
2017 में सपा ने 18 सीटों चुनाव लड़ी और इस बार भी खाता नहीं खुला. वहीं, अब इस बार फिर सपा चुनावी मैदान में उतरी है, उत्तराखंड के लिए अपने उम्मीदवार भी घोषित कर दिए हैं, लेकिन वहां के लोगों दिल में आज भी जख्म हरे हैं और पार्टी के प्रति उनका गुस्सा सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ. यही वजह है कि सपा उत्तराखंड में कभी भी अपना सियासी आधार खड़ा नहीं कर सकी.
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