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कृषि-क्रांति एवं खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के महानायक

Nilmani Pal
29 Sep 2023 8:09 AM GMT
कृषि-क्रांति एवं खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के महानायक
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ललित गर्ग

भारत में कृषि-क्रांति के जनक, विश्व खाद्य पुरस्कार पाने वाले पहले व्यक्ति, कृषि में नवाचार के ऊर्जाघर एवं कृषि विज्ञानी डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन का देह से विदेह हो जाना एक स्वर्णिम युग की समाप्ति है, एक अपूरणीय क्षति हैं। भारत को अन्न के अकाल से मुक्त कर अन्न का भंडार बनाने वाले इस कृषि-युगपुरुष के अवदान इतने बहुमुखी और दीर्घायुष्य है कि वे सदिया तक कृतज्ञ राष्ट्र की धमनियों एवं स्मृतियों में जीवित रहेंगे। वे अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गये हैं कि भारतीय कृषि एवं वैश्विक खाद्य के संकट उभरने का नाम नहीं लेंगे। ‘कृषि क्रांति आंदोलन’ के वैज्ञानिक नेता के रूप में उनके अवदानों की शुरुआत 1943 के भीषण दुर्भिक्ष के दौरान हुई, जब चावल के एक-एक दाने के लिये लाखों लोगों ने दम तोड़ दिया था। इस घोर मानवीय त्रासदी एवं संकट ने केरल विश्वविद्यालय के इस अठारह वर्षीय युवा स्वामीनाथन में देश की भूख मिटाने की प्रतिबद्धता एवं संकल्प को जाग्रत किया और इसके लिये कृषि अनुसंधान के प्रति एक जुनून एवं जिजीविषा पैदा की। उन्होंने गेहूं एवं चावल की उच्च उपज वाली किस्मों को विकसित करने के मिशन पर काम शुरु कर भारत की कृषि में नव स्वस्तिक उकेरे। उनकी कृषि क्रांति ने भारत को दुनिया में खाद्यान्न की सर्वाधिक कमी वाले देश के कलंक से उबारकर 25 वर्ष से कम समय में आत्मनिर्भर बना दिया था। उस समय से भारत के कृषि पुनर्जागरण ने सदाबाहर कृषि क्रांति की ओर उन्मुख अवलंबनीय कृषि की वकालत ने उन्हें अवलंबनीय खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में विश्व नेता का दर्जा दिलाया।

मनकोम्बु संबासिवन स्वामिनाथन का जन्म 7 अगस्त 1925 को हुआ। उन्होंने 1966 में मैक्सिको के बीजों को पंजाब की घरेलू किस्मों के साथ मिश्रित करके उच्च उत्पादकता वाले गेहूं के संकर बीज विकसित किए। एम. एस. स्वामीनाथन को ‘विज्ञान एवं अभियांत्रिकी’ के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन् 1967 में ‘पद्मश्री’, 1972 में ‘पद्म भूषण’ और 1989 में ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया गया था। उन्हें 1971 में मैगसेसे एवं 1986 में अल्बर्ट आइंस्टीन वर्ल्ड अवार्ड भी प्रदत्त किये गये। विभिन्न पुरस्कारों और सम्मानों के साथ प्राप्त धनराशि से एम. एस. स्वामीनाथन ने वर्ष 1990 के दशक के आरंभिक वर्षों में ‘अवलंबनीय कृषि तथा ग्रामीण विकास’ के लिए चेन्नई में एक शोध केंद्र की स्थापना की। एम. एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन का मुख्य उद्देश्य भारतीय गांवों में प्रकृति तथा महिलाओं के अनुकूल प्रौद्योगिकी के विकास और प्रसार पर आधारित रोजग़ार उपलब्ध कराने वाली आर्थिक विकास की रणनीति को बढ़ावा देना है। स्वामीनाथन और उनके सहयोगियों द्वारा पर्यावरण, कृषि एवं खाद्यान्न प्रौद्यौगिकी के क्षेत्र में किए जा रहे कार्य को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली है। स्वामीनाथन दक्षिण एशिया के उत्तरदायित्व के साथ पर्यावरण प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में यूनेस्को में भी पदासीन रहे हैं। उनकी महान विद्वत्ता को स्वीकरते हुए इंग्लैंड की रॉयल सोसाइटी और बांग्लादेश, चीन, इटली, स्वीडन, अमरीका तथा सोवियत संघ की राष्ट्रीय विज्ञान अकादमियों में उन्हें शामिल किया गया है। वह ‘वर्ल्ड एकेडमी ऑफ साइंसेज़’ के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। 1999 में टाइम पत्रिका ने स्वामीनाथन को 20वीं सदी के 20 सबसे प्रभावशाली एशियाई व्यक्तियों में से एक बताया था।

भारत के भाल पर अनूठा एवं विलक्षण करने वाले महान् व्यक्तियों में स्वामीनाथन एक थे। स्वामीनाथन सच्चे भारतीय एवं राष्ट्रीयता से ओतप्रोत व्यक्तित्व थे। जब देश राजनीतिक आजादी के लिए संघर्षरत था, तब युवा स्वामीनाथन ने देश को भूख से आजादी दिलाने के लिए कड़ा संघर्ष किया एवं सफलता का नया इतिहास रचा। उन्होंने आजाद भारत में अनाज की पैदावार बढ़ाने की अनूठी एवं प्रभावी तकनीक को आकार दिया। यह उन्हीं का सपना था कि भारत जैसे देश में अनाज इतना ज्यादा मात्रा में पैदा हो कि यहां किसी को भूखे न सोना पड़े बल्कि दूसरे देशों की भूख मिटाने में भी अग्रसर हो। आज आजादी के अमृतकाल में भारत कई देशों को अनाज का निर्यात करता है, यह उन्हीं की देन हैं। उन्होंने कृषि में नवाचार लाते हुए अनेक प्रयोग किये, आलू की एक ठंड-प्रतिरोधी किस्म विकसित की थी। चावल और गेहूं की उपज में क्रांति ही ला दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनके सुझावों एवं प्रयोगों पर बल दिया और अपने देश के अनाज भंडार भरने लगे। आज अगर हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह बोलने की स्थिति में हैं कि भारत दुनिया को खिला सकता है, तो निस्संदेह, इसका सर्वाधिक श्रेय स्वामीनाथन को जाता है।

भारत लाखों गाँवों का देश है और यहाँ की अधिकांश जनता कृषि के साथ जुड़ी हुई है। इसके बावजूद अनेक वर्षों तक यहाँ कृषि से सम्बंधित जनता भी भुखमरी के कगार पर अपना जीवन बिताती रही। इसका कारण कुछ भी हो, पर यह भी सत्य है कि ब्रिटिश शासनकाल में भी खेती अथवा मजदूरी से जुड़े हुए अनेक लोगों को बड़ी कठिनाई से खाना प्राप्त होता था। लम्बा दौर अकाल की चपेट में रहा। भारत के सम्बंध में यह भावना बन चुकी थी कि कृषि से जुड़े होने के बावजूद भारत के लिए भुखमरी से निजात पाना कठिन है। इसका कारण यही था कि भारत में कृषि के सदियों से चले आ रहे पुरातन उपकरण और बीजों का प्रयोग होता रहा था। फसलों की उन्नति के लिए बीजों में सुधार की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया था। भारत की कृषि में अभिनव-क्रांति की अपेक्षा थी, जिसे स्वामीनाथन ने अंजाम दिया। गांवों की दशा एवं दिशा बदलने, किसानों के कल्याण और समाज के सबसे गरीब लोगों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध स्वामीनाथन की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी। उन्होंने कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए अपने जीवन का एक लंबा समय लगा दिया था। उन्होंने 1960 के अकाल के दौरान अमेरिकी वैज्ञानिक नॉर्मन बोरलॉग एवं अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर गेहूं की उच्च एवं उन्नत पैदावार वाली किस्म के बीज विकसित किये।

स्वामीनाथन के प्रयत्नों का ही परिणाम है कि भारत खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बन चुका है। उन्होंने अनेक अहम पदों पर रहते हुए भारत की कृषि को नये आयाम दिये। उन्नत कृषि के नये दरवाजों को उद्घाटित किया।ं कृषि नीतियां बनाने में विभिन्न सरकारों के मार्गदर्शक एवं प्रेरणास्रोत रहे। पैदावार के न्यूनतम मूल्य निर्धारण से लेकर खेती को घाटे से उबारने के लिये उनकी कमेटी की सिफारिशें भविष्य में मार्गदर्शक एवं आधार-दृष्टि बनी रहेगी। खेती में बने लैंगिक भेदभाव को दूर कर महिला मजदूरों के सशक्तिकरण के वे पहले प्रयोगकर्ता थे। यह कितना सुखद है कि देश के करोड़ों लोगों के लिए आशा की किरण बने एवं भोजन जुटाने में सहायक रहे कृषि वैज्ञानिक को 98 वर्ष का लंबा जीवन नसीब हुआ और उनकी पुत्री व डब्ल्यूएचओ में पूर्व मुख्य वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामीनाथन ने देश को बहुत गर्व के साथ बताया कि स्वामीनाथन बहुत शांति से दुनिया से विदा हुए हैं। किसानों के कल्याण और समाज के सबसे गरीब लोगों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध स्वामीनाथन की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी। स्वामीनाथन ने उद्देश्यपूर्ण जीवन जीकर जो ऊंचाइयां एवं उपलब्धियां हासिल की हैं, वे किसी कल्पना की उड़ान से भी अधिक हैं। कृषि महावीर वैज्ञानिक का यह देश सदैव ऋणी रहेगा। आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में उनका अनुपम योगदान हमारे इतिहास का एक अमिट आलेख है।

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