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ग़ज़ल वही अच्छी जो अपना असर दिखाए : बिलगरामी

Nilmani Pal
11 Jan 2022 10:03 AM GMT
ग़ज़ल वही अच्छी जो अपना असर दिखाए : बिलगरामी
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नई दिल्ली। मूलतः गीत और ग़ज़ल विधाओं में काव्य सृजन करने वाले जाने-माने गीतकार और शायर शिवकुमार बिलगरामी की रचनाओं को देश-विदेश के कई मशहूर गायकों ने अपनी सुरमई आवाज़ की जादू से संवारा है। कैलाश खेर, शान, अभिजीत, सुरेश वाडेकर, अनुराधा पौडवाल, साधना सरगम, के एस चित्रा, जसपिंदर नरूला, हेमा सरदेसाई, महालक्ष्मी अय्यर जैसे बॉलीवुड के मशहूर गायकों के अलावा शाद ग़ुलाम अली (पाकिस्तान) और पंडित अजय झा (अमरीका) जैसे मशहूर गायकों ने उनकी कलमबद्ध की गयी रचनाओं को स्वरबद्ध किया है।

आकाशवाणी और दूरदर्शन पर उनका काव्य पाठ और और उनके द्वारा रचित गीतों की संगीतमयी प्रस्तुति होती रही है। सम्प्रति वह लोकसभा सचिवालय में संपादक हैं। 'जनता से रिश्ता' के साथ एक विशेष भेंटवार्ता में उन्होंने कविता, ग़ज़ल, स्तरीय लेखन/ रचनाओं के ह्रास, फिल्मों से ग़ज़लों का लोप सरीखे कई अहम विषयों पर विस्तार से अपने विचारों को साझा किया।

आप एक सुविख्यात कवि और शायर हैंI एक अच्छी कविता अथवा एक अच्छी ग़ज़ल को आप कैसे परिभाषित करेंगे ?

कविता और ग़ज़ल में काफी फर्क है। कविता मूलतः हिंदी काव्य लेखन से जुड़ी है, जबकि ग़ज़ल उर्दू और हिंदुस्तानी ज़बान में कही जाती है, हालांकि अब इसे हिन्दी काव्य लेखन में भी बड़े पैमाने पर अपनाया जा रहा है। कविता में छंद बद्ध कविता और छंद मुक्त कविता दोनों शामिल हैं। इसलिए इसकी विषयगत व्यापकता बहुत अधिक है। कविता में मूलतः कथन पर जोर दिया जाता है।

वर्तमान में कविता का तात्पर्य छंद मुक्त कविता से लगाया जा रहा है और इसमें विचार प्रमुख होता है। भाव उतना महत्व नहीं रखता। कविता में सपाट बयानी नहीं है। कथ्य को काफी घुमा फिरा कर कहा जाता है। उसमें एक तरह की बौद्धिक कसरत शामिल है। लेकिन ग़ज़ल कभी भी छंद मुक्त नहीं हो सकती। ग़ज़ल लेखन का अपना एक क़ायदा है। ग़ज़ल को मीटर और बहर के पैमाने पर खरा उतरना होता है। इसके साथ ही ग़ज़ल के विषय बहुत चुनिंदा हैं। ग़मे जानां और ग़मे दौरां से बाहर ग़ज़ल कहना आज भी बहुत मुश्किल से देखने को मिलता है। इसके अलावा ग़ज़ल में कला पक्ष के साथ-साथ भाव पक्ष भी बहुत मजबूत होता है। जो भी ग़ज़लें मक़बूल हुई हैं उनमें उनके भावपक्ष की मज़बूती एक बड़ा कारण रही है। जहां तक अच्छी कविता और अच्छी ग़ज़ल को परिभाषित करने का सवाल है यही कहा जा सकता है कि जो कविता और ग़ज़ल अपने पाठकों तक अपनी संपूर्णता में पहुंच जाए और उस पर अपना असर दिखाए वही कविता अच्छी कविता है और अच्छी ग़ज़ल अच्छी ग़ज़ल है।

दरअसल, ग़ज़ल का हर शेर अपनी जगह मुकम्मल होता है। वो कम शब्दों में बड़ी बात कहने का सलीका रखती है। इस पर कुछ रौशनी डालिए।

जी, आपने दुरुस्त कहा ग़ज़ल का हर शे'र मुकम्मल होता है। मुकम्मल के मानी हैं कि उस शे'र का ग़ज़ल से अलग भी अपना एक आज़ाद वुजूद होता है। किसी कविता या गीत की दो पंक्तियां अलग करके पढ़ी जाएं तो वो उतनी अर्थवान और प्रभावी नहीं रहतीं जितनी संपूर्ण कविता या गीत के साथ जुड़कर होती हैं। लेकिन ग़ज़ल में कहे गए अशआर की एक खासियत है कि वह ग़ज़ल के साथ कहे जाएं या आजाद रूप से उन्हें कहा जाए दोनों रूपों में उनकी अर्थवत्ता और प्रभावशीलता बनी रहती है। देखने में आता है कि कई शे'र आज़ाद तौर पर बहुत मक़बूल हैं, लेकिन वो जिस ग़ज़ल से हैं उस ग़ज़ल के बारे में लोगों को बहुत जानकारी नहीं है। दरअसल, ग़ज़ल में ऐसी कोई क़ैद नहीं होती कि उसका हर एक शेर आपस में कनेक्ट ही होना चाहिए। ग़ज़ल के हर शेर में एक आज़ाद ख़याली हो सकती है और इससे उसकी ख़ूबसूरती बढ़ती है। हर शेर में एक अलग विषय लिया जा सकता है। लेकिन ऐसी ग़ज़लें गाने के हिसाब से बहुत माक़ूल नहीं होतीं। गाने के लिए अमूमन उन्हीं ग़ज़लों को लिया जाता है जिनके सारे शे'र एक विषय पर केंद्रित होते हैं। ग़ज़ल लेखन की एक और ख़ूबी यह भी है कि इसके छंद विधान के कारण इसमें बहुत अधिक कसावट रखनी पड़ती है। कसावट का तात्पर्य है एक भी फ़ालतू शब्द इस्तेमाल करने से बचना होता है। ग़ज़ल के किसी भी शे'र से अगर कोई शब्द हटाया जाए या वहां पर कोई दूसरा शब्द लाया जाए तो उसका अर्थ बदल जाता है। इसीलिए शायर अपनी ग़ज़लों में एक-एक शब्द को बहुत नापतोल कर रखता है। ग़ज़ल में ऐसी कोई गुंजाइश नहीं रखी जाती कि उसके शब्दों में हेरफेर किया जा सके। इसी को गागर में सागर भरना कहते हैं।

अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आजकल स्तरीय लेखन/ रचनाओं का ह्रास होते जा रहा है। आप इससे कितना सहमत हैं ?

स्कूल के दिनों में हमारे इम्तिहानों में जिन विषयों पर निबंध लिखने को दिए जाते थे उनमें एक विषय बड़ी प्रमुखता से दिया जाता था – साहित्य समाज का दर्पण है। यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है। साहित्य अपने काल के समाज को प्रतिबिंबित करता है। समाज में जब सभी क्षेत्रों में पतन और ह्रास देखने को मिल रहा है तब साहित्य भी इससे अछूता नहीं रह सकता, हालांकि मेरा मानना है कि साहित्य के क्षेत्र में ऐसा बिलकुल नहीं होना चाहिए। साहित्य का काम ही विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों में समाज का मार्गदर्शन करना है। लेकिन बाजारवाद का असर साहित्य पर भी दिखाई दे रहा है। साहित्य लेखन का ध्येय बदल गया है। जितना भी कालजयी साहित्य सृजित हुआ है उसका ध्येय लोक कल्याण और लोक रंजकता रहा है। लेकिन अब साहित्य सृजन का ध्येय पद, पुरस्कार, धन और यश प्राप्ति की कामना है। ध्येय बदलने से दृष्टि भी बदली है। यह एक तरह से आत्म केन्द्रित हो गई है। इसी कारण आमतौर पर अच्छा साहित्य नहीं लिखा जा रहा है। लेकिन इसके अपवाद भी हैं। जिन साहित्यकारों ने अपनी दृष्टि को व्यापक और जन केंद्रित रखा है वो आज भी अच्छा साहित्य लिख रहे हैं।

यहाँ तक कि फिल्मों से भी ग़ज़लों का लोप होता जा रहा है। इसकी क्या वजह हो सकती है ?

फिल्मों से ग़ज़लों का लोप होना बहुत दुखदाई है। सिर्फ़ ग़ज़लें ही नहीं फिल्मों से संगीत खत्म होता जा रहा है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय समाज में लोगों की संगीत की ज़रूरत फिल्मों से पूरी हो रही थी। लोक गीत और लोक संगीत लगभग हाशिए पर चला गया था। लेकिन पिछले एक दशक से फिल्मी गीत संगीत भी हाशिए पर चला गया है। इस दौरान शायद ही कोई ऐसी फिल्म आई हो जिसका गीत संगीत आम जनमानस के दिलों दिमाग़ में घर कर गया हो। युवा पीढ़ी का पाश्चात्य संगीत के प्रति रुझान और गानों में लिरिक्स को महत्व न दिए जाने के कारण यह दुखदाई स्थिति पैदा हुई है। लेकिन मैं अपने आसपास अक्सर देखता हूं कि नई पीढ़ी में भी अच्छे लिरिक्स की कद्र करने वाले युवाओं की बहुत बड़ी तादाद है और उम्र दराज़ लोग आज भी भावप्रधान गीत ग़ज़लों को सुनने में रुचि रखते हैं। मुझे लगता है देर सबेर थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ फिल्मों में गीत ग़ज़लों का दौर वापस आएगा।

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