डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर पिछले 4-5 वर्षों में जब भी मैं दुबई आता था तो जनरल परवेज़ मुशर्रफ से यहां मेरी लंबी मुलाकातें हुआ करती थीं। जब पिछले महिने विश्व हिंदी दिवस के सिलसिले में मैं दुबई आया था तो उनकी पत्नी सहबाजी से फोन पर बात हुई थी। उन्होंने बताया कि उनकी हालत ऐसी नहीं है कि वे किसी से बात कर सकें। वे लगभग बेहोश ही रहते हैं। इस बार मैं आया तो तीन दिन पहले मैंने फोन किया तो किसी ने भी नहीं उठाया। कल मालूम पड़ा कि उनका निधन हो गया। यदि मुशर्रफ कुछ वर्ष और जीते रहते तो शायद अपना सारा समय वे भारत-पाक संबंधों को सुधारने में बिता देते। यह बात मैं उन्हीं मुशर्रफ के बारे में कह रहा हूं, जिन्होंने करगिल-युद्ध भारत के विरूद्ध छेड़ा था। भारत से अच्छे संबंध बनाने के इच्छुक प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ का तख्ता-पलट इन्हीं मुशर्रफ ने 1999 में किया था। मुशर्रफ ने जिस दिन मियां नवाज़ का तख्ता उलटा था, उसी दिन संयोग की बात है कि अमेरिका के शहर शिकागो में मैं और मेरे दोस्त सय्यद बदरी कादरी जिस डाॅक्टर के घर अचानक खाना खाने पहुंचे थे, उसका नाम डाॅक्टर नावेद मुशर्रफ था। नावेद और उसकी फिलिपिनी पत्नी लगातार टीवी देखे जा रहे थे। मैंने पूछा, ऐसी क्या बात है? तो बोले देखिए, मेरे भाई परवेज़ ने अभी-अभी पाकिस्तान में तख्ता-पलट कर दिया है।
नावेद के बड़े भाई जनरल मुशर्रफ से मेरी इस्लामाबाद, दिल्ली और दुबई में कई बार भेंट होती रही है। मुशर्रफ ने भारत के विरुद्ध युद्ध भी छेड़ा, आतंकवाद को भी प्रश्रय दिया और पड़ौसी देशों में भारत-विरोधी माहौल बनाने की भी कोशिश की लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि उनके दिल में कहीं न कहीं यह भाव छिपा हुआ था कि वे दिल्ली में जन्मे हैं तो भारत का उन पर कुछ न कुछ कर्ज जरूर है, जिसे उन्हें उतारना ही चाहिए। इसीलिए डाॅ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री-काल में उन्होंने एक चार-सूत्री कार्यक्रम पर सहमति व्यक्त की थी, जिसमें कश्मीर के मसले का समाधान था लेकिन 2008 में उन्हें मजबूरन सत्ता छोड़नी पड़ी। उन पर तरह-तरह के आरोप लगे। उन्हें पाकिस्तान छोड़कर लंदन और दुबई रहना पड़ा। और अब दुबई में ही उनका निधन हो गया। मैं जब-जब दुबई में उनके घर मिलने जाता था तो कमजोरी के बावजूद वे मुझे छोड़ने दरवाजे तक चलकर आते थे। वे मुझसे कुछ माह बड़े थे लेकिन मुझे बड़े भाई की तरह आदर देते थे। दो-तीन साल पहले दुबई में एक मुलाकात के दौरान उन्होंने मुझसे कहा कि वे भारत के प्रधानमंत्री अटलजी को बहुत पसंद करते थे। मैंने उनसे पूछा कि जब वे पाकिस्तान गए थे तो सेना-प्रमुख होने के नाते आपने उन्हें सेल्यूट क्यों नहीं किया? वे जवाब टाल गए लेकिन उन्होंने हर बार कहा कि भारत-पाक रिश्ते सुधारने के लिए हमें हरचंद कोशिश करनी चाहिए। पिछले साल उन्होंने कहा कि आप, मैं और नार्वे के एक पूर्व प्रधानमंत्री- तीनों मिलकर एक मोर्चा बनाएं, जो भारत-पाक संबंधों को सहज करने के लिए काम करे। उनके इस प्रस्ताव पर मैं मौन ही रहा लेकिन वे जिंदा रहते तो वे शायद अपना शेष जीवन इसी महान लक्ष्य को साधने में लगा देते। जो काम अय्यूब खान ने 1966 में ताशकंद में शास्त्रीजी के साथ किया, उससे भी बड़ा काम वे शायद डाॅ. मनमोहनसिंह या नरेंद्र मोदी के साथ मिलकर कर देते। खैर! दिवंगत आत्मा को शांति मिले!