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घोर लापरवाही! जिला अस्पताल में 410 बच्चों को हेपेटाइटिस बी का एक्सपायर्ड टीका लगाया गया, स्वास्थ्य विभाग ने किया लोगों की सेहत से खिलवाड़

jantaserishta.com
17 March 2022 7:44 AM GMT
घोर लापरवाही! जिला अस्पताल में 410 बच्चों को हेपेटाइटिस बी का एक्सपायर्ड टीका लगाया गया, स्वास्थ्य विभाग ने किया लोगों की सेहत से खिलवाड़
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नई दिल्ली: झारखंड में स्वास्थ्य विभाग ने लोगों की हेल्थ के साथ खिलवाड़ किया है. रामगढ़ जिला अस्पताल में नवंबर 2018 से जनवरी 2019 तक 410 बच्चों को हेपेटाइटिस बी का एक्सपायर्ड टीका लगा दिया गया. यह खुलासा सीएजी (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में किया है. सीएजी ने बताया कि बच्चों को जो इंजेक्शन लगाया गया था, वो अक्टूबर 2018 में ही एक्सपायर हो चुका था.

वहीं दूसरी तरफ देवघर जिला अस्पताल में जुलाई 2018 से मार्च 2019 के बीच 4185 मरीजों को डेक्सोना का नकली इंजेक्शन लगाया गया था. 25 जुलाई 2018 और 23 जनवरी 2019 के बीच देवघर जिला अस्पताल को डेक्सोना 2 ML इंजेक्शन की 17500 शीशियां निर्गत की गई थी.
ड्रग इंस्पेक्टर ने उस बैच के इंजेक्शन के नमूने को 30 जुलाई 2018 को जांच के लिए गुवाहाटी स्थित क्षेत्रीय औषधि परीक्षण प्रयोगशाला भेजा. जहां इंजेक्शन को नकली घोषित किया गया. इसके बाद फिर देवघर सिविल कोर्ट के आदेश पर सीडीएल कोलकाता में नमूने की दोबारा जांच की गई. इस बार फिर इंजेक्शन की गुणवत्ता मानक के मुताबिक, नहीं मिली. इस बीच देवघर के स्टोर से 17,500 में से 4185 इंजेक्शन की शीशियां जारी कर दी गईं, जो मार्च 2019 तक मरीजों को दी गईं. इतना ही नहीं इंजेक्शन के सब स्टैंडर्ड पाये जाने की सूचना मिलने के बाद भी 12 मार्च से 31 मार्च 2019 के बीच 309 मरीजों को इंजेक्शन दिया गया था.
5 साल में रोगियों का भार 57 फीसदी बढ़ा, लेकिन डॉक्टर सिर्फ एक. झारखंड में लगभग 22500 डॉक्टर्स की कमी है. 1:1000 का रेश्यो WHO ने सेट किया है. ये उससे काफी कम है. झारखंड में डॉक्टर्स की संख्या को उस मानक तक पहुंचने में सालों साल लगेंगे. डॉक्टर्स बढ़ नहीं रहे लेकिन रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है.
रिपोर्ट पर प्रधान लेखाकार इंदु अग्रवाल ने कहा कि सीएजी ने 2014 से 19 तक झारखंड के 6 जिला अस्पतालों के विभिन्न पहुलाओं का अकलन किया. यह 6 जिला अस्पताल थे रांची, रामगढ़, हजारीबाग, पलामू, देवघर और इस्ट सिंहभूम के. पाया गया कि इन अस्पतालों के ओपीडी में 2014-15 की तुलना में 2018-19 में रोगियों के भार में 57 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. 14-15 में जहां ओपीडी में 7.5 लाख मरीज पहुंचते थे, वहीं 2019 में पेशेंट लोड 12 लाख पहुंच गया. लेकिन डॉक्टरों की संख्या नहीं बढ़ी. एक ही डॉक्टर ओपीडी में मरीजों के देख रहे थे. पहले जहां एक मरीज को डॉक्टर 5 मिनट का समय दे रहे थे. वहां अब 1 मिनट मिल रहा था. ओपीडी में रजिस्ट्रेशन, पेयजल और बैठने की भी उचित व्यवस्था नहीं थी.
6 जिला अस्पतालों में जांच के उपकरणों का भी भारी अभाव था. रांची में एक डेंटल एक्सरे मशीन 2017 में खरीदा गया. लेकिन वह 2017 तक इंस्टॉल नहीं किया जा सका. क्योंकि इंस्टॉल करने वाले टेक्नीशियन नहीं थे. अस्पतालों में 70 तरह के टेस्ट होते हैं 60 तरह के उपकरण होने चाहिए, जबकि जिला अस्पतालों में 12 से 18 उपकरण ही मौजूद थे. इनमें से भी अधिकांश खराब थे. वहीं लैब टेक्नीशियन की भी लगभग 77 फीसदी कमी थी. किसी अस्पताल ने सैंपल के क्रॉस वेरिफिकेशन के लिए एनएबीएल एक्रिडेशन भी नहीं लिय़ा था. मेडाल और एसआरएल के सैंपल का भी एनएबीएल एक्रिडेशन नहीं था. प्रधान लेखाकार ने बताया कि जिला अस्पतालों में 19 से 56 फीसदी डॉक्टरों की कमी है. वहीं 34 से 77 फीसदी पारा मेडिकल स्टॉफ और 11 से 87 फीसदी स्टॉफ नर्स की कमी है. ओटी में जहां 23 उपकरण बेहद जरूरी हैं. वहीं सिर्फ 12 तरह के उपकरण मिले. ओटी में जरूरी ड्रग का भी शॉर्टेज था.
संसाधनों और उपकरणों के कमी पर कई बार झारखंड हाई कोर्ट भी सरकार को फटकार लगा चुकी है. ओमिक्रोन का वेव खत्म हो चुका लेकिन अभी तक राज्य में एक भी genome सिक्वेंसिंग लैब की स्थापना नहीं हो सकी है. रिम्स में तकनीशियन और हेल्थ वर्कर्स के बहाली पे भी कई बार हाई कोर्ट फटकार लगा चुका है..
इंदु अग्रवाल ने कहा कि रांची सदर अस्पताल में 500 बेड के भवन निर्माण के लिए अगस्त 2007 में स्वीकृति दी गई थी. इसके लिए 131.14 करोड़ स्वीकृत हुए थे. तीन साल में निर्माण पूरा करना था. इसके लिए नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कॉरपोरेशन लिमिटेड के साथ एमओयू हुआ था. इसे बाद में 2012 तक एक्सटेंशन दिया गया. इस दौरान सरकार ने जिला अस्पताल को पीपीपी मोड पर चलाने का फैसला किया. जुलाई 2012 में अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम को लेनदेन सलाहकार के रूप में नामित किया गया. एनबीसीसी को उसके कार्य के लिए 137.38 करोड़ भुगतान किया गया. इसके बाद जनवरी 2014 में निविदा निकाली गई. जिसमें दो ही निवादा आये. इसके बाद दूसरी बार निविदा निकली, जिसमें एक भी निविदा नहीं आया. तब जाकर सरकार ने पीपीपी मोड के बदले विभाग द्वारा खुद इसके संचालन का निर्णय लिया और झारखंड राज्य भवन निर्माण निगम लिमिटेड को 307.97 करोड़ का प्रशासनिक अनुमोदन दिया गया. इस तरह 500 बेड के अस्पताल निर्माण में अलग-अलग तरह के फैसले लेने के कारण 12 साल से भी ज्यादा समय लगा.


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