भाग्यश्री बोयवाड
महाराष्ट्र
हमारे देश की अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र का एक बड़ा योगदान है. एक आंकड़े के अनुसार करीब 40 करोड़ लोग इस क्षेत्र में काम करते हैं. जिसमें बड़ी संख्या महिलाओं की है. कपड़े और गहने की छोटी बड़ी दुकानों के काउंटरों पर ज़्यादातर महिलाएं और किशोरियां ही नज़र आती हैं. ये अधिकतर निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों से होती हैं जो घर में आर्थिक मदद के लिए इन दुकानों पर काम करती हैं. कोरोना के बाद इनकी संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी देखने को मिली है. जहां इन्हें न्यूनतम वेतन पर अधिकतम घंटे काम करने होते हैं. न तो उनकी छुट्टियों का कोई हिसाब होता है और न ही काम की जगह पर इन्हें किसी प्रकार की बुनियादी सुविधा प्राप्त होती है. पुरुषों की तुलना में ज़्यादा काम के बावजूद इन्हें कम वेतन मिलता है. कई बार तो इन्हें मानसिक रूप से शोषण का भी सामना करना पड़ता है.
दिल्ली से सटे नोएडा, मुंबई, सूरत, नागपुर और नांदेड़ जैसे देश के कई बड़े छोटे नगर हैं जहां बड़ी संख्या में असंगठित क्षेत्रों में महिलाएं और किशोरियां बुनियादी सुविधाओं के अभाव के बीच काम करती हैं. चमचमाते शोरूम और बेहतरीन ड्रेस में मुस्कुराते हुए काउंटर पर खड़ी सेल्स वीमेन की दुनिया के पीछे छिपी कड़वी हकीकत कुछ और होती है. इनके लिए काम की जगह एक दूसरा घर होता है. जहां यह अपनी आधी ज़िंदगी गुज़ार देती हैं. हालांकि काम की जगह पर मानवाधिकारों की सुरक्षा महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर इसका उल्लंघन किया जाता है, तो श्रमिकों के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रभावित होता है. क्षेत्र अध्ययन के दौरान, मैंने पाया कि थोक और खुदरा कपड़ों की दुकानों के विपरीत, महाराष्ट्र के नांदेड़ में संचालित बुटीक की दुकानें और छोटी आभूषण की दुकानों में उचित बुनियादी सुविधाओं का पूरी तरह से अभाव है. बातचीत के दौरान बड़ी संख्या में किशोरियों ने अपने अनुभव साझा किए, इनमें से कई कम उम्र की थी. जो परिवार की आर्थिक मदद के लिए पढ़ाई छोड़कर सेल्स वीमेन का काम कर रही है. इस क्षेत्र में बाल श्रम भी आम है क्योंकि यह न केवल सस्ते में उपलब्ध हो जाते हैं बल्कि न्यूनतम मजदूरी पर भी काम करने को तैयार रहते हैं.
नांदेड़ के विभिन्न गारमेंट शॉप्स में हेल्पर के रूप में काम करने वाली लड़कियों को कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. बातचीत के दौरान रंजना नाम की एक महिला ने बताया कि यहां की ज्यादातर दुकानों में वॉशरूम की सुविधा उपलब्ध नहीं है. हमें आसपास के क्षेत्रों के सार्वजनिक शौचालयों, होटलों या अस्पतालों के शौचालय का उपयोग करने का निर्देश दिया जाता है. जहां आते जाते समय लोग उन्हें घूरते भी हैं. रंजना के मुताबिक, लड़कियों को शौच करने की अनुमति मांगने में भी शर्म आती है. वॉशरूम का इस्तेमाल कर उन्हें जल्दी काम पर वापस आना पड़ता है अन्यथा उन्हें दुकान के मालिक के ताने सुनने पड़ते हैं. कई बार रेहड़ी-पटरी वाले अश्लील इशारे करते हैं और सीटी भी बजाते हैं. सार्वजनिक शौचालयों में उचित साफ़ सफाई के अभाव में उनमें डायरिया, पेचिश और टाइफाइड जैसी बीमारियों का खतरा बना रहता है. सबसे अधिक उन्हें मासिक धर्म के दौरान होती है. जहां उन्हें सैनिटरी नैपकिन बदलने में भी कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
काम की समय सीमा के बारे में रंजना कहती है कि ''हमारे लिए समय की कोई सीमा नहीं है. हमें समय पर तो आना होता है लेकिन हम समय पर घर नहीं जा सकते हैं. अगर हम किसी ग्राहक को संभाल रहे हैं तो हमें तब तक रुकना पड़ता है जब तक वह कुछ खरीद नहीं लेता है. यदि कोई ग्राहक सुबह या दोपहर में आता है, तो उसे सर्वोत्तम सेवा देने के लिए कभी-कभी अपना दोपहर का भोजन और कभी-कभी अपना नाश्ता तक छोड़ना पड़ता है. यदि ग्राहक कुछ नहीं खरीदते हैं, तो उसका दोष हमारे काम के प्रदर्शन को दिया जाता है और दुकान मालिक द्वारा अपमानित किया जाता है." लंबे समय तक काम करना भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसका सामना सभी लड़कियों को करना पड़ता है. लंबे समय तक काम करने के बाद उन्हें खाना खाने के लिए ठीक से लंच ब्रेक भी नहीं मिल पाता है. कई बार उन्हें स्टॉक रूम या काउंटर पर ही भोजन करनी पड़ती है.
ऐसी परिस्थिति में काम करने वाली अकेली रंजना नहीं है बल्कि हर दूसरे कपड़े की दुकान का यही हाल है और शायद इन दुकानों की सभी लड़कियों को भी इसी तरह की कई अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. एक अन्य दुकान पर काम करने वाली सेल्स वीमेन सीमा बताती है कि, 'पहले उन्हें महीने में चार छुट्टियां मिलती थीं, लेकिन कर्मचारियों की कमी के कारण उन्हें महीने में तीन ही छुट्टियां मिल रही हैं.' हद तो यह है कि कुछ दुकानों में तो कर्मचारियों को महीने में दो ही छुट्टियां मिलती हैं. अगर वह इससे ज्यादा छुट्टियां लेती हैं तो उनके वेतन में से काट लिया जाता है. एक और बात मैंने देखी कि कार्यस्थलों पर भी कर्मचारियों के साथ लिंग और जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता है. महिलाओं और लड़कियों को आम तौर पर पुरुषों की तुलना में कम भुगतान किया जाता है, और उन्हें उच्च पदों पर भी नहीं रखा जाता है.
नांदेड़ में कपड़े की एक सबसे बड़ी दुकान में काम करने वाली कोमल बताती है कि उन्हें ड्यूटी के दौरान बैठने की भी अनुमति नहीं है, चाहे दूकान में ग्राहक हों या नहीं, इसलिए काम के बोझ के हिसाब से उन्हें कम से कम 8 घंटे और ज्यादा से ज्यादा 12 घंटे खड़े रहना पड़ता है. इसके अलावा उन्हें ऊपर और नीचे की मंज़िल पर आने जाने के लिए लिफ्ट के प्रयोग की भी अनुमति नहीं होती है. यह केवल दुकान के मालिक और ग्राहकों के लिए है. वहीं एक अन्य सेल्स गर्ल पूजा बताती हैं कि काम के दौरान किसी भी कर्मचारी को अपना फोन भी साथ रखने की इजाजत नहीं होती है. यहां तक कि अगर घर पर कुछ अप्रत्याशित भी होता है वह फोन नहीं कर सकती हैं. आपात स्थिति में उन्हें बाहर जाकर फोन बूथ से बात करनी होती है. ड्यूटी के दौरान एक प्रकार से वह लोग दुनिया से पूरी तरह से कट जाती हैं.
वास्तव में, असंगठित क्षेत्र का दायरा असीमित है जहां नौकरियां, अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा काफी हैं लेकिन न तो काम के अनुरूप वेतन होता है और न ही किसी प्रकार की सुविधा उपलब्ध होती है. इस क्षेत्र में महिलाओं की एक बड़ी संख्या जुड़ी हुई है जिसे पुरुषों की तुलना में कई गुना कम वेतन और सुविधाएं मिलती हैं. इसके साथ साथ उन्हें अक्सर शारीरिक और मानसिक रूप से शोषण का भी शिकार होना पड़ता है. लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति को देखते हुए वह इन्हें बर्दाश्त करने पर मजबूर होती हैं. हालांकि इनके खिलाफ देश में कई सख्त कानून भी हैं. ऐसे में ज़रूरत है एक ऐसी कार्य योजना को अमल में लाने की जिससे असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं और किशोरियों को आर्थिक शोषण से मुक्त हो सकें, क्योंकि इसी से शोषण के अन्य रास्ते खुलते हैं. लेखिका डब्लूएनसीबी की फेलो हैं. (चरखा फीचर)