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डॉ. एमएस स्वामीनाथन: वह व्यक्ति जिनकी दूरदर्शिता से अकाल से बाहर निकला भारत
jantaserishta.com
30 March 2024 8:08 AM GMT
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चेन्नई: भारत की हरित क्रांति के जनक डॉ. एमएस स्वामीनाथन के नाम से मशहूर मोनकोम्बु संबाशिवन स्वामीनाथन देश के महानतम कृषि वैज्ञानिकों में से एक थे। उनकी दूरदर्शिता की वजह से 60 के दशक में देश संभावित अकाल से बाहर निकलने में सफल रहा। डॉ. एमएस स्वामीनाथन का जन्म 7 अगस्त, 1925 को तमिलनाडु के कुंभकोणम में हुआ था। 98 वर्ष की आयु में 28 सितंबर, 2023 को चेन्नई में उनका निधन हुआ।
डॉ. स्वामीनाथन ने अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन बोरलॉग के साथ मिलकर कीट-प्रतिरोधी गेहूं की प्रजाति का विकास किया। उनके शोध के कारण किसानों को गेहूं और चावल की फसलों से अधिक उपज मिली। इससे देश को अकाल की स्थिति से बाहर निकलने में मदद मिली। डॉ. एमएस स्वामीनाथन और नॉर्मन बोरलॉग ने किसानों और अन्य वैज्ञानिकों के साथ एक जन आंदोलन का नेतृत्व किया, इसमें भारत में गेहूं और चावल के उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिली।
उनके पिता एक सर्जन थे। वह बेटे को अपनेे ही समान एक डॉक्टर बनाना चाहते थे। लेकिन उन्होंने चिकित्सा के बजाय कृषि को प्राथमिकता दी। उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज, तिरुवनंतपुरम, केरल से प्राणी विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की और 1944 में मद्रास विश्वविद्यालय से कृषि स्नातक की उपाधि हासिल की।
1943 में बंगाल में अकाल (वर्तमान बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल) से 10 लाख से अधिक लोगों की जान चली गई थी। इस घटना का युवा स्वामीनाथन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसके बाद उन्होंने देश की खेती के तरीकों और अनाज उत्पादन में सुधार के लिए अपना जीवन समर्पित करने का फैसला किया। वह भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई), नई दिल्ली में शामिल हुए और फसल सुधार में मदद के लिए साइटोजेनेटिक्स में विशेषज्ञता हासिल की।
उन्होंने आलू की फसल पर हमला करने वाले कीटों से निपटने में अनुसंधान के लिए संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) से आठ महीने की फेलोशिप प्राप्त की। 1952 में उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन किया और आनुवंशिकीविद् के रूप में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
डॉ. एमएस स्वामीनाथन ने अनाज को भारतीय मिट्टी के अनुकूल बनाने, अधिक उपज देने और संक्रमण-मुक्त रहने के लिए सराहनीय शोध किया। इससे गेहूं के उत्पादन में वृद्धि हुई। जब से उन्होंने गेहूं की नई किस्में पेश कीं, एक वर्ष में इसका उत्पादन तीन गुना बढ़ गया।
गेहूं के उत्पादन में इस वृद्धि के परिणामस्वरूप देश भर में किसानों ने नई किस्म अपनाई। उन्होंने फसल की हाईब्रिड प्रजातियों और बेहतर सिंचाई तकनीकों को भी लागू करना शुरू किया। इससे भारत 'दुनिया की रोटी की टोकरी' बन गया। डॉ. एमएस स्वामीनाथन 1972-1979 तक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के महानिदेशक थे।1982 में वह फिलीपींस के मनीला में अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआरआरआई) के महानिदेशक बने।
वह इस पद पर आसीन होने वाले पहले एशियाई थे और उनका काम मुख्य रूप से चावल की खेती में महिला किसानों की भागीदारी को बढ़ावा देना था। डॉ. एमएस स्वामीनाथन को पहले विश्व खाद्य पुरस्कार विजेता के रूप में चुना गया था। उन्होंने 1987 में पुरस्कार प्राप्त किया और पुरस्कार राशि से 1988 में चेन्नई में एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (एमएसएसआरएफ) की स्थापना की।
यह फाउंडेशन किसानों के बीच काम करता है और खाद्य सुरक्षा में सुधार के लिए कम लागत के तरीकों पर नई खेती की पहल को बढ़ावा देता है। 2002 में, डॉ एमएस स्वामीनाथन को नोबेल पुरस्कार विजेता, विज्ञान और विश्व मामलों पर पगवॉश सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। 2004 में, वह राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष बने। इसका गठन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने देश में किसानों की आत्महत्याओं को रोकने के लिए किया था।
वह 2005 में संयुक्त राष्ट्र हंगर टास्क फोर्स में शामिल हुए। 2007 में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें राज्यसभा के लिए नामांकित किया। उन्होंने पुरुषों के शहरों की ओर प्रवास के कारण खेती में महिलाओं की भूमिका बढ़ाने के लिए महिला किसान अधिकार विधेयक, 2011 प्रस्तुत किया।
डॉ. एमएस स्वामीनाथन को 1972 में पद्म भूषण और 1967 में पद्म श्री प्राप्त करने के बाद 1989 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 1971 में उन्हें रेमन मैग्सेसे पुरस्कार,1986 में विज्ञान के लिए अल्बर्ट आइंस्टीन विश्व पुरस्कार और 1994 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) पुरस्कार प्रदान किया गया।
डॉ. एमएस स्वामीनाथन ने 1999 में गांधी स्वर्ण पदक हासिल किया। उसी वर्ष उन्हें शांति, निरस्त्रीकरण और विकास के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें फ्रांस, कंबोडिया, चीन और फिलीपींस द्वारा नागरिक पुरस्कार और दुनिया भर के 80 विश्वविद्यालयों द्वारा मानद डॉक्टरेट की उपाधि से भी सम्मानित किया गया।
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