दिल्ली। भाजपा तुझे कुछ याद है कि तूने कैसे सफर तय किया। कितनों को किनारे किया कितनों को जीते जी दफना दिया। कभी पूर्णमासी की रात जंगल में किसी शीशम के पेड़ के नीचे तुम्हें सुनाई देंगी। वे आवाजें जिन्हें तुमने भुला दिया है और वे तुम्हें पुकार रही हैं। इनमें सिर्फ राजनेता ही नहीं है। तुम्हारे लिए उम्र ऊर्जा और बौद्धिक क्षमता लेकर लड़ने वाले बौद्धिक प्रहरी भी हैं। हां इनमें वे भी शामिल हैं, जिन की कसमें खाकर तुम अंत्योदय की बात करते थे और वह भी जो तुम्हारी हुंकार के साथ वर्ग, वर्ण को छोड़कर आ रहे थे। इनमें एक नाम दया प्रकाश सिन्हा का भी है।
यह वही शख्स है जो उत्तर प्रदेश का मुख्य सचिव रहा और सेवानिवृत्ति के बाद भाजपा कार्यालय का 10 बरस तक प्रशासक भी रहा। पार्टी कार्यालय की हर गड़बड़ को ठीक किया। अद्भुत, मौलिक लेखन और भाषा की प्रांजलता के साथ अद्भुत समरसता के धनी डीपी सिन्हा को इस बार साहित्य अकादमी ने नाटक 'अशोक' पर पुरस्कार दिया है। इस पर जनता दल यूनाइटेड को यह फैसला नागवार गुजरा। इतना ही नहीं, पुस्तक में पाटिल पुत्र के मौर्यकालीन सम्राट अशोक की तुलना औरंगजेब से की गई है। इस पर राजीव रंजन सिंह ने सिन्हा को मिली पद्मश्री और साहित्य अकादमी अवॉर्ड वापिस लेने की मांग की है।
मामला रंगता देखकर सुशील कुमार मोदी ने कहा कि 80 साला सिन्हा 2010 से किसी राजनीतिक दल में जुड़े नहीं है। लिहाजा, उनकी टिप्पणियों का भाजपा से कोई संबंध नहीं है। उन्होंने कहा कि हम सम्राट अशोक की तुलना औरंगजेब से कभी नहीं कर सकते अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया, लेकिन धर्मांतरण की कोई घटना नहीं हुई। बात यहां तक नहीं रुकी। भाजपा के बिहार प्रदेश अध्यक्ष संजय कुमार जायसवाल ने सिन्हा पर पटना में धार्मिक भावना आहत करने का मामला दर्ज करा दिया। ये वो लोग हैं, जिन्होंने अशोक नाटक देखा भी नहीं होगा। क्या यह जानते भी हैं कि अशोक ऐतिहासिक और प्रामाणिक रूप से वैसा नहीं था जैसा बताया और पढ़ाया गया है।
श्री सिन्हा ने इस पर 10 बरस से ज्यादा लगाकर शोध किया। फिर यह निष्पत्ति आई कि अशोक यकीनन अपने जीवन आरंभ से क्रूर, मक्कार, हिंसक और विकृति के स्तर तक कामुक था। उसके जीवन और व्यवहार की तुलना औरंगजेब के अलावा किसी से नहीं हो सकती सिवाय इसके कि वह बाद में रूपांतरित हो गया था। एक सदाशयी बौद्ध में बदल गया था और औरंगजेब कभी नहीं बदला। बिहार के भाजपा अध्यक्ष ने डीपी सिन्हा के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज कराई। न उन्हें अशोक का पता है न नाटक का। और न कदाचित सिन्हा के अवदान का। कम से कम एक लेखक के हक में खड़ा होना तो सीखना ही होगा।
इसे कांग्रेस के हमदर्द वामपंथी लेखकों से समझना होगा कि वह कैसे एक दूसरे के साथ खड़े होते हैं और गोर्की, चखव और दरिंदा को हिंदी में चर्चित कर देते हैं। निश्चित वे अच्छे और महान लेखक हैं, लेकिन इसके नेपथ्य में वामपंथ का एक समूह भी है जो लगातार उन्हें उल्लेख करता रहता है।
जा निसार अख्तर ने लिखा था
'फिजां में रोशनी नाहाती रहे
हमारी जमीं जगमगाती रहे'
कुछ इस तरह की सोबत और संगत को आरजू बनाए भाजपा ने सुनना शुरू किया। लेकिन धीरे-धीरे सत्ता का कमरबंद पाते ही उसने अपनी भावधारा के लेखकों से ही पीछा छुड़ा लिया। अभी नेताओं का जिक्र नहीं। कदाचित वे सभी उनके लिए वक्त की पुरानी तस्वीर की मॉनिंद हो गए थे, जिन्हें आने वाली पीढ़ी पहचानेगी भी या नहीं, इन्हें इस पर शक था। देश में खेतिया लहराए, जातियां विलुप्त हो जाएं, बच्चे गीत गुनगुनाएं और स्कूल जाएं, मगर कहने और है और करमन और। भाजपा ने डीपी सिन्हा जैसे लेखक को अकेला पटकर जता दिया कि हम सिर्फ उसके साथ हैं, जो आज और अभी हमारे लिए उपयोगी हैं। 22 नाटाकों का लेखक आखिर कितना जरूरी है। जरूरी है जातिगत गणित और इच्छा गीत व्याख्याएं।
ऐसी ही पद्म पुरस्कार के लिए कलेक्टर की अनुशंसा के बावजूद 62 पुस्तकों कि इसी भाव धारा के स्थापित लेखक को पद्मश्री नहीं दी गई। कोई बताएगा कि राजनीति के इस कुहासे के दौर में भी दुनिया के किस पार्टी ने अपने लेखकों से हाथ धोए हैं। पोलैंड की पूरी क्रांति लेखकों की ही देन है- नहीं ? कदाचित भाजपा इसे विरोध नहीं सलाह समझने की कोशिश करेगी।