अयोध्या का राममंदिर इन्हीं श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों की अभिव्यक्ति है। क्योंकि राम सिर्फ शासन व्यवस्था के आदर्श नहीं हैं। राम पुरुषार्थ से शासक बनते हैं, परमार्थ से साधु बनते हैं। राम अहंकारी से सब छीनते हैं और शरणागत को सब देते हैं। इसीलिए राम आतंक के विरुद्ध भी खड्गहस्त (शस्त्र युक्त) होते हैं। आज दुनिया …
अयोध्या का राममंदिर इन्हीं श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों की अभिव्यक्ति है। क्योंकि राम सिर्फ शासन व्यवस्था के आदर्श नहीं हैं। राम पुरुषार्थ से शासक बनते हैं, परमार्थ से साधु बनते हैं। राम अहंकारी से सब छीनते हैं और शरणागत को सब देते हैं। इसीलिए राम आतंक के विरुद्ध भी खड्गहस्त (शस्त्र युक्त) होते हैं।
आज दुनिया में आतंकवाद सबसे बड़ी समस्या है। राम त्रेतायुग में ही राक्षसों के आतंक की समाप्ती का प्रण करते हैं- "निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्हि।" यानी दुनिया में आतंक से लड़ने की क्षमता और सामर्थ्य का 'पाॅवर हाऊस' भी अयोध्या का यह मंदिर बन सकता है। अयोध्या का अर्थ ही 'आतंक के विरुद्ध' है अर्थात जिससे युद्ध न हो सके। जो किसी आतंक के आगे न झुके। जिसे कभी जीता न जा सके।
वैदिक ऋषि भी अयोध्या को इन्हीं संदर्भों में परिभाषित करते हैं। वह भी अयोध्या के इस संघर्षधर्मी मंदिर की नवय्यत बताते हुए कहते हैं कि मंदिर की सबसे पुरानी संकल्पना मनुष्य के शरीर में ही निहित है। मंदिरों की पहली नींव पड़ने के बहुत पहले से ही मनुष्य का तन प्रकृति का सबसे मौलिक मंदिर है। मंदिरों के स्थूल संदर्भ तो दूसरी सदी में शुरू होते हैं। पर शरीर मंदिर के 'अथर्ववेदीय' संदर्भ अयोध्या में पहले से उपस्थित हैं। यह अयोध्या सहस्रधार में है। अयोध्या शरीर का वह बिंदु है, जो हमारी अन्तर्मन की चेतना के प्रस्फुरण का चरम है। इस बिंदु को कोई व्याधि या विकार जीत नहीं सकता।
राष्ट्रपुरुष राम
राम भी भारतीय जनमानस की अवधारणा और इतिहास के मूलाधार से ऊपर उठते हैं। वे पुराण, लोक और काव्य से होते हुए भारत की सांस्कृतिक चेतना के सहस्रधार पर विराजमान होते हैं। इसलिए राम हमारी सर्वश्रेष्ठ कल्पनाओं और आदर्शों के हिरण्यमय कोश हैं।
राष्ट्रपुरुष की सूक्ष्म अवधारणा राम के चरित्र में विग्रहवान होती है। एक आदर्श भारतीय चरित्र जो संघर्ष, तप, त्याग, सत्य, समन्वय और तितीक्षा से बनता है। उस कसौटी पर राम खरे उतरते हैं।
राम वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में वैविध्य के बीच समन्वय और समावेश के सुमेरु हैं। शिखर हैं। इसीलिए कहा गया- "जहाँ राम वहीं अयोध्या"। अयोध्या सनातन है। अजन्मा है। अनंत है। व्यापक है। निस्सीम है। आदि और अनादि है। और श्रीराम अयोध्या से बहने वाला वह 'रस' है, जिसे तुलसी 'रसायन' कहते हैं।
"राम रसायन तुम्हरे पासा।"
"सदा रहो रघुपति के दासा।।"
राष्ट्रपुरुष राम
यही 'राम रसायन' है। इस राम रसायन से अयोध्या सदियों से रससिक्त है, पर इस 'रस' के अवगाहन में सदियों से रुकावट थी। अयोध्या संघर्ष और बदलाव से जूझ रही थी। उसके केंद्र में विचारधाराओं का टकराव था। एक विचारधारा उपासना स्वातंत्र्य, सर्वपंथ सद्भाव, पंथनिरपेक्षता पर टिकी थी तो दूसरी मजहबी एकरूपता, धार्मिक विस्तारवाद और सामुदायिक असहिष्णुता पर टिकी थी।
अयोध्या के सांस्कृतिक मायने को उन 'तीन गुंबदों' ने बदल दिया था, जो 'बाबरी ढांचे' की शक्ल में वहाँ पाँच सौ वर्षों से खड़े थे। इस राष्ट्र की स्मृति पर ये गुंबद मानो विजेता की भाँति सवार थे। ये गुंबद निरंतर हमारे अवचेतन में शासक-शासित का भाव जगाते रहे।
विगत डेढ़ सौ वर्षों में देश की राजनीति इन्हीं गुंबदों के इर्द-गिर्द घूमती रही। किसी ने यह बूझने या समझने की कोशिश नहीं की कि सबकुछ इन गुंबदों के इर्द-गिर्द ही क्यों घट रहा है ? इसके सच को पकड़ने का कोई ऐसा 'बौद्धिक अनुष्ठान' भी नहीं हुआ, जिसमें इतिहास के साथ-साथ वर्तमान और भविष्य को जोड़ने का माद्दा हो।
राम की अनुकरणीयता, पुरुषार्थ, सर्वजनीनता (सर्व हितकारी) और सर्वव्यापकता ने इस गुंबद की राजनीति का अंत कर दिया। उसकी जगह विराट् और सूक्ष्म, सगुण और निर्गुण, वैदिक और लोकायत संकल्पनाओं का पूँजीभूत ऊर्जा केंद्र यह राममंदिर बन गया। हिन्दू समाज उन तारीखों का चश्मदीद रहा है, जिनसे अयोध्या की शक्ल, चरित्र और मायने बदलने की बलात कोशिश हुई। अयोध्या का सच बदलने का कुटिल षड्यंत्र हुआ। पर जो बदला गया, वह अयोध्या का सच तो नहीं था। अयोध्या का सच हमारी विरासत, परंपरा और सांस्कृतिक इतिहास में इस तरह गहरे तक धँसा हुआ था, जिसे निकालना नामुमकिन था। भारत के मानचित्र में राम की यात्रा उत्तर से दक्षिण को है। बाद में इसी रास्ते भक्ति दक्षिण से उत्तर की ओर आती है… "भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद, प्रकट किया कबीर ने, सात दीप नौ खंड।" भक्ति का यह तत्त्व श्रीराम को घर-घर और घट-घट व्यापी बनाता है।
राष्ट्रपुरुष राम
राम इस देश की अनेक विविध संस्कृतियों का प्रतीकात्मक श्रेष्ठ समन्वय हैं। वे अवतार-परंपरा में शिव, विष्णु और शक्ति को जोड़ते हैं और समाज-परंपरा में सम्राट् और निषाद, रानी और भीलनी, वानर और ऋक्ष, युद्ध और त्याग, शौर्य और शरणागति को जोड़ते हैं।
श्रीराम इतने परस्पर विरोधी ध्रुवों को जोड़ते हैं कि "उनका यह मंदिर अब उस चेतना का केंद्र भी बनेगा, जहाँ राम और राष्ट्र एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं। इसलिए अयोध्या के रामलला मंदिर को आप हमारी राष्ट्रीयता का मंदिर भी कह सकते हैं।" नागर शैली में बने इस मंदिर का शिखर राष्ट्रीय स्वाभिमान का शिखर बनेगा।