-ललित गर्ग-
दुुनिया में अब महिला दिवस की भांति पुरुष दिवस प्रभावी रूप में बनाये जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। अब पुरुष भी अपने शोषण एवं उत्पीडित होने की बात उठा रहे हैं। महिलाओं की तुलना में पुरुषों पर अधिक उपेक्षा, उत्पीड़न एवं अन्याय की घटनाएं पनपने की भी बात की जा रही है। महिला दिवस की तर्ज पर ही पूरे विश्व में अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस भी मनाया जाने लगा है। इस दिवस की शुरुआत 1999 में त्रिनिदाद एवं टोबागो से हुई थी। तब से प्रत्येक वर्ष 19 नवम्बर को अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस दुनिया के 30 से अधिक देशों में मनाया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसे मान्यता देते हुए इसकी आवश्यकता को बल दिया और पुरजोर सराहना एवं सहायता दी है। आज तेजी से बदलती दुनिया में हर वर्ग के लिए परिभाषाएं भी बन एवं बदल रही हैं। एक तरफ जहां महिलाएं सशक्त हो रही हैं, वहीं पुरुषों की भी छवि समाज में बदलती जा रही है। कुछ वर्ष पूर्व की बात करें तो पुरुषों को लेकर समाज में ढेरों रुढ़िवादी विचार थे, महिलाओं केे शोषण एवं उसे दोयम दर्जा दिये जाने का आरोप उस पर लगता रहा है। जिनमें अब तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। यह दिन पुरुषों द्वारा देश, समाज व परिवार में किए गए उनके योगदान को याद करने का दिन है। साथ ही पुरुषों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य व उनसे जुड़ी भ्रांतियों पर भी चर्चा करने का दिन है।
पुरुष एक ऐसा शब्द जिसके बिना किसी के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। नारी जहां जीवन को परिपूर्णता देती है तो वहीं पुरुष ही इसका आधार है। अब तक पुरुष की तमाम विशेषताओं को नजरअंदाज करते हुए उसे शोषक, नारी उत्पीडक, क्रूर एवं अत्याचारी ही घोषित किया जाता रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है। नारी जन्मदात्री है तो पुरुष जीवन-निर्माता है। बचपन में जब कोई बच्चा चलना सीखता है तो सबसे पहले अपने पिता रूपी पुरुष की उंगली थामता है। नन्हा-सा बच्चा उसकी उँगली थामे और उसकी बाँहों में रहकर बहुत सुकून पाता है। बोलने के साथ ही बच्चे जिद करना शुरू कर देते हैं और पिता उनकी सभी जिदों को पूरा करते हैं। बचपन में चॉकलेट, खिलौने दिलाने से लेकर युवावर्ग तक बाइक, कार, लैपटॉप और उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने तक संतान की सभी माँगों को वो पूरा करते रहते हैं यानी पुरुष की भूमिका किसी भी रूप में महिलाओं से कम नहीं है।
भारतीय समाज में "मर्द को दर्द नहीं होता" या फिर जब कोई पुरुष रोता है तो 'मर्द बनो और रोना बंद करो' जैसी बातें बोली जाती हैं। पिछले कई सालों से पुरुषों की समाज में संघर्षशील व कठोर छवि को प्रस्तुत किया गया है। लेकिन मुख्य सवाल है कि आखिर मर्द या पुरुष हैं कौन? जो घोड़े दौड़ाता है, शिकार करता है, या फिर जो अच्छे सूट में, चमचमाती कार में ऑफिस जाता है और घर पर भी अपनी तारीफ ही सुनना चाहता है। एक रौबदार छवि, आक्रांता, शोषक, असंवेदनशीलता एवं अत्याचारी वाली उसकी छवि क्या वास्तविक छवि है? असल में पिछले कुछ वर्षों में मर्द की परिभाषा में एक उदारवादी एवं संवेदनशील बदलाव देखने को मिला है। अब पुरुष या मर्द वो नहीं जो हमें अब तक पूर्वाग्रही रूढ़िवादी मानसिकता बताती हैं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा वो है ऐसा आधारस्तंभ है जो जिम्मेदारी उठाता है, जो सिर्फ चमकदार जूते एवं कपड़े ही नहीं पहनता बल्कि समाज व देश को भी चमकदार बनाने के लिए आगे आता है, परिवार कीक जिम्मेदारियों को ढोता है। जो सिर्फ महंगी गाड़ियां नहीं दौड़ाता बल्कि अपने परिवार को साथ लेकर उसकी सारी मूलभूत जरूरों को पूरा करते हुए आगे बढ़ता है। ऐसा करते समय वो अनेक बाधाओं से तो लड़ता ही है लेकिन साथ में यह भी सुनिश्चित करता है कि उनके बाद किसी को भी इन बाधाओं से होकर न गुजरना पड़े। अपनी सभी जिम्मेदारियों को उठाते हुए एक पुरुष यह भी सुनिश्चित करता है कि उसकी वजह से किसी को कोई भेदभाव न झेलना पड़े। वह जेंडर इक्वलिटी के लिए अपनी आवाज बुलंद करता है। अपने साथ अपनी टीम को आगे बढ़ाने के लिए काम करता है। जो सफलता में पीछे खड़ा रहता है लेकिन असफलताओं के मौक़े पर आगे आकर जिम्मेदारी लेता है।
समाज रूपी गाड़ी को सही से चलाने के लिए यह बेहद जरूरी है कि महिलाएं उसका विरोधी होने के बजाय सहयोगी बने। उन्हें किसी भी भेदभाव का सामना न करना पड़े। मानवीय रिश्तों में दुनिया में सबसे बड़ा स्थान मां के रूप में नारी को दिया जाता है, लेकिन एक बच्चे को बड़ा और सभ्य बनाने में उसके पिता के रूप में पुरुष का योगदान कम करके नहीं आंका जा सकता। बच्चे को जब कोई खरोंच लग जाती है तो जितना दर्द एक मां महसूस करती है, वही दर्द एक पिता भी महसूस करते हैं। पिता बेटा की चोट देख कर कठोर इसलिये बना रहता है ताकि वह जीवन की समस्याओं से लड़ने का पाठ सीखे, सख्त एवं निडर बनकर जिंदगी की तकलीफों का सामना करने में सक्षम हो। महिला ममता का सागर है पर पुरुष उसका किनारा है। महिला से ही बनता घर है पर पुरुष घर का सहारा है। महिला से स्वर्ग है महिला से बैकुंठ, महिला से ही चारों धाम है पर इन सब का द्वार तो पुरुष ही है। उन्हीं पुरुषों के सम्मान में पुरुष दिवस मनाया जाता है।
कुछ वर्ष पूर्व भारत में सक्रिय अखिल भारतीय पुरुष एशोसिएशन ने भारत सरकार से एक खास मांग की कि महिला विकास मंत्रालय की भांति पुरुष विकास मंत्रालय का भी गठन किया जाये। इसी तरह यूपी में भारतीय जनता पार्टी के कुछ सांसदों ने यह मांग उठाई थी कि राष्ट्रीय महिला आयोग की तर्ज पर राष्ट्रीय पुरुष आयोग जैसी भी एक संवैधानिक संस्था बननी चाहिए। इन सांसदों ने इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भी लिखा था। पत्र लिखने वाले एक सांसद हरिनारायण राजभर ने उस वक्त यह दावा किया था कि पत्नी प्रताड़ित कई पुरुष जेलों में बंद हैं, लेकिन कानून के एकतरफा रुख और समाज में हंसी के डर से वे खुद के ऊपर होने वाले घरेलू अत्याचारों के खिलाफ आवाज नहीं उठा रहे हैं। प्रश्न है कि आखिर पुरुष इस तरह की अपेक्षाएं क्यों महसूस कर रहे हैं? लगता है पुरुष अब अपने ऊपर आघातों एवं उपेक्षाओं से निजात चाहता है। तरह-तरह के कानूनों ने उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधलाया है। जबकि आज बदलते वक्त के साथ पुरुष अब अधिक जिम्मेदार और संवेदनशील हो चुका है। कई युवा पुरुष समाज-निर्माण की बड़ी जिम्मेदारियों को उठा रहे हैं और अपनी काबिलीयत व जुनून से यह साबित भी कर रहे हैं। आज का पुरुष सिर्फ खुद को नहीं बल्कि महिलाओं के साथ कदम मिलाकर आगे बढ़ता है। वह यह सुनिश्चित कर रहा है कि उन्हें भी आगे बढ़ने के समान अवसर मिलें व उन्हें किसी भी भेदभाव का सामना न करना पड़े। यह परिवर्तन आज सभी इंडस्ट्री जैसे मीडिया, हॉस्पिटैलिटी, बैंकिंग, उद्योग, व्यापार आदि में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है, जहां महिलाएं शीर्ष पदों पर काम कर रही हैं। सिर्फ यही नहीं पुरुषों को अब महिलाओं के नेतृत्व में कार्य करने में भी झिझक नहीं महसूस होती।
दुनिया के दूसरे देशों की तरह भारत भी घरेलू हिंसा की समस्या से जूझ रहा हैं। महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए कठोर कानून भी बने हैं, लेकिन पुरुष भी घरेलू हिंसा का शिकार होते हैं। भारत में अभी तक ऐसा कोई सरकारी अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं हुआ है जिससे इस बात का पता लग सके कि घरेलू हिंसा में शिकार पुरुषों की तादाद कितनी है लेकिन कुछ गैर सरकारी संस्थान इस दिशा में जरूर काम कर रहे हैं। 'सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन' और 'माई नेशन' नाम की गैर सरकारी संस्थाओं के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि भारत में नब्बे फीसद से ज्यादा पति तीन साल की रिलेशनशिप में कम से कम एक बार घरेलू हिंसा का सामना कर चुके होते हैं। इस रिपोर्ट में यह भी तथ्य सामने आया है कि पुरुषों ने जब इस तरह की शिकायतें पुलिस में या फिर किसी अन्य प्लेटफॉर्म पर करनी चाही तो लोगों ने इस पर विश्वास नहीं किया और शिकायत करने वाले पुरुषों को हंसी का पात्र बना दिया गया। लेकिन यह एक सच्चाई है कि अब महिलाओं की भांति पुरुष भी हिंसा, उत्पीडन एवं उपेक्षा के शिकार है। वे भी अपने अस्तित्व की सुरक्षा एवं सम्मान के लिये आवाज उठाना चाहते हैं। बड़ा सच है कि जीवन में जब भी निर्माण की आवाज उठेगी, पौरुष की मशाल जगेगी, सत्य की आंख खुलेगी तब हम, हमारा वो सब कुछ जिससे हम जुड़े होंगे, वो सब पुरुष का कीमती तौहफा होगा, इस अहसास को जीवंत करके ही हमें पुरुष-दिवस को मनाने की सार्थकता पा सकेंगे।