प्रदीप पंडित
जसेरि। छांव-छांव अपना बदन बचाकर चलती लड़कियां दिल्ली के लिए शायद शर्म नहीं हैं। बावजूद इसके कि वे अपने लिए परिश्रम से खोजी गई सुबह तलाशने में लगी हैं। आप है कि उन्हें अंधियारें में ठूंस रहे होते हैं। शाहदरा दिल्ली की अत्यंत भीड़ भरी बस्ती है। वहां एक महिला के साथ न केवल बलात्कार हुआ, उसका सिर मूंडा गया। उसके गले में चप्पलों की माला पहनाई गई। जब इससे भी मन न भरा तो उसका जुलूस निकाला गया। सवाल यह है कि वह अपने कद और काया में औरत थी या कागज की कश्ती, जो भीड़ जैसे भरे पानी में साहिल को तलाशती, टकराती बही जा रही थी। कोई देखने और सुनने वाला नहीं था। रीढ़हीन अंधे लोगों की भीड़ जो पंजाबी गानों पर थिरक तो सकती है, चिल्ला सकती है।
फेसबुक और ट्विटर पर भौंक सकती है और अपनी नैतिकता के प्रदर्शन में इंडियागेट तक कैंडिल मार्च कर सकती है। दिखनौटे लोगों के दिखनौटे तरीके । इसमें सरोकार कहीं नहीं।लोग देख लें कि उनके कुछ विमर्श हैं, लोग जान लें कि वे प्रगतिशाील हैं। इसमें व्याकरण जानकर बने कवि हैं। सब उधार का शब्द सरोकार, उपमाएं और अपनी बताई जाती प्रतीतियां। कभी-कभी लगता है कि दिल्ली की अपना कोई प्रतीती नहीं है। न मोहब्बत में, न घृणा में और न ही गुस्से में। देश की राजधानी कहाती दिल्ली में अफसोस कदाचित व्यवस्थित दिखते अस्त-व्यस्त समाज ने सीख लिया है। यह दु:ख सिर्फ निजी एहसास का नाम है। जब तक यह उनकी दहलीज पार कर घर में दाखिल नहीं होता वे दुखी नहीं होते मगर फैशन है कि दुख जतलाना है। इस लिए मोमबत्ती जला लेते हैं, लेकिन स्त्री को कुछ देते नहीं। न उसका अधिकार भावों की बात करना तो नासमझी है। फिर बात हिंदू-मुसलमान या किसी और समाज की नहीं, कुलजमा हर समाज की है। कोई बताए कि किस समाज में किस समाज में स्त्री तय कर सकती है कि वह कल मां बनना चाहती है। विरोध और नाराजगी का अर्थ किसी मन के अहंकार को इ स तरह कुचना नहीं होता जैसा शाहदरा में हुआ।
कितना शर्मनाक है कि वे लोग जब उसे पीट रहे थे, निर्वसित कर रहे थे तब उसे किसी का साथ न मिला, न किसी दीवार की टेक और न ही किसी पुरूष दिखते मनुष्य का साथ का साया ये तमाम अर्द्ध नपुंसक लोग शायद उसका वीडियो बना रहे होंगे। कैसे खून नहीं खौला इनका? पता नहीं दिल्ली कैसे धमनियों में पिघला हुआ सीसा भर देती है। यह पता भी नहीं चलता। असंख्य लोगों के सामने हुई दुर्घटना पर एक भी आवाज प्रतिकार के लिए नहीं उठी। यह देश रिश्तों की चौपाल पर उम्र की देहरियों के साथ चलता है और यहीं रिश्ते रोज तार-तार होते है। समाज में परिवर्तन की बात करले सैकड़ों राजनेता पनवाड़ी से बीयर बार तक नजर आते हैं, लेकिन वस्तुत: वे अपने परिवर्तन की बात कर रहे होते हैं। इनकी चुनी हुई चुप्पियों में सिर्फ होते हैं तस्कर संकेत, विदेश जाकर रेगरेलियां उड़ाने की दबी इच्छाएं, कैसे भी हो रूपए जुटाने की भरसक कोशिशें और अपने को सुरक्षित रखने की जुगत। इसके अलावा कोई कारण नहीं जो जिंदा कौम के जिन्दा शख्स को चुप रहने को विवश कर दे। लगता है उन लिपे-पुते चेहरों और बिना नहाए इत्र लगाकर अपनी दमित इच्छाओं को पूरा करने के लिए बिलबिलाते लोगों पर, जो किसी के साथ जुल्म होता देखकर भी अपनी चाहत की खोखला में बंद हो जाते है और अपने ढकोसले से भरे मनुष्याव को बकवास फेसबुक पर जताते हैं अधढ़के बदनों के पीछे।